सूरज तो सबका है,
सबके अंधेरे दूर करता है।
किन्तु उसकी रोशनी से
अपना मन कहां भरमाता है ।
-
अपनी रोशनी के लिए,
अपने गुरूर से
अपना दीप प्रज्वलित करते है।
और अंधेरा मिटाने की बात करते हैं।
-
फिर भी अक्सर
न जाने क्यों
दीप तले अंधेरे की बात करते हैं।
-
तो हिम्मत करें,
हाथ पर रखें लौ को
तब जग से
तम मिटाने की बात करते हैं।
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चूड़ियां: रूढ़ि या परम्परा
आज मैंने अपने हाथों की
सारी चूड़ियों उतार दी हैं
और उतार कर सहेज नहीं ली हैं
तोड़ दी हैं
और टुकड़े टुकड़े करके
उनका कण-कण
नाली में बहा दिया हैं।
इसे
कोई बचकानी हरकत न समझ लेना।
वास्तव में मैं डर गई थी।
चूड़ियों की खनक से,
उनकी मधुर आवाज़ से,
और उस आवाज़ के प्रति
तुम्हारे आकर्षण से।
और साथ ही चूड़ियों से जुड़े
शताब्दियों से बन रहे
अनेक मुहावरों और कहावतों से।
मैंने सुना है
चूड़ियों वाले हाथ कमज़ोर हुआ करते हैं।
निर्बलता का प्रतीक हैं ये।
और अबला तो मेरा पर्यायवाची
पहले से ही है।
फिर चूड़ी के कलाई में आते ही
सौर्न्दय और प्रदर्शन प्रमुख हो जाता है
और कर्म उपेक्षित।
और सबसे बड़ा खतरा यह
कि पता नहीं
कब, कौन, कहां,
परिचित-अपरिचित
अपना या पराया
दोस्त या दुश्मन
दुनिया के किसी
जाने या अनजाने कोने में
मर जाये
और तुम सब मिलकर
मेरी चूड़ियां तोड़ने लगो।
फ़िलहाल
मैंने इस खतरे को टाल दिया है।
जानती हूं
कि तुम जब यह सब जानेगे
तो बड़ा बुरा मानोगे।
क्योंकि, बड़ी मधुर लगती है
तुम्हें मेरी चूड़ियों की खनक।
तुम्हारे प्रेम और सौन्दर्य गीतों की
प्रेरणा स्त्रोत हैं ये।
फुलका बेलते समय
चूड़ियों से ध्वनित होते स्वर
तुम्हारे लिए अमर संगीत हैं
और तुम
मोहित हो इस सब पर।
पर मैं यह भी जानती हूं
कि इस सबके पीछे
तुम्हारा वह आदिम पुरूष है
जो स्वयं तो पहुंच जाना चाहता है
चांद के चांद पर।
पर मेरे लिए चाहता है
कि मैं,
रसोईघर में,
चकले बेलने की ताल पर,
तुम्हारे लिए,
संगीत के स्वर सर्जित करती रहूं,
तुम्हारी प्रतीक्षा में,
तुम्हारी प्रशंसा के
दो बोल मात्र सुनने के लिए।
पर मैं तुम्हें बता दूं
कि तुम्हारे भीतर का वह आदिम पुरूष
जीवित है अभी तो हो,
किन्तु,
मेरे भीतर की वह आदिम स्त्री
कब की मर चुकी है।
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पर मूर्ख बहुत था रावण
कहते हैं दुराचारी था, अहंकारी था, पर मूर्ख बहुत था रावण
बहन के मान के लिए उसने दांव पर लगाया था सिंहासन
जानता था जीत नहीं पाउंगा, पर बहन का मान रखना था उसे
अपने ही कपटी थे, जानकर भी, दांव पर लगाया था सिंहासन
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सांझ-सवेरे भागा-दौड़ी
सांझ-सवेरे, भागा-दौड़ी
सूरज भागा, चंदा चमका
तारे बिखरे
कुछ चमके, कुछ निखरे
रंगों की डोली पलटी
हल्के-हल्के रंग बदले
फूलों ने मुख मोड़ लिए
पल्लव देखो सिमट गये
चिड़िया ने कूक भरी
तितली-भंवरे कहाँ गये
कीट-पतंगे बिखर गये
ओस की बूँदें टहल रहीं
देखो तो कैसे बहक रहीं
रंगों से देखो खेल रहीं
अभी यहीं थीं
कहाँ गईं, कहाँ गईं
ढूंढो-ढूंढों कहाँ गईं।
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अनचाही दस्तक
श्रवण-शक्ति
तो ठीक है मेरी
किन्तु नहीं सुनती मैं
अनचाही दस्तक।
खड़काते रहो तुम
मेरे मन को
जितना चाहे,
नहीं सुनना मुझे
यदि किसी को,
तो नहीं सुनना।
अपने मन से
जीने की
मेरी कोशिश को
तुम्हारी अनचाही दस्तक
तोड़ नहीं सकती।
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हास्य बाल कथा गीदड़ और ऊंट की कहानी
अध्यापक ने तीसरी कक्षा के बच्चों को यह बोध कथा सुनाई।
