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बस आस मत छोड़ना
कौन कहता है
कि टूटने से
जीवन समाप्त हो जाता है।
टूटकर धरा में मिलेंगे,
नवीन कोंपल से
फिर उठ खड़े होंगे
फिर पनपेंगे,
फूलेंगे, फलेंगे
बस आस मत छोड़ना।
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गुरु शिष्य परम्परा
समय के साथ गुरु और शिष्य दोनों की धारणा बदली है और हम इस बदली हुई धारणा एवं व्यवस्था में ही जी रहे हैं। परन्तु पता नहीं क्यों हमें पिष्ट-पेषण में आनन्द मिलता है। आज के गुरुओं की बुराई, शिष्यों के प्रति अनादर भाव हमारी प्रकृति बन गया है। प्राचीन गुरु शिष्य परम्परा निःसंदेह अति उत्तम थी किन्तु काल परिवर्तन के साथ वर्तमान में वह सम्भव ही नहीं है। जो आज है हम उस पर विचार नहीं करते कि उसे और अच्छा कैसे बनाया जा सकता है, प्राचीनता के निरर्थक मोह में वर्तमान को कोसना हमारी आदत बन चुका है। हमारे प्राचीन साहित्य से अच्छा कुछ नहीं, किन्तु वर्तमान में मिल रही शिक्षा का भी अपना महत्व है उसे हम नकार नहीं सकते। समयानुसार आज के गुरु भी समर्पित हैं और शिष्य भी, भेद तो प्राचीन काल में भी रहा है।
तो चलिए आज से वर्तमान में जीने का , उसे समझने का, उसे और बेहतर बनाने का प्रयास करें और पिछले को स्मरण अवश्य रखें, उसका पूरा सम्मान करें किन्तु वर्तमान के सम्मान के साथ।
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कभी हमारी रचना पर आया कीजिए
समीक्षा कीजिए, जांच कीजिए, पड़ताल कीजिए।
इसी बहाने कभी-कभार रचना पर आया कीजिए।
बहुत आशाएं तो हम करते नहीं समीक्षकों से,
बहुत खूब, बहुत सुन्दर ही लिख जाया कीजिए।
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कुछ पाने के लिए सर टकराने पड़ते हैं
जीवन में
आगे बढ़ने के लिए
खतरे तो उठाने पड़ते हैं।
लीक से हटकर
चलते-चलते
अक्सर झटके भी
खाने पड़ते हैं।
हिमालय की चोटी छूने में
खतरा भी है,
जोखिम भी,
और शायद संकट भी।
जीवन में कुछ पाने के लिए
तीनों से सर
टकराने पड़ते हैं।
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बंजारों पर चित्राधारित रचना
किसी चित्रकार की
तूलिका से बिखरे
यह शोख रंग
चित्रित कर पाते हैं
बस, एक ठहरी-सी हंसी,
थोड़ी दिखती-सी खुशी
कुछ आराम
कुछ श्रृंगार, सौन्दर्य का आकर्षण
अधखिली रोशनी में
दमकता जीवन।
किन्तु, कहां देख पाती है
इससे आगे
बन्द आंखों में गहराती चिन्ताएं
भविष्य का धुंधलापन
अधखिली रोशनी में जीवन तलाशता
संघर्ष की रोटी
राहों में बिखरा जीव
हर दिन
किसी नये ठौर की तलाश में
यूं ही बीतता है जीवन ।
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मेरे बारे में क्या लिखेंगे लोग
अक्सर
अपने बारे में सोचती हूं
मेरे बारे में
क्या लिखेंगे लोग।
हंसना तो आता है मुझे
पर मेरी हंसी
कितनी खुशियां दे पाती है
किसी को,
यही सोच कर सोचती हूं,
कुछ ज्यादा अच्छा नहीं
मेरे बारे में लिखेंगे लोग।
ज़िन्दगी में उदासी तो
कभी भी किसी को सुहाती नहीं,
और मैं जल्दी मुरझा जाती हूं
पेड़ से गिरे पत्तों की तरह।
छोटी-छोटी बातों पर
बहक जाती हूं,
रूठ जाती हूं,
आंसूं तो पलकों पर रहते हैं,
तब
मेरे बारे में कहां से
कुछ अच्छा लिखेंगे लोग।
सच बोलने की आदत है बुरी,
किसी को भी कह देती हूं
खोटी-खरी,
बेबात
किसी को मनाना मुझे आता नहीं
अकारण
किसी को भाव देना मुझे भाता नहीं,
फिर,
मेरे बारे में कहां से
कुछ अच्छा लिखेंगे लोग।
अक्सर अपनी बात कह पाती नहीं
किसी की सुननी मुझे आती नहीं
मौसम-सा मन है,
कभी बसन्त-सा बहकता है,
पंछी-सा चहकता है,
कभी इतनी लम्बी झड़ी
कि सब तट-बन्ध टूटते है।
कभी वाणी में जलाती धूप से
शब्द आकार ले लेते हैं
कभी
शीत में-से जमे भाव
निःशब्द रह जाते हैं।
फिर कैसे कहूं,
कि मेरे बारे में
कुछ अच्छा लिखेंगे लोग।
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ज़िन्दगी है कि रेत-घड़ी
काल-चक्र की गति
कौन समझ पाया है
.
हम हाथों पर
घड़ियाँ बांधकर,
दीवार पर घड़ियां टांगकर
समझते हैं
समय हमारे अनुसार चलेगा।
ये घड़ियां
समय तो बताती है
किन्तु हमारा समय कहां बता पाती हैं।
हमारी ही तरह
घड़ियों का भी समय
बदलने लगता है
कोई धीमी चलने लगती है
किसी की सूई टूट जाती है
किसी के सैल चुक जाते हैं
तो कोई गिरकर टूट जाती है।
और घड़ियां नहीं बतातीं
कि दिख रहा समय
दिन का है
अथवा रात का।
यह समझने के लिए
तो हमें
सूरज-चांद
अंधेरे और रोशनी से टकराना पड़ता है।
-
और ज़िन्दगी है कि
रेत-घड़ी की तरह
रिसती रहती है।
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अकेला ही चला जा रहा है आदमी
अपने भीतर
अपने-आपसे ही कट रहा है आदमी।
कहाँ जायें, कैसे जायें
कहाँ समझ पर रहा है आदमी।
टुकड़ों में है जीवन बीत रहा
बस
ऐसे ही तो चला जा रहा है आदमी।
कुछ काम का बोझ,
कुछ जीवन की नासमझी
कहाँ कोई साथ देता है
बस अकेला ही चला जा रहा है आदमी।
पानी की गहराई
नहीं जानता है
इसलिए पत्थरों पर ही
कदम-दर-कदम बढ़ रहा है आदमी।
देह कब तक साथ देगी
नहीं जानता
इसलिए देह को भी मन से नकार रहा है आदमी।
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बचपन की बातें
हवा में उड़ते धागों को पकड़ने के लिए भागा करते थे
पकड़-पकड़ कर बोतलों में एकत्र कर लिया करते थे
मन में डर रहता था कि कहीं काले-काले कीट तो नहीं
बाद में इनका गुच्छा बनाकर हवा में उड़ा दिया करते थे।
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शब्द लड़खड़ा रहे
रात भीगी-भीगी
पत्तों पर बूंदें
सिहरी-सिहरी
चांद-तारे सुप्त-से
बादलों में रोशनी घिरी
खिड़कियों पर कोहरा
मन पर शीत का पहरा
शब्द लड़खड़ा रहे
बातें मन में दबीं।