काम की कर लें अदला-बदली

धरने पर बैठे हैं हम, रोटी आज बनाओ तुम।

छुट्टी हमको चाहिए, रसोई आज सम्हालो तुम।

झाड़ू, पोचा, बर्तन, कपड़े, सब करना होगा,

हम अखबार पढ़ेंगें, धूप में मटर छीलना तुम।

प्रेम-प्यार के मधुर गीत

मौसम बदला, फूल खिले, भंवरे गुनगुनाते हैं।

सूरज ने धूप बिखेरी, पंछी मधुर राग सुनाते हैं।

जी चाहता है भूल जायें दुनियादारी के किस्से,

चलो मिलकर प्रेम-प्यार के मधुर गीत गाते हैं।

प्रेम-प्यार की बात न करना

प्रेम-प्यार की बात न करना,

घृणा के बीज हम बो रहे हैं।

.

सम्बन्धों का मान नहीं अब,

दीवारें हम अब चिन रहे हैं।

.

काले-गोरे की बात चल रही,

चेहरों को रंगों से पोत रहे हैं

.

अमीर-गरीब की बात कर रहे,

पैसे से दुनिया को तोल रहे हैं

.

कौन है सच्चा, कौन है झूठा,

बिन जाने हम कोस रहे हैं।

.

पढ़ना-लिखना बात पुरानी

सुनी-सुनाई पर चल रहे हैं।

.

सर्वधर्म समभाव भूल गये,

भेद-भाव हम ढो रहे हैं।

.

अपने-अपने रूप चुन लिए,

किस्से रोज़ नये बुन रहे हैं।

-

राजनीति का ज्ञान नहीं है

चर्चा में हम लगे हुए हैं।  

 

जब लहराता है तिरंगा

एक भाव है ध्वजा,

देश के प्रति साख है ध्वजा।

प्रतीक है,

आन का, बान का, शान का।

.

तीन रंगों से सजा,

नारंगी, श्वेत, हरा

देते हमें जीवन के शुद्ध भाव,

शक्ति, साहस की प्रेरणा,

सत्य-शांति का प्रतीक,

धर्म चक्र से चिन्हित,

प्रकृति, वृद्धि एवं शुभता

की प्रेरणा।

भाव है अपनत्व का।

शीश सदा झुकता है

शीष सदा मान से उठता है,

जब लहराता है तिरंगा।

 

 

जीवन चक्र तो चलता रहता है

जीवन चक्र तो चलता रहता है 

अच्छा लगा

तुम्हारा अभियान।

पहले

वंशी की मधुर धुन पर

नेह दिया,

सबको मोहित किया,

प्रेम का संदेश दिया।

.

उपरान्त

शंखनाद किया,

एक उद्घोष, आह्वान,

सत्य पर चलने का,

अन्याय का विरोध,

अपने अधिकारों के लिए

मर मिटने का,

चक्र थाम।

.

और एक संदेश,

जीवन-चक्र तो चलता रहता है,

तू अपना कर्म किये जा

फल तो मिलेगा ही।

 

 

मेरी असमर्थ अभिव्यक्ति

जब भी

कुछ कहने का

प्रयास करती हूं कविता में,

तभी पाती हूं

कि उसे ही

एक अनजानी सी भाषा में,

अनजाने अव्यक्त शब्दों में,

जिनसे मैं जुड़ नहीं पाती

पूरी कोशिश के बावजूद भी,

किसी और ने

पहले ही कह रखी है वह बात।

.