एक जंगल में गीदड़ और ऊंट रहते थे। एक दिन गीदड़ ने ऊंट से कहा, नदी पार गन्नों का खेत है, चलो आज रात वहां गन्ने खाने चलते हैं। ऊंट ने पूछा कि तुम कैसे नदी पार करोगे, तुम्हें तो तैरना नहीं आता। गीदड़ ने कहा कि देखो मैंने तुम्हें गन्ने के खेत के बारे में बताया, तुम मुझे अपनी पीठ पर बैठाकर नदी पार करवा देना। हम अंधेरे में ही चुपचाप गन्ने खाकर आ जायेंगे, खेत का मालिक नहीं जागेगा।
दोनों नदी पारकर खेत में गये और पेटभर कर गन्ने खाये। ऊंट ने कहा चलो वापिस चलते हैं। लेकिन गीदड़ अचानक गर्दन ऊपर उठाकर ‘‘हुआं-हुआं’’ करने लगा। ऊंट ने उसे रोका, कि ऐसा मत करो, खेत का मालिक जाग जायेगा और हमें मारेगा। गीदड़ ने कहा कि खाना खाने के बाद अगर वह ‘‘हुआं-हुआ’’ न करे तो खाना नहीं पचता। और वह और ज़ोर से ‘‘हुंआ-हुंआ’’ करने लगा। खेत का मालिक जाग गया और डंडा लेकर दौड़ा। गीदड़ तो गन्नों में छुप गया और ऊंट को खूब मार पड़ी।
तब वे फिर नदी पार कर लौटने लगे और गीदड़ ऊंट की पीठ पर बैठ गया। गहरी नदी के बीच में पहुंचकर ऊंट डुबकियां लेने लगा। गीदड़ चिल्लाया अरे ऊंट भाई, यह क्या कर रहे हो, मैं डूब जाउंगा। ऊंट ने कहा कि खाना खाने के बाद जब तक मैं पानी में डुबकी नहीं लगा लेता मेरा भोजन नहीं पचता। ऊंट ने एक गहरी डुबकी लगाई और गीदड़ डूब गया।
अब अध्यापक ने बच्चों से पूछा ‘‘ बच्चो, इस कहानी से क्या शिक्षा मिलती है?’’
एक बच्चे ने उठकर कहा ‘‘ इस कहानी से शिक्षा मिलती है कि खाना खाने के बाद ‘‘हुंआ-हुंआ नहीं करना चाहिए।’’
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जीकर देख ले मना Try To Live
भावनाओं का रस कहीं सूख रहा
गन्ने की निपोरी सा निचुड़ रहा
मन भरकर जीकर देख ले मना
जीवन का पात्र यूॅं है रीत रहा
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सच कड़वा है
उपदेशों से डरने लगी हूॅं जीवन जीने के लिए मरने लगी हूॅं
दुनियाा बड़ी मनमोहिनी, इच्छाओं को पूरा करने में लगी हूॅं
पता है मुझे खाली हाथ आये थे, खाली हाथ ही जायेंगे
सच कड़वा है, सबके साथ मैं भी मुट्ठियाॅं भरने में लगी हूॅं।
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वास्तविकता और कल्पना
सच कहा है किसी ने
कलाकार की तूलिका
जब आकार देती है
मन से कुछ भाव देती है
तब मूर्तियाँ बोलती हैं
बात करती हैं।
हमें कभी
कलाकार नहीं बताता
अपने मन की बात
कला स्वयँ बोलती है
कहानी बताती है
बात कहती है।
.
निरखती हूँ
कलाकार की इस
अद्भुत कला को,
सुनना चाहती हूँ
इसके मन की बात
प्रयास करती हूँ
मूर्ति की भावानाओं को
समझने का।
आपको
कुछ रुष्ट-सी नहीं लगी
मानों कह रही
हे पुरुष !
अब तो मुझे आधुनिक बना
अपने आनन्द के लिए
यूँ न सँवार-सजा
मैं चाहती हूँ
अपने इस रूप को त्यागना।
घड़े हटा, घर में नल लगवा।
वैसे आधुनिकाओं की
वेशभूषा पर
करते रहते हो टीका-टिप्पणियाँ,
मेरी देह पर भी
कुछ अच्छे वस्त्र सजाते
सुन्दर वस्त्र पहनाते।
देह प्रदर्शनीय होती हैं
क्या ऐसी
कामकाजी घरेलू स्त्रियाँ।
गांव की गोरी
क्या ऐसे जाती है
पनघट जल भरन को ?
हे आदमी !
वास्तविकता और अपनी कल्पना में
कुछ तो तालमेल बना।
समझ नहीं पाती
क्यों ऐसी दोगली सोच है तुम्हारी !!
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ज़िन्दगी खुली मुट्ठी है या बन्द
अंगुलियां कभी मुट्ठी बन जाती हैं,
तो कभी हाथ।
कभी खुलते हैं,
कभी बन्द होते हैं।
कुछ रेखाएं इनके भीतर हैं,
तो कुछ बाहर।
-
रोज़ रात को
मुट्ठियों को
ठीक से
बन्द करके सोती हूं,
पर प्रात:
प्रतिदिन
खुली ही मिलती हैं।
-
देखती हूं,
कुछ रेखाएं नई,
कुछ बदली हुईं,
कुछ मिट गईं।
-
फिर दिन भर
अंगुलियां ,
कभी मुट्ठी बन जाती हैं,
तो कभी हाथ।
कभी खुलते हैं,
कभी बन्द होते हैं।
-
यही ज़िन्दगी है।