कुछ पल बस अपने लिये
उदित होते सूर्य की रश्मियां
मन को आह्लादित करती हैं।
विविध रंग
मन को आह्लादमयी सांत्वना
प्रदान करते हैं।
शांत चित्त, एकान्त चिन्तन
सांसारिक विषमताओं से
मुक्त करता है।
सांसारिकता से जूझते-जूझते
जब मन उचाट होता है,
तब पल भर का ध्यान
मन-मस्तिष्क को
संतुलित करता है।
आधुनिकता की तीव्र गति
प्राय: निढाल कर जाती है।
किन्तु एक दीर्घ उच्छवास
सारी थकान लूट ले जाता है।
जब मन एकाग्र होता है
तब अधिकांश चिन्ताएं
कहीं गह्वर में चली जाती हैं
और स्वस्थ मन-मस्तिष्क
सारे हल ढूंढ लाता है।
इन व्यस्तताओं में
कुछ पल तो निकाल
बस अपने लिये।
धरा और आकाश के बीच उलझे स्वप्न
कुछ स्वप्न आकाश में टंगे हैं, कुछ धरा पर पड़े हैं,
किसे छोड़ें, किसे थामें, हम बीच में अड़े खड़े हैं।
असमंजस में उलझे, कोई तो मिले, हाथ थामे,
यहां नीचे कंकड़-पत्थर, उपर से ओले बरस रहे हैं।
कौन जाने सूरज उदित हुआ या अस्त
उस दिन जैसे ही सूरज डूबा,
अंधेरा होते ही
सामने के सारे पहाड़ समतल हो गये।
वैसे भी हर अंधेरा
समतल हुआ करता है,
और प्रकाश सतरंगा।
अंधेरा सुविधा हुआ करता है,
औेर प्रकाश सच्चाई।
-
तुम चाहो तो अपने लिए
कोई भी रंग चुन लो।
हर रंग एक आकाश हुआ करता है,
एक अवकाश हुआ करता है।
मैं तो
बस इतना जानती हूं
कि सफ़ेद रंग
सात रंगों का मिश्रण।
यह एकता, शांति
और समझौते का प्रतीक,
-आधार सात रंग।
अतः बस इतना ध्यान रखना
कि सफे़द रंग तक पहुंचने के लिए
तुम्हें सभी रंगों से गुज़रना होगा।
-
पता नहीं सबने कैसे मान लिया
कि सूरज उगा करता है।
मैंने तो जब भी देखा
सूरज को डूबते ही देखा।
हर ओर पश्चिम ही पश्चिम है,
और हर कदम
अंधेरे की ओर बढ़ता कदम।
-
मैं अक्सर चाहती हूं
कि कभी दिन रहते सूरज डूब जाये,
और दुनिया के लिए
खतरा उठ खड़ा हो।
-
सच कहना
क्या कभी तुमने सूरज उगता देखा है?
-
अगर तुमने कभी
सूरज को
उपर की ओर
आकाश की ओर बढ़ता देख लिया,
आग, तपिश और रोशनी थी उसमें
बस !
इतने से ही तुमने मान लिया
कि सूरजा उग आया।
-
हर चढ़ता सूरज
मंजिल नहीं हुआ करता।
पता नहीं कब दिन ढल जाये।
और कभी-कभी तो सूरज चढ़ता ही नहीं,
और दिन ढल जाता है।
मैंने तो जब भी देखा
सूरज को ढलते ही देखा।
-
डूबते सूरज की पहचान,
अंधेरे से रोशनी की ओर,
अतल से उपर की ओर।
इसीलिए
मैंने तो जब भी देखा,
सूरज को डूबते ही देखा।
-
हर डूबता दिन,
उगते तारे,
एक नये आने वाले दिन का,
एक नयी जिंदगी का,
संदेश दे जाते हैं।
जाने वाले क्षण
आने वाले क्षणों के पोषक,
बता जाते हैं कि शाम केवल डूबती नहीं,
हर डूबने के पीछे
नया उदय ज़रूरी है।
हर शाम के पीछे
एक सुबह है,
और चांद के पीछे सूरज -
सूरज को तो डूबना ही है,
पर एक उदय का सपना लेकर ।
काश ! इंसान वट वृक्ष सा होता
कहते हैं
जड़ें ज़मीन में जितनी गहरी हों
वृक्ष उतने ही फलते-फूलते हैं।
अपनी मिट्टी की पकड़
उन्हें उर्वरा बनाये रखती है।
किन्तु वट-वृक्ष !