या फिर

अनुभव मैं यह करती हूं,

कि जो मैं कहना चाहती हूं,

वह किसी और ने

मेरी ही भावनाएं चुराकर,

मानों मुझसे ही पूछकर,

मेरे ही विचार

मेरी ही इच्छानुसार,

लेकिन मुझसे पहले ही

अभिव्यक्त कर दिये हैं,

सही शब्दों में

सही लोगों के सामने

और सही रूप में।

शब्दों की तलाश में

भटकती थी मैं

जिनकी अभिव्यक्ति के लिए।

सारे शब्द

निर्थरक हो जाते थे

जिसे कहने के लिए मेरे सामने

वही बातें

कविता में व्यक्त कर दी हैं

किसी ने मानों

मेरी ही इच्छानुसार।

या फिर

तुम्हारा, उसका, इसका

सबका लिखा

गलत लगता है।

झूठ और छल।

मानों सब मिलकर

मेरे विरूद्ध

एक षड्यन्त्र के भागीदार हों।

मैं,

विरोध में कलम उठाती हूं

लिखना चाहती हूं

तुम्हारे, उसके, इसके लिखे के विरोध में।

बार बार लिखती हूं

पर फिर भी

अनलिखी रह जाती हूं

अनुभव बस एक अधूरेपन का।

आक्रोश, गुस्सा, झुंझलाहट,

विरोध, विद्रोह,

कुछ नहीं ठहरता।

इससे पहले कि लिखना पूरा करूं

चाय बनानी है, रोटी पकानी है

कपड़े धोने हैं

बीच में बच्चा रोने लगेगा

इसी बीच

स्याही चुक जाती है।

रोज़ नया आक्रोश जन्म लेता है

और चाय के साथ उफ़नकर

ठण्डा हो जाता है।

कभी लिख भी लेती हूं

तो बड़ा नाम नहीं है मेरे पास।

सम्पर्क साधन भी नहीं।

किसी गुट में भी नहीं।

फिर, किसी प्राध्यापक की

चरण रज भी नहीं ली मैंने।

किसी के बच्चे को टाफ़ियां भी नहीं खिलाईं

और न ही किसी की पत्नी को

भाभीजी बनाकर उसे तोहफ़े दिये।

मेरे पिता के पास भी

इतनी सामर्थ्य न थी

कि वे उनका कोई काम कर देते।

फिर वे मेरी रचनाओं में रूचि कैसे लेते।

और

इस सबके बाद भी लगता है

मैं ही गलत हूं कहीं

खामोश हो जीती हूं तब

अनकही, यह सोचकर

कि चलो

मेरे विचारों की अभिव्यक्ति हुई तो सही

मेरे द्वारा नहीं

तो किसी और के माध्यम से ही सही

पूर्णतया अस्पष्ट तो रही नहीं

प्रकट तो हुई

स्वयं नहीं कर पाई

तो किसी और की कृपा से

लोगों तक बात पहुंची तो सही

शायद यही कारण है

कि लोगों की लिखी कविताओं का

इतना बड़ा संग्रह मेरे पास है

जो कहीं मेरा अपना है।

पर सचमुच

आश्चर्य तो होता ही है

कि मेरे विचार

मेरी ही इच्छानुसार

मैं नहीं कोई और

कैसे अभिव्यक्त कर लेते हैं

इतने समर्थ होकर

.

जो मैं चाहती हूं

वही तुम भी चाहते हो

ऐसा कैसे।

तो क्या

इस दुनिया में

मेरे अतिरिक्त भी इंसान बसते हैं

या फिर

इस दुनिया में रहकर भी

मेरे भीतर इंसानियत बची है !

 

चिड़िया ने कहानी सुनाई

 

 अरे,

एक–एक कर बोलो।

थक-हार कर आई हूं,

दाना-पानी लाई हूं,

कहां-कहां से आई हूं।

 

तुमको रोज़ कहानी चाहिए।

दुनिया की रवानी चाहिए।

अब तुमको क्या बतलाउं मैं

सुन्दर है यह दुनिया

बस लोग बहुत हैं।

रहने को हैं घर बनाते

जैसे हम अपना नीड़ सजाते।

उनके भी बच्चे हैं

छोटे-छोटे

वे भी यूं ही चिन्ता करते,

जब भी घर से बाहर जाते।

प्रेम, नेह , ममता लुटाते।

वे भी अपना कर्त्तव्य निभाते।

 

रूको, रूको, बतलाती हूं

अन्तर क्या है।

आशाओं, अभिलाषाओं का अन्त नहीं है।

जीने का कोई ढंग नहीं है।

भागम-भाग पड़ी है।

और चाहिए, और चाहिए।

बस यूं ही मार-काट पड़ी है।

घर-संसार भरा-पूरा है,

तो भी लूट-खसोट पड़ी है।

उड़ते हैं, चलते हैं, गिरते हैं,

मरते हैं

पता नहीं क्या क्या करते है।

 

चाहतें हैं कि बढ़ती जातीं।

बच्चों पर भी डाली जातीं।

बचपन मानों बोझ बना

मां-पिता की इच्छाओं का संसार घना।

अब क्या –क्या बतलाउं मैं।

आज बस इतना ही,

दाना लो और पिओ 

जी भरकर विश्राम करो।

बस इतना ही जानो कि

इन तिनकों, पत्तों में,

रूखे-सूखे चुग्गे में,

बूंद-बूंद पानी में,

अपनी इस छोटी सी कहानी में,

जीवन में आनन्द भरा है।

 

