न सावन हरे न भादों सूखे
रोज़ी-रोटी के लिए
कुछ लकड़ियां छीलता हूं
मेरा घर चलता है
बुढ़ापे की लाठी टेकता हूं
बच्चों खेलते हैं छड़ी-छड़ी
कुछ अंगीठी जलाता हूं
बची राख से बर्तन मांजता हूं।
मैं पेड़ नहीं पहचानता
मैं पर्यावरण नहीं जानता
वृक्ष बचाओ, धरा बचाओ
मैं नहीं जानता
बस कुछ सूखी टहनियां
मेरे जीवन का सहारा बनती हैं
जिन्हें तुम अक्सर छीन ले जाते हो
अपने कमरों की सजावट के लिए।
क्यों पड़ता है सूखा
और क्यों होती है अतिवृष्टि
मैं नहीं जानता
क्योंकि
मेरