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तेरी माया तू ही जाने
कभी तो चांद पलट न।
कभी तो सूरज अटक न।
रात-दिन का आभास देते,
तम-प्रकाश का भाव देते,
कभी तो दूर सटक न।
चांद को अक्सर
दिन में देखती हूं,
कभी तो सूरज
रात में निकल न।
तुम्हारा तो आवागमन है
प्रकृति का चलन है
हमने न जाने कितने
भाव बांध लिये हैं
रात-दिन का मतलब
सुख-दुख, अच्छा-बुरा
और न जाने क्या-क्या।
कभी तो इन सबसे
हो अलग न।
तेरी माया तू ही जाने
कभी तो रात-दिन से
भटक न।
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जीवन के रंग
द्वार पर आहट हुई,
कुछ रंग खड़े थे
कुछ रंग उदास-से पड़े थे।
मैंने पूछा
कहां रहे पूरे साल ?
बोले,
हम तो यहीं थे
तुम्हारे आस-पास।
बस तुम ही
तारीखें गिनते हो,
दिन परखते हो,
तब खुशियां मनाते हो
मानों प्रायोजित-सी
हर दिन होली-सा देखो
हर रात दीपावली जगमगाओ
जीवन में रंगों की आहट पकड़ो।
हां, जीवन के रंग बहुत हैं
कभी ग़म, कभी खुशी
के संग बहुत हैं,
पर ये आना-जाना तो लगा रहेगा
बस जीवन में
रंगों की हर आहट पकड़ो।
हर दिन होली-सा रंगीन मिलेगा
हर दिन जीवन का रंग खिलेगा।
बस
मन से रंगों की हर आहट पकड़ो।
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पहचान नहीं
धन-दौलत थी तो खुले द्वार थे हमारे लिए
जब लुट गई थी द्वार बन्द हुए हमारे लिए
नाम भूल गये, रिश्ते छूट गये, पहचान नहीं
जब दौलत लौटी, हार लिए खड़े हमारे लिए
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कैसा बिखराव है यह
मन घुटता है ,बेवजह।
कुछ भीतर रिसता है,बेवजह।
उधेड़ नहीं पाती
पुरानी तरपाई।
स्वयं ही टूटकर
बिखरती है ।
समेटती लगती हूं
पुराने धागों को,
जो किसी काम के नहीं।
कितनी भी सलवटें निकाल लूं
किन्तु ,तहों के निशान
अक्सर जाते नहीं।
क्यों होता है मेरे साथ ऐसा,
कहना कुछ और चाहती हूं
कह कुछ और जाती हूं।
बात आज की है,
और कल की बात कहकर
कहानी को पलट जाती हूं,
कि कहीं कोई
समझ न ले मेरे मन को,
मेरे आज को
या मेरे बीते कल को ।
शायद इसीलिए
उलट-पलट जाती हूं।
कहना कुछ और चाहती हूं,
कह कुछ और जाती हूं।
यह सिलसिला
‘गर ज़िन्दगी भर चलेगा,
तो कहां तक, और कब तक ।
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स्मृतियां सदैव मधुर नहीं होतीं
आओगे जब तुम साजना
द्वार पर खड़ी नहीं मिलूंगी मैं
घर-बाहर संवारती नहीं दिखूंगी मैं।
भाव मिट जाते हैं
इच्छाएं मर जाती हैं
सब अधूरा-सा लगता है
जब तुम वादे नहीं निभाते,
कहकर भी नहीं आते।
मन उखड़ा-उखड़ा-सा रहता है।
प्रतीक्षा के पल
सदैव मोहक नहीं होते,
स्मृतियां सदैव मधुर नहीं होतीं।
समय के साथ
स्मृतियां धुल जाती हैं
नेह-भाव पर
धूल जम जाती है।
ज़िन्दगी ठहर-सी जाती है।
इस ठहरी हुई ज़िन्दगी में ही
अपने लिए फूल चुनती हूं।
नहीं कोई आस रखती किसी से,
अपने लिए जीती हूं
अपने लिए हंसती हूं।
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नयनों में घिर आये बादल
धूप खिली, मौसम खुशनुमा, घूम रहे बादल
हवाएं चलीं-चलीं, गगन पर छितराए बादल
कुछ बूंदें बरसी, मन महका-बहका-पगला
तुम रूठे, नयनों में गहरे घिर आये बादल
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कहत हैं रेत से घर नहीं बनते
मन से
अपनी राहों पर चलती हूं
दूर तक छूटे
अपने ही पद-चिन्हों को
परखती हूं
कहत हैं रेत से घर नहीं बनते
नहीं छूटते रेत पर निशान,
सागर पलटता है
और सब समेट ले जाता है
हवाएं उड़ती हैं और
सब समतल दिखता है,
किन्तु भीतर कितने उजड़े घर
कितने गहरे निशान छूटे हैं
कौन जानता है,
कहीं गहराई में
भीतर ही भीतर पलते
छूटे चिन्ह
कुछ पल के लिए
मन में गहरे तक रहते हैं
कौन चला, कहां चला, कहां से आया
कौन जाने
यूं ही, एक भटकन है
निरखती हूं, परखती हूं
लौट-लौट देखती हूं
पर बस अपने ही
निशान नहीं मिलते।
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प्रेम प्रतीक बनाये मानव
चहक-चहक कर
फुदक-फुदक कर
चल आज नया खेल हम खेंलें।
प्रेम प्रतीक बनाये मानव,
चल हम इस पर इठला कर देखें।
तू क्या देखे टुकुर-टुकुर,
तू क्या देखे इधर-उधर,
कुछ बदला है, कुछ बदलेगा।
कर लो तुम सब स्वीकार अगर,
मौसम बदलेगा,
नव-पल्लव तो आयेंगे।
अभी चलें कहीं और
लौटकर अगले मौसम में,
घर हम यहीं बनायेंगे।
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धरा पर पांव टिकते नहीं
और चाहिये और चाहिए की भूख में छूट रहे हैं अवसर
धरा पर पांव टिकते नहीं, आकाश को छू पाते नहीं अक्सर
यह भी चाहिये, वह भी चाहिए, लगी है यहां बस भाग-दौड़
क्या छोड़ें, क्या लें लें, इसी उधेड़-बुन में रह जाते हैं अक्सर
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फूल तो फूल हैं
फूल तो फूल हैं
कहीं भी खिलते हैं।
कभी नयनों में द्युतिमान होते हैं
कभी गालों पर महकते हैं
कभी उपवन को सुरभित करते हैं,
तो कभी मन को
आनन्दित करते हैं,
मन के मधुर भावों को
साकार कर देते हैं
शब्द को भाव देते हैं
और भाव को अर्थ।
प्रेम-भाव का समर्पण हैं,
कभी किसी की याद में
गुलदानों में लगे-लगे
मुरझा जाते हैं।
यही फूल स्वागत भी करते हैं
और अन्तिम यात्रा भी।
और कभी किसी की
स्मृतियों में जीते हैं
ठहरते हैं उन पर आंसू
ओस की बूंदों से।