उड़ना तुमको सिखलाती हूं।

बस इतना ही बतलाती हूं।

पंख पसारे

उड़ जाना तुम,

अपनी दुनिया में रहना तुम।

अपना कर्त्तव्य निभाना तुम।

अगली पीढ़ी को

अपने पंखों पर उड़ना सिखलाना तुम।

 

वृक्षों की लहराती शाखाएं

पुष्प पल्लवविहीन
एक छत्रछाया सी दिखती हैं।
दुलारती, आंचल फैलाकर।
समझाती हैं
डर
थोड़ा सब्र कर।
पतझड़, सूखा, ग्रीष्म
और यह सूनापन 
तो आने जाने हैं।
बस ठहर ज़रा
मौसम बदलेगा
फूल खिलेंगे
सूरज चमकेगा
सागर लहरायेगा
बस फिर
तुम ज़रा सा मुस्कुरा देना।
 

स्वाधीनता हमारे लिए स्वच्छन्दता बन गई

एक स्वाधीनता हमने

अंग्रेज़ो से पाई थी,

उसका रंग लाल था।

पढ़ते हैं कहानियों में,

सुनते हैं गीतों में,

वीरों की कथाएं, शौर्य की गाथाएं।

किसी समूह,

जाति, धर्म से नहीं जुड़े थे,

बेनाम थे वे सब।

बस एक नाम जानते थे

एक आस पालते थे,

आज़ादी आज़ादी और आज़ादी।

तिरंगे के मान के साथ

स्वाधीनता पाई हमने

गौरवशाली हुआ यह देश।

मुक्ति मिली हमें वर्षों की

पराधीनता से।

हम इतने अधीर थे

मानों किसी अबोध बालक के हाथ

जिन्न लग गया हो।

समझ ही नहीं पाये,

कब स्वाधीनता हमारे लिए

स्वच्छन्दता बन गई।

पहले देश टूटा था,

अब सोच बिखरने लगी।

स्वतन्त्रता, आज़ादी और

स्वाधीनता के अर्थ बदल गये।

मुक्ति और स्वायत्तता की कामना लिए

कुछ शब्दों के चक्रव्यूह में फ़ंसे हम,

नवीन अर्थ मढ़ रहे हैं।

भेड़-चाल चल रहे हैं।

आधी-अधूरी जानकारियों के साथ

रोज़ मर रहे हैं और मार रहे हैं।

-

वे, जो हर युग में आते थे

वेश और भेष बदल कर,

लगता है वे भी

हार मान बैठ हैं।

 

 

कैसे मना रहे हम अपने राष्ट्रीय दिवस

हमें स्वतन्त्र हुए

इतने

या कितने वर्ष हो गये,

इस बार हम

कौन सा

गणतन्त्र दिवस

या स्वाधीनता दिवस

मनाने जा रहे हैं,

गणना करने लगे हैं हम।

उत्सवधर्मी तो हम हैं ही।

सजने-संवरने में लगे हैं हम।

गली-गली नेता खड़े हैं,

अपने-अपने मोर्चे पर अड़े हैं,

इस बार कौन ध्वज फ़हरायेगा

चर्चा चल रही है।

स्वाधीनता सेनानियों को

आज हम इसलिए

स्मरण नहीं कर रहे

कि उन्हें नमन करें,

हम उन्हें जाति, राज्य और

धर्म पर बांध कर नाप रहे।

सड़कों पर चीखें बिखरी हैं,

सुनाई नहीं देती हमें।

सैंकड़ों जाति, धर्म वर्ग बताकर

कहते हैं

हम एक हैं, हम एक हैं।

किसको सम्मान मिला,

किसे नहीं

इस बात पर लड़-मर रहे।

मूर्तियों में

इनके बलिदानों को बांध रहे।

पर उनसे मिली

अमूल्य धरोहर को कौन सम्हाले

बस यही नहीं जान रहे।

 