मैं नहीं जानती
कि ज़मीन के नीचे
इसकी कहां तक पैठ है।
किन्तु इतना समझती हूं
कि अपनी जड़ों को
यह धरा पर भी ले आया है।
डाल से डाल निकलती है
उलझती हैं,सुलझती हैं
बिखरती हैं, संवरती हैं,
वृक्ष से वृक्ष बनते हैं।
धरा से गगन,
और गगन से धरा की आेर
बार-बार लौटती हैं इसकी जड़ें
नव-सृजन के लिए।
-
बस
इंसान की हद का ही पता नहीं लगता
कि कितना ज़मीन के उपर है
और कितना ज़मीन के भीतर।
इशारों में ही बात हो गई
मेरे हाथ आज लगे
जिन्न और चिराग।
पूछा मैंने
क्या करोगे तुम मेरे
सारे काम-काज।
बोले, खोपड़ी तेरी
क्या घूम गई है
जो हमसे करते बात।
ज्ञात हो चुकी हमको
तुम्हारी सारी घात।
बहुत कर चुके रगड़ाई हमारी।
बहुत लगाये ढक्कन।
किन्तु अब हम
बुद्धिमान हो गये।
बोतल बड़ी-बड़ी हो गई,
लेन-देन की बात हो गई,
न रगड़ाई और न ढक्कन।
बस देता जा और लेता जा।
लाता जा और पाता जा।
भर दे बोतल, काम करा ले।
काम करा ले बोतल भर दे।
इशारों में ही बात हो गई
समझ आ गई तो ठीक
नहीं आई तो
जाकर अपना माथा पीट।
असमंजस
भीड़ से बचते हैं हम
लेकिन
अकेलापन पूछता है
क्या तुम्हारा कोई नहीं।
क्या कहूं
अपने-आप से
या अकेलेपन से।
भीड़ इतनी
कि अपने-पराये की पहचान
कहीं खो गई है।
या तो सब अपने-से लगते हैं
या कोई नहीं।
और भीड़ का तो
कोई चेहरा भी नहीं,
किसे कहूं अपना
और किसे छोड़ दूं।
यह कैसा असमंजस है।
आज हम जीते हैं अपने हेतु बस अपने हेतु
मंदिरों की नींव में
निहित होती हैं हमारी आस्थाएं।
द्वार पर विद्यमान होती हैं
हमारी प्रार्थनाएं।
प्रांगण में विराजित होती हैं
हमारी कामनाएं।
और गुम्बदों पर लहराती हैं
हमारी सदाएं।
हम पत्थरों को तराशते हैं।
मूर्तियां गढ़ते हैं।
रंग−रूप देते हैं।
सौन्दर्य निरूपित करते हैं।
नेह, अपनत्व, विश्वास और श्रद्धा से
श्रृंगार करते हैं उनका।
और उन्हें ईश्वरीय प्रतिष्ठा प्रदान करते हैं।
करते –करते कर लिए हमने
चौरासी करोड़ देवी –देवता।
-
समय –प्रवाह में मूत्तियां खण्डित होने लगती हैं ।
और खण्डित मू्र्तियों की पूजा का विधान नहीं है।
खण्डित मू्र्तियों को तिरोहित कर दिया जाता है
कहीं जल –प्रवाह में।
और इन खण्डित होती मू्र्तियों के साथ ही
तिरोहित होने लगती हैं
हमारी आस्थाएं, विश्वास, अपनत्व और नेह।
श्रद्धा और विश्वास अंधविश्वास हो गये।
आस्थाएं विस्थापित होने लगीं
प्रार्थनाएं बिखरने लगीं
सदाएं कपट हो गईं
और मन –मन्दिर ध्वस्त हो गये।
उलझने लगे हम, सहमने लगे हम,
डरने लगे हम, बिखरने लगे हम,
अपनी ही कृतियों से, अपनी ही धर्मिता से
बंटने–बांटने लगे हम।
और आज हम जीते हैं अपने हेतु
बस अपने हेतु।
मैं और मेरी बिल्लो रानी
छुप्पा छुप्पी खेल रहे थे
कहां गये सब साथी
हम यहां बैठे रह गये
किसने मारी भांजी
शाम ढली सब घर भागे
तू मत डर बिल्लो रानी
मेरे पीछे आजा
मैं हूं आगे आगे
दूध मलाई रोटी दूंगी
मां मंदिर तो जा ले।
काहे तू इठलाय
हाथों में कमान थाम, नयनों से तू तीर चलाय।
हिरणी-सी आंखें तेरी, बिन्दिया तेरी मन भाय।
प्रत्यंचा खींच, देखती इधर है, निशाना किधर है,
नाटक कंपनी की पोशाक पहन काहे तू इठलाय।
पतझड़
हरे पत्ते अचानक
लाल-पीले होने लगते हैं।
नारंगी, भूरे,
और गाढ़े लाल रंग के।
हवाएं डालियों के साथ
मदमस्त खेलती हैं,
झुलाती हैं।
पत्ते आनन्द-मग्न
लहराते हैं अपने ही अंदाज़ में।
हवाओं के संग
उड़ते-फ़िरते, लहराते,
रंग बदलते,
छूटते सम्बन्ध डालियों से।
शुष्कता उन्हें धरा पर
ले आती है।
यहां भी खेलते हैं
हवाओं संग,
बच्चों की तरह उछलते-कूदते
उड़ते फिरते,
मानों छुपन-छुपाई खेलते।
लोग कहते हैं
पतझड़ आया।
लेकिन मुझे लगता है
यही जीवन है।
और डालियों पर
हरे पत्ते पुनः अंकुरण लेने लगते हैं।
अन्त होता है ज़िन्दगी की चालों का
स्याह-सफ़ेद
प्यादों की चालें
छोटी-छोटी होती हैं।
कदम-दर-कदम बढ़ते,
राजा और वज़ीर को
अपने पीछे छुपाये,
बढ़ते रहते हैं,
कदम-दर-कदम,
मानों सहमे-सहमे।
राजा और वज़ीर
रहते हैं सदा पीछे,
लेकिन सब कहते हैं,
बलशाली, शक्तिशाली
होता है राजा,
और वजीर होता है
सबसे ज़्यादा चालबाज़।
फिर भी ये दोनों,
प्यादों में घिरे
घूमते, बचते रहते हैं।
किन्तु, एक समय आता है
प्यादे चुक जाते हैं,
तब दो-रंगे,
राजा और वज़ीर,
आ खड़े होते हैं
आमने-सामने।
ऐसे ही अन्त होता है
किसी खेल का,
किसी युद्ध का,
या किसी राजनीति का।
किसी को नहीं चिन्ता किसी की
कर्त्ता-धर्ता बन बैठे हैं आज निराले लोग
जीवित लोगों का देखो यहां मनाते सोग
इसकी-उसकी-किसको, कहां पड़ी है आज
श्मशान घाट में उत्सव मनाते देखे हमने लोग
जीवन पथ पर
बिन नाविक मैं बहती जाती
अपनी छाया से कहती जाती
तुम साथ चलो या न हो कोई
जीवन पथ पर बढ़ती जाती
चंगू ने मंगू से पूछा
चंगू ने मंगू से पूछा
ये क्या लेकर आई हो।
मंगू बोली,
इंसानों की दुनिया में रहते हैं।
उनका दाना-पानी खाते हैं।
उनका-सा व्यवहार बना।
हरदम
बुरा-बुरा कहना भी ठीक नहीं है।
अब
दूर-दूर तक वृक्ष नहीं हैं,
कहां बनायें बसेरा।
देखो गर्मी-सर्दी,धूप-पानी से
ये हमें बचायेगा।
पलट कर रख देंगे,
तो बच्चे खेलेंगे
घोंसला यहीं बनायेंगे।
-
चंगू-मंगू दोनों खुश हैं।
कुछ मीठे बोल बोलकर तो देखते
कुछ मीठे बोल
बोलकर तो देखते
हम यूं ही
तुम्हारे लिए
दिल के दरवाज़े खोल देते।
क्या पाया तुमने
यूं हमारा दिल
लहू-लुहान करके।
रिक्त मिला !
कुछ सूखे रक्त कण !
न किसी का नाम
न कोई पहचान !
-
इतना भी न जान पाये हमें
कि हम कोई भी बात
दिल में नहीं रखते थे।
अब, इसमें
हमारा क्या दोष
कि
शब्दों पर तुम्हारी
पकड़ ही न थी।
माफ़ करना आप मुझे
मित्रो,
चाहकर भी आज मैं
कोई मधुर गीत ला न सकी।
माफ़ करना आप मुझे
देशप्रेम, एकता, सौहार्द पर
कोई नई रचना बना न सकी।
-
मेरी कलम ने मुझे दे दिया धोखा,
अकेली पड़ गई मैं,
सुनिए मेरी व्यथा।
-
भाईचारे, देशप्रेम, आज़ादी
और अपनेपन की बात सोचकर,
छुआ कागज़ को मेरी कलम ने,
पर यह कैसा हादसा हो गया
स्याही खून बन गई,
सन गया कागज़,
मैं अवाक् ! देखती रह गई।
-
प्रेम, साम्प्रदायिक सौहार्द
और एकता की बात सोचते ही,
मेरी कलम बन्दूक की गोली बनी
हाथ से फिसली
बन्दूकों, गनों, तोपों और
मिसाईलों के नाम
कागज़ों को रंगने लगे।
आदमी मरने लगा।
मैं विवश ! कुछ न कर सकी।
-
धार्मिक एकता के नाम पर
कागज़ पर उभर आये
मन्दिर, मस्जिद और गुरुद्वारे।
न पूजा थी न अर्चना।
अरदास थी न नमाज़ थी।
दीवारें भरभराती थीं
चेहरे मिट्टी से सने।
और इन सबके बीच उभरी एक चर्च
और सब गड़बड़ा गया।
-
हार मत ! एक कोशिश और कर।
मेरे मन ने कहा।
साहस जुटाए फिर कलम उठाई।
नया कागज़ लाईए नई जगह बैठी।
सोचने लगी
नैतिकता, बंधुत्व, सच्चाई
और ईमानदारी की बातें।
पर क्या जानती थी
कलमए जिसे मैं अपना मानती थी,
मुझे देगी दगा फिर।
मैं काव्य रचना चाहती थी,
वह गणना करने लगी।
हज़ारों नहीं, लाखों नहीं
अरबों-खरबों के सौदे पटाने लगी।
इसी में उसको, अपनी जीत नज़र आने लगी।
-
हारकर मैंने भारत-माता को पुकारा।
-
नमन किया,
और भारत-माता के सम्मान में
लिखने के लिए बस एक गीत
अपने कागज़-कलम को नये सिरे से संवारा।
-
पर, भूल गई थी मैं,
कि भारत तो कब का इंडिया हो गया
और माता का सम्मान तो कब का खो गया।
कलम की नोक तीखे नाखून हो गई।
विवस्त्र करते अंग-अंग,
दैत्य-सी चीखती कलम,
कागज़ पर घिसटने लगी,
मानों कोई नवयौवना सरेआम लुटती,
कागज़ उसके वस्त्र का-सा
तार-तार हो गया।
आज की माता का यही सत्कार हो गया।
-
किस्सा रोज़ का था।
कहां तक रोती या चीखती
किससे शिकायत करती।
धरती बंजर हो गई।
मैं लिख न सकी।
कलम की स्याही चुक गई।
कलम की नोक मुड़ गई ! !
-
मित्रो ! चाहकर भी आज मै
कोई मधुर गीत ल न सकी
माफ़ करना आप मुझे
देशप्रेम, एकता, सौहार्द पर
कोईए नई रचना बना न सकी!!
दोनों अपने-अपने पथ चलें
तुम अपनी राह चलो,
मैं अपनी राह चलूंगी।
.
