ज़िन्दगी खुली मुट्ठी है या बन्द

 

अंगुलियां कभी मुट्ठी बन जाती हैं,

तो कभी हाथ।

कभी खुलते हैं,

कभी बन्द होते हैं।

कुछ रेखाएं इनके भीतर हैं,

तो कुछ बाहर।

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रोज़ रात को

मुट्ठियों को

ठीक से

बन्द करके सोती हूं,

पर प्रात:

प्रतिदिन

खुली ही मिलती हैं।

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देखती हूं,

कुछ रेखाएं नई,

कुछ बदली हुईं,

कुछ मिट गईं।

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फिर दिन भर

अंगुलियां ,

कभी मुट्ठी बन जाती हैं,

तो कभी हाथ।

कभी खुलते हैं,

कभी बन्द होते हैं।

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यही ज़िन्दगी है।