जब नर या कुंजर कहा गया

महाभारत का युद्ध पलट गया जब नर या कुंजर कहा गया।

गज-गामिनी, मदमस्त चाल कहने वाला कवि आज कहां गया।

नहीं भाते इसे मानव-निर्मित वन-अभयारण्य, जल-स्त्रोत यहां।

मुक्त जीव, जब मूड बना, तब मनमौजी हर की पौड़ी नहा गया।

छोटे-छोटे घर हैं छोटे-छोटे सपने

छोटे-छोटे घर हैं, छोटे-छोटे सपने

घर के भीतर रहते हैं यहां सब अपने

न ताला-चाबी, न द्वार, न चोर यहां

फूलों से सज्जित, ये घर सुन्दर कितने

मौसम के रूप समझ न  आयें

कोहरा है या बादलों का घेरा, हम बनते पागल।

कब रिमझिम, कब खिलती धूप, हम बनते पागल।

मौसम हरदम नये-नये रंग दिखाता, हमें भरमाता,

मौसम के रूप समझ न  आयें, हम बनते पागल।

सच्चाई से भाग रहे

मुख देखें बात करें।

सुख देखें बात करें।

सच्चाई से भाग रहे,

धन देखें बात करें।

किसे अपना समझें किसे पराया

किसे अपना समझें किसे पराया 

मन के द्वार पर पहरे लगाकर बैठे हैं आज।

कोई भाव पढ़ न ले, गांठ बांध कर बैठे हैं आज।

किसे अपना समझें, किसे पराया, समझ नहीं,

अपनों को ही पराया समझ कर बैठे हैं आज।

कहानी टूटे-बिखरे रिश्तों की

कुछ यादें,

कुछ बातें चुभती हैं

शीशे की किरचों-सी।

रिसता है रक्त, धीरे-धीरे।

दाग छोड़ जाता है।

सुना है मैंने

खुरच कर नमक डालने से

खुल जाते हैं ऐसे घाव।

किरचें छिटक जाती हैं।

अलग-से दिखाई देने लगती हैं।

घाव की मरहम-पट्टी को भूलकर,

हम अक्सर उन किरचों को

समेटने की कोशिश करते हैं।

कि अरे !

इस छोटे-से टुकड़े ने

इतने गहरे घाव कर दिये थे,

इतना बहा था रक्त

इतना सहा था दर्द।

और फिर अनजाने में

फिर चुभ जाती हैं वे किरचें।

और यह कहानी

जीवन भर दोहराते रहते हैं हम।

शायद यह कहानी

किरचों की नहीं,

टूटे-बिखरे रिश्तों की है ,

या फिर किरचों की

या फिर टूटे-बिखरे रिश्तों की ।।।।

 

मज़बूरी से बड़ी होती है जिद्द

सुना है मैंने,

रेत पर घरौंदे नहीं बनते।

धंसते हैं पैर,

कदम नहीं उठते।

.

वैसे ऐसा भी नहीं

कि नामुमकिन हो यह।

सीखते-सीखते

सब सीख जाता है इंसान,

‘गर मज़बूरी हो

या जिद्द।

.

मज़बूरी से बड़ी होती है जिद्द,

और जब जिद्द हो,

तो रेत क्या

और पानी क्या,

घरौंदे भी बनते हैं ,

पैर भी चलते हैं,

और ऐसे ही कारवां भी बनते हैं।

 

 

बेनाम वीरों को नमन करूं

किस-किस का नाम लूं

किसी-किस को छोड़ दूं

कहां तक गिनूं,

किसे न नमन करूं

सैंकड़ों नहीं लाखों हैं वे

देश के लिए मर मिटे

इन बेनाम वीरों को

क्‍यों न नमन करूं।

कोई घर बैठे कर्म कर रहा था

तो कोई राहों में अड़ा था

किसी के हाथ में बन्‍दूक थी

तो कोई सबके आगे

प्रेरणा-स्रोत बन खड़ा था।

कोई कलम का सिपाही था

तो कोई राजनीति में पड़ा था।

कुछ को नाम मिला

और कुछ बेनाम ही

मर मिटे थे

सालों-साल कारागृह में पड़े रहे,  

लाखों-लाखों की एक भीड़ थी

एक ध्‍वज के मान में

देश की शान में

मर मिटी थी

इसी बेनाम को नमन करूं

इसी बेनाम को स्‍मरण करूं। 

 

आने वाला कल

अपने आज से परेशान हैं हम।

क्या उपलब्धियां हैं

हमारे पास अपने आज की,

जिन पर

गर्वोन्नत हो सकें हम।

और कहें

बदलेगा आने वाला कल।

.

कैसे बदलेगा

आने वाला कल,

.

डरे-डरे-से जीते हैं।

सच बोलने से कतराते हैं।

अन्याय का

विरोध करने से डरते हैं।

भ्रमजाल में जीते हैं -

आने वाला कल अच्छा होगा !

