प्रतिबन्धित स्मृतियाँ

जब-जब

प्रतिबन्धित स्मृतियों ने

द्वार उन्मुक्त किये हैं

मन हुलस-हुलस जाता है।

कुछ नया, कुछ पुराना

अदल-बदलकर

सामने आ जाता है।

जाने-अनजाने प्रश्न

सर उठाने लगते हैं

शान्त जीवन में

एक उबाल आ जाता है।

जान पाती हूँ

समझ जाती हूँ

सच्चाईयों से

मुँह मोड़कर

ज़िन्दगी नहीं निकलती।

अच्छा-बुरा

खरा-खोटा,

सुन्दर-असुन्दर

सब मेरा ही है

कुछ भोग चुकी

कुछ भोगना है

मुँह चुराने से

पीछा छुड़ाने से

ज़िन्दगी नहीं चलती

कभी-न-कभी

सच सामने आ ही जाता है

इसलिए

प्रतीक्षा करती हूँ

प्रतिबन्धित स्मृतियों का

कब द्वार उन्मुक्त करेंगी

और आ मिलेंगी मुझसे

जीवन को

नये अंदाज़ में

जीने का

सबक देने के लिए।