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शहर के बीचों बीच,
चौराहे पर,
हनुमान जी की मूर्ति
खड़ी थी।
गदा
ज़मीन पर टिकाये।
दूसरा हाथ
तथास्तु की मुद्रा में।
साथ की दीवार लिखा था,
गुप्त रोगी मिलें,
हर मंगलवार,
बजरंगी औषधालय,
गली संकटमोचन,ऋषिकेश।
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मन तो बहकेगा ही
कभी बादलों के बीच से झांकता है चांद।
न जाने किस आस में
तारे उसके आगे-पीछे घूम रहे,
तब रूप बदलने लगा ये चांद।
कुछ रंगीनियां बरसती हैं गगन से]
धरा का मन शोख हो उठा ।
तिरती पल्लवों पर लाज की बूंदे
झुकते हैं और धरा को चूमते हैं।
धरा शर्माई-सी,
आनन्द में
पक्षियों के कलरव से गूंजता है गगन।
अब मन तो बहकेगा ही
अब आप ही बताईये
क्या करें।
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नारी बेचारी नेह की मारी
बस इतना पूछना है
कि क्या अब तुमसे बन्दूक
भी न सम्हल रही
जो मेरे हाथ दे दी!
कहते हो
नारी बेचारी
अबला, ममता, नेह की मारी
कोमल, प्यारी, बेटी बेचारी
घर-द्वार, चूल्हा-चौखट
सब मेरे काम
और प्रकृति का उपहार
ममत्व !
मेरे दायित्व!!
कभी दुर्गा, कभी सीता कहते
कभी रणचण्डी, कभी लक्ष्मीबाई बताते
कभी जौहर करवाते
अब तो हर जगह
बस औरतों के ही काम गिनवाते
कुछ तो तुम भी कर लो
अब क्या तुमसे यह बन्दूक
भी न चल रही
जो मेरे हाथ थमा दी !!
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प्रकृति मुस्काती है
मधुर शब्द
पहली बरसात की
मीठी फुहारों-से होते हैं
मानों हल्के-फुल्के छींटे,
अंजुरियों में
भरती-झरती बूंदें
चेहरे पर रुकती-बहतीं,
पत्तों को रुक-रुक छूतीं
फूलों पर खेलती,
धरा पर भागती-दौड़ती
यहां-वहां मस्ती से झूमती
प्रकृति मुस्काती है
मन आह्लादित होता है।
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अपने-आपको परखना
कभी-कभी अच्छा लगता है,
अपने-आप से बतियाना,
अपने-आपको समझना-समझाना।
डांटना-फ़टकारना।
अपनी निगाहों से
अपने-आपको परखना।
अपने दिये गये उत्तर पर
प्रश्न तलाशना।
अपने आस-पास घूम रहे
प्रश्नों के उत्तर तलाशना।
मुर्झाए पौधों में
कलियों को तलाशना।
बिखरे कांच में
जानबूझकर अंगुली घुमाना।
उफ़नते दूध को
गैस पर गिरते देखना।
और
धार-धार बहते पानी को
एक अंगुली से
रोकने की कोशिश करना।
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कभी तुम भी अग्नि-परीक्षा में खरे उतरो
ममता, नेह, मातृछाया बरसाने वाली नारी में भी चाहत होती है
कोई उसके मस्तक को भी सहला दे तो कितनी राहत होती है
पावनता के सारे मापदण्ड बने हैं बस एक नारी ही के लिए
कभी तुम भी अग्नि-परीक्षा में खरे उतरो यह भी चाहत होती है
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कयामत के दिन चार होते हैं
कहीं से सुन लिया है
कयामत के दिन चार होते हैं,
और ज़िन्दगी भी
चार ही दिन की होती है।
तो क्या कयामत और ज़िन्दगी
एक ही बात है?
नहीं, नहीं,
मैं ऐसे डरने वाली नहीं।
लेकिन
कंधा देने वाले भी तो
चार ही होते हैं
और दो-दूनी भी
चार ही होते हैं।
और हां,
बातें करने वाले भी
चार ही लोग होते हैं,
एक है न कहावत
‘‘चार लोग क्या कहेंगे’’।
वैसे मुझे अक्सर
अपनी ही समझ नहीं आती।।
बात कयामत की करने लगी थी
और दो-दूनी चार के
पहाड़े पढ़ने लगी।
ऐसे थोड़े ही होता है।
चलो, कोई बात नहीं।
फिर कयामत की ही बात करते हैं।
सुना है, कोई
कोरोना आया है,
आयातित,
कहर बनकर ढाया है।
पूरी दुनिया को हिलाया है
भारत पर भी उसकी गहन छाया है।
कहते हैं,
उसके साथ
छुपन-छुपाई खेल लो चार दिन,
भाग जायेगा।
तुम अपने घर में बन्द रहो
मैं अपने घर में।
ढूंढ-ढूंढ थक जायेगा,
और अन्त में थककर मर जायेगा।
तब मिलकर करेंगे ज़िन्दगी
और कयामत की बात,
चार दिन की ही तो बात है,
तो क्या हुआ, बहुत हैं
ये भी बीत जायेंगे।
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समझ लो क्या होते हैं कुकुरमुत्ते
बस कहने की बात है
बस मुहावरा भर है
कि उगते हैं कुकुरमुत्ते-से।
चले गये वे दिन
जब यहां वहां
जहां-तहां
दिखाई देते थे कुकुरमुत्ते।
लेकिन
अब नहीं दिखाई देते
कुकुरमुत्ते
जंगली नहीं रह गये
अब कुकुरमुत्ते
कीमत हो गई है इनकी
बिकते और खरीदे जाते हैं
वातानुकूलित भवनों में उगते हैं
भाव रखते हैं
ताव रखते हैं
किसी की ज़िन्दगी जीने का
हिसाब रखते हैं
घर-घर होते हैं कुकुरमुत्ते।
कहने को हैं
सब्जी-भर
समझ सको तो
समझ लो
अब क्या होते हैं कुकुरमुत्ते।
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प्रतिबन्धित स्मृतियाँ
जब-जब
प्रतिबन्धित स्मृतियों ने
द्वार उन्मुक्त किये हैं
मन हुलस-हुलस जाता है।
कुछ नया, कुछ पुराना
अदल-बदलकर
सामने आ जाता है।
जाने-अनजाने प्रश्न
सर उठाने लगते हैं
शान्त जीवन में
एक उबाल आ जाता है।
जान पाती हूँ
समझ जाती हूँ
सच्चाईयों से
मुँह मोड़कर
ज़िन्दगी नहीं निकलती।
अच्छा-बुरा
खरा-खोटा,
सुन्दर-असुन्दर
सब मेरा ही है
कुछ भोग चुकी
कुछ भोगना है
मुँह चुराने से
पीछा छुड़ाने से
ज़िन्दगी नहीं चलती
कभी-न-कभी
सच सामने आ ही जाता है
इसलिए
प्रतीक्षा करती हूँ
प्रतिबन्धित स्मृतियों का
कब द्वार उन्मुक्त करेंगी
और आ मिलेंगी मुझसे
जीवन को
नये अंदाज़ में
जीने का
सबक देने के लिए।
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डरते हैं क्या
जीवन के सन्दर्भ में
जब भी बात करते हैं
केवल सीढ़ियाॅं
चढ़ने की ही बात करते हैं
कभी उतरने
अथवा
सीढ़ियों से
पैर फ़िसलने की बात नहीं करते।
डरते हैं क्या ?