सही-गलत की

पहचान खो बैठे हैं हम,

बनी-बनाई लीक पर

चलने लगे हैं हम।

राहों को परखते नहीं।

बरसात में घर से निकलते नहीं।

बादलों को दोष देते हैं।

सूरज पर आरोप लगाते हैं,

चांद को घटते-बढ़ते देख

नाराज़ होते हैं।

और इस तरह

वास्तविकता से भागने का रास्ता

ढूंढ लेते हैं।

-

तो

कैसे बदलेगा आने वाला कल ?

क्योंकि

आज ही की तो

प्रतिच्छाया होता है

आने वाला कल।

 

बूंद-बूंद से घट भरता था

जिन ढूंढा तिन पाईया

गहरे पानी पैठ,

बात पुरानी हो गई।

आंख में अब

पानी कहां रहा।

मन की सीप फूट गई।

दिल-सागर-नदिया

उथले-उथले हो गये।

तलछट में क्या ढूंढ रहे।

बूंद-बूंद से घट भरता था।

जब सीपी पर गिरती थी,

तब माणिक-मोती ढलता था।

अब ये कैसा मन है

या तो सब वीराना

सूखा-सूखा-सा रहता है,

और जब मन में

कुछ फंसता है,

तो अतिवृष्टि

सब साथ बहा ले जाती है,

कुछ भी तो नहीं बचता है।

 

 

कभी कुछ नहीं बदलता

एक वर्ष

और गया मेरे जीवन से।

.

अथवा

यह कहना शायद

ज़्यादा अच्छा लगेगा,

कि

एक वर्ष

और मिला जीने के लिए।

.

जीवन एक रेखा है,

जिस पर हम

बढ़ते हैं,

चलते तो आगे हैं,

पर पता नहीं क्यों,

पीछे मुड़कर

देखने लगते हैं।

.

समस्याओं,

उलझनों से जूझते,

बीत रहा था 2020

जैसे रोज़, हर रोज़

प्रतीक्षा करते थे

एक नये वर्ष की,

खटखटाएगा द्वार।

भीतर आकर

सहलायेगा माथा।

न निराश हो,

आ गया हूं अब मैं

सब बदल दूंगा।

.

पर मुझे अक्सर लगता है,

कभी कुछ नहीं बदलता।

कुछ हेर-फ़ेर के साथ

ज़िन्दगी, दोहराती है,

बस हमारी समझ का फ़ेर है।

 

स्वर्गिक सौन्दर्य रूप

रूईं के फ़ाहे गिरते थे  हम हाथों से सहलाते थे।

वो हाड़ कंपाती सर्दी में बर्फ़ की कुल्फ़ी खाते थे।

रंग-बिरंगी दुनिया श्वेत चादर में छिप जाती थी,

स्वर्गिक सौन्दर्य-रूप, मन आनन्दित कर जाते थे।

इसे राजनीति कहते हैं

आजकल हम

एक अंगुली से

एक मशीन पर

टीका करते हैं,

किसी की

कुर्सी खिसक जाती है,

किसी की टिक जाती है।

कभी सरकारें गिर जाती हैं,

कभी खड़ी हो जाती हैं।

हम हतप्रभ से

देखते रह जाते हैं,

हमने तो किसी और को

टीका किया था,

अभिषेक

किसी और का चल रहा है।

 

क्यों न कहे

आंखें देखती हैं,

कान सुनते हैं,

दिल जलता है,

माथा तपता है,

सब चुपचाप चलता है।

.

किन्तु यह जिह्वा

सह नहीं पाती,

सब कह बैठती है।

 

नहीं छूटता अतीत

मैं बागवानी तो नहीं जानती।

किन्तु सुना है

कि कुछ पौधे

सीधे नहीं लगते,

उनकी पौध लगाई जाती है।

नर्सरी से उखाड़कर

समूहों में लाये जाते हैं,

और बिखेरकर,

क्यारियों में

रोप दिये जाते हैं।

अपनी मिट्टी,

अपनी जड़ों से उखड़कर,

कुछ सम्हल जाते हैं,

कुछ मर जाते हैं,

और कुछ अधूरे-से

ज़िन्दगी की

लड़ाई लड़ते नज़र आते हैं।

-

हम,

जहां अपने अतीत से,

विगत से,

भागने का प्रयास करते हैं,

ऐसा ही होता है हमारे साथ।

 

 

छोटी छोटी खुशियों से खुश रहती है ज़िन्दगी

 