दोनों अपने-अपने पथ चलें
दोनों अपने-अपने कर्म करें।
होनी-अनहोनी जीवन है,
कल क्या होगा, कौन कहे।
चिन्ता मैं करती हूं,
चिन्ता तुम करते हो।
पीछे मुड़कर न देखो,
अपनी राह बढ़ो।
मैं भी चलती हूं
अपने जीवन-पथ पर,
एक नवजीवन की आस में।
तुम भी जाओ
कर्तव्य निभाने अपने कर्म-पथ पर।
डर कर क्या जीना,
मर कर क्या जीना।
आशाओं में जीते हैं।
आशाओं में रहते हैं।
कल आयेगा ऐसा
साथ चलेगें]
हाथों में हाथ थाम साथ बढ़ेगें।
मेरा भारत महान
ऐसे चित्र देखकर
मन द्रवित, भावुक होता है,
या क्रोधित,
अपनी ही समझ नहीं आता।
.
कुछ कर नहीं सकते,
या करना नहीं चाहते,
किंतु बनावट की कहानियां,
इस तरह की बानियां,
गले नहीं उतरतीं।
मेरा भारत महान है।
महान ही रहेगा।
पर रोटी, कपड़ा, मकान
की बात कौन करेगा?
सोचती हूं
बच्चे के हाथ में
किसने दी
स्लेट और चाॅक,
और कौन सिखा रहा
इसे लिखना
मेरा भारत महान?
स्लेट की जगह दो रोटी दे देते,
और देते पिता को कोई काम।
बच्चे के तन पर कपड़े होते,
तब शायद मुझे लगता,
मेरा भारत और भी ज़्यादा महान।
मन में बसन्त खिलता है
जीवन में कुछ खुशियां
बसन्त-सी लगती हैं।
और कुछ बरसात के बाद
मिट्टी से उठती
भीनी-भीनी खुशबू-सी।
बसन्त के आगमन की
सूचना देतीं,
आती-जाती सर्द हवाएं,
झरते पत्तों संग खेलती हैं,
और नव-पल्ल्वों को
सहलाकर दुलारती हैं।
पत्तों पर झूमते हैं
तुषार-कण,
धरती भीगी-भीगी-सी
महकने लगती है।
फूलों का खिलना
मुरझाना और झड़ जाना,
और पुनः कलियों का लौट आना,
तितलियों, भंवरों का गुनगुनाना,
मन में यूं ही
बसन्त खिलता है।
सागर की गहराईयों सा मन
सागर की गहराईयों सा मन।
सागर के सीने में
अनगिन मणि-रत्नम्
कौन ढूंढ पाया है आज तलक।
.
मन में रहते भाव-संगम
उलझे-उलझे, बिखरे-बिखरे,
कौन समझ पाया है
आज तलक।
.
लहरें आती हैं जाती हैं,
हिचकोले लेती नाव।
जग-जगत् में
मन भागम-भाग किया करता है,
कहां मिलता आराम।
.
खुले नयनों पर वश है अपना,
देखें या न देखें।
पर बन्द नयन
न जाने क्या-क्या दिखला जाते हैं,
अनजाने-अनचाहे भाव सुना जाते हैं,
जिनसे बचना चाहें,
वे सब रूप दिखा जाते हैं।
अगला-पिछला, अच्छा-बुरा
सब हाल बता जाते हैं,
अनचाहे मोड़ों पर खड़ा कर
कभी हंसी देकर,
तो कभी रूलाकर चले जाते हैं।
बुरा लगा शायद आपको
यह कहना
आजकल एक फ़ैशन-सा हो गया है,
कि इंसान विश्वास के लायक नहीं रहा।
.
लेकिन इतना बुरा भी नहीं है इंसान,
वास्तव में,
हम परखने-समझने का
प्रयास ही नहीं करते।
तो कैसे जानेंगे
कि सामने वाला
इंसान है या कुत्ता।
.
बुरा लगा शायद आपको
कि मैं इंसान की
तुलना कुत्ते से कर बैठी।
लेकिन जब सब कहते हैं,
कुत्ता बड़ा वफ़ादार होता है,
इंसान से ज्यादा भरोसेमंद होता है,
तब आपको क्यों बुरा नहीं लगता।
.
आदमी की
अक्सर यह विशेषता है
कह देता है मुंह खोल कर
अच्छा लगे या बुरा।
.