बस हम समझ ही नहीं पाते

कितनी ही छोटी छोटी खुशियां

हर समय

हमारे आस पास

मंडराती रहती हैं

हमारा द्वार खटखटाती हैं

हंसाती हैं रूलाती हैं

जीवन में रस बस जाती हैं

पर हम उन्हें बांध नहीं पाते।

आैर इधर

एक आदत सी हो गई है

एक नाराज़गी पसरी रहती है

हमारे चारों ओर

छोटी छोटी बातों पर खिन्न होता है मन

रूठते हैं, बिसूरते हैं, बहकते हैं।

उसकी कमीज़ मेरी कमीज़ से उजली क्यों

उसकी रिंग टोन मेरी रिंग टोन से नई क्यों।

गर्मी में गर्मी क्यों और   शीत ऋतु में ठंडक क्यों

पानी क्यों बरसा

मिट्टी क्यों महकी, रेत क्यों सूखी

बिल्ली क्यों भागी, कौआ क्यों बोला

ये मंहगाई

गोभी क्यों मंहगी, आलू क्यों सस्ता

खुशियों को पहचानते नहीं

नाराज़गी के कारण ढूंढते हैं।

चिड़चिड़ाते हैं, बड़बड़ाते हैं

अन्त में मुंह ढककर सो जाते हैं ।

और अगली सुबह

फिर वही राग अलापते हैं।

दीप तले अंधेरे की बात करते हैं

सूरज तो सबका है,

सबके अंधेरे दूर करता है।

किन्तु उसकी रोशनी से

अपना मन कहां भरमाता है ।

-

अपनी रोशनी के लिए,

अपने गुरूर से

अपना दीप प्रज्वलित करते है।

और अंधेरा मिटाने की बात करते हैं।

-

फिर  भी अक्सर

न जाने क्यों

दीप तले अंधेरे की बात करते हैं।

-

तो हिम्मत करें,

हाथ पर रखें लौ को

तब जग से

तम मिटाने की बात करते हैं।

 

 

लौट-लौटकर जीती हूं जीवन

चेहरे की रेखाओं को

नहीं गिनती मैं,

मन के दर्पण में

भाव परखती हूं।

आयु से

अपनी कामनाओं को

नहीं नापती मैं,

अधूरी छूटी कामनाओं को

पूरा करने के लिए

दर्पण में

राह तलाशती हूं मैं।

अपनी वह छाया

परखती हूं,

जिसके सपने देखे थे।

कितने सच्चे थे

कितने अपने थे,

कितने छूट गये

कितने मिट गये

दोहराती हूं मैं।

चेहरे की रेखाओं को

नहीं गिनती मैं,

अपनी आयु से

नहीं डरती मैं।

लौट-लौटकर

जीती हूं जीवन।

जीवन-रस पीती हूं।

क्योंकि

मैं रेखाएं नहीं गिनती,

मैं मरने से नहीं डरती।

 

 

मंजी दे जा मेरे भाई

भाई मेरे

मंजी दे जा।

बड़े काम की है यह मंजी।

 -

सर्दी के मौसम में,

प्रात होते ही

यह मंजी

धूप में जगह बना लेती है।

सारा दिन

धीरे-धीरे खिसकती रहती है

सूरज के साथ-साथ।

यहीं से

हमारे दिन की शुरूआत होती है,

और यहीं शाम ढलती है।

पूरा परिवार समा जाता है

इस मंजी पर।

कोई पायताने, कोई मुहाने,

कोई बाण पर, कोई तान पर,

कोई नवार पर,

एक-दूसरे की जगह छीनते।

बतंगड़बाजी करते ]

निकलता है पूरा दिन

इसी मंजी पर।

सुबह का नाश्ता

दोपहर की रोटी,

दिन की झपकी,

शाम की चाय,

स्वेटर की बुनाई,

रजाईयों की तरपाई,

कुछ बातचीत, कुछ चुगलाई,

पापड़-बड़ियों की बनाई,

मटर की छिलकाई,

साग की छंटाई,

बच्चों की पढ़ाई,

आस-पड़ोस की सुनवाई।

सब इसी मंजी पर।

-

भाई मेरे, मंजी दे जा।

दे जा मंजी मेरे भाई।

 

गगन

गगन

बादलों के आंचल में

चांद को समेटकर

छुपा-छुपाई खेलता रहा।

और हम

घबराये,

बौखलाये-से

ढूंढ रहे।