कुत्ता कितना भी पालतू हो,
काटने का डर तो रहता ही है
उससे भी।
और कुत्ता जब-तब
भौंकता रहता है,
हम बुरा नहीं मानते ज़रा भी,
-
इंसान की बोली
अक्सर बहुत कड़वी लगती है,
जब वह
हमारे मन की नहीं बोलता।
मन उदास क्यों है
कभी-कभी
हम जान ही नहीं पाते
कि मन उदास क्यों है।
और जब
उदास होती हूं,
तो चुप हो जाती हूं अक्सर।
अपने-आप से
भीतर ही भीतर
तर्क-वितर्क करने लगती हूं।
तुम इसे, मेरी
बेबात की नाराज़गी
समझ बैठते हो।
न जाने कब के रूके आंसू
आंखों की कोरों पर आ बैठते हैं।
मन चाहता है
किसी का हाथ
सहला जाये इस अनजाने दर्द को।
लेकिन तुम इसे
मेरा नाराज़गी जताने का
एहसास कराने का
नारीनुमा तरीका मान लेते हो।
.
पढ़ लेती हूं
तुम्हारी आंखों में
तुम्हारा नज़रिया,
तुम्हारे चेहरे पर खिंचती रेखाएं,
और तुम्हारी नाराज़गी।
और मैं तुम्हें मनाने लगती हूं।
अटल बिहारी वाजपेयी के प्रति
हिन्दी को वे नाम दे गये, हिन्दी को पहचान दे गये ।
अटल वाणी से वे जग में अपनी अलग पहचान दे गये।
शत्रु से हाथ मिलाकर भी ताकत अपनी दिखलाई थी ,
विश्व-पटल पर अपनी वाणी से भारत को पहचान दे गये।
कहलाने को ये सन्त हैं
साठ करोड़ का आसन, सात करोड़ के जूते,
भोली जनता मूरख बनती, बांधे इनके फीते,
कहलाने को ये सन्त हैं, करते हैं व्यापार,
हमें सिखायें सादगी आप जीवन का रस पीते।
झूठी-सच्ची ख़बरें बुनते
नाम नहीं, पहचान नहीं, करने दो मुझको काम।
क्यों मेरी फ़ोटो खींच रहे, मिलते हैं कितने दाम।
कहीं की बात कहीं करें और झूठी-सच्ची ख़बरें बुनते
समझो तुम, मिल-जुलकर चलता है घर का काम।
सफ़लता की कुंजी
कुछ घोटाले कर गये होते, हम भी अमर हो गये होते ।
संसद में बैठे, गाड़ी-बंगला-पैंशन ले, विदेश बस गये होते।
फिसड्डी बनकर रह गये, इस ईमानदारी से जीते जीते,
बुद्धिमानी की होती, जीते-जी मूर्ति पर हार चढ़ गये होते।
मन की बातें न बताएं
पन्नों पर लिखी हैं मन की वे सारी गाथाएं
जो दुनिया तो जाने थी पर मन था छुपाए
पर इन फूलों के अन्तस में हैं वे सारी बातें
न कभी हम उन्हें बताएं न वो हमें जताएं
सम्बन्धों की डोर
विशाल वृक्षों की जड़ों से जब मिट्टी दरकने लगती है।
जिन्दगी की सांसें भी तब कुछ यूं ही रिसने लगती हैं।
विशाल वृक्षों की छाया तले ही पनपने हैं छोटे पेड़ पौधे,
बड़ों की छत्रछाया के बिना सम्बन्धों की डोर टूटने लगती है।
हम सजग प्रहरी
द्वार के दोनों ओर खड़े हैं हम सजग प्रहरी
परस्पर हमारी न शत्रुता, न कोई भागीदारी
मध्य में एक रेखा खींचकर हमें किया विलग
इसी विभाजन के समक्ष हमारी मित्रता हारी
काम की कर लें अदला-बदली
धरने पर बैठे हैं हम, रोटी आज बनाओ तुम।
छुट्टी हमको चाहिए, रसोई आज सम्हालो तुम।
झाड़ू, पोचा, बर्तन, कपड़े, सब करना होगा,
हम अखबार पढ़ेंगें, धूप में मटर छीलना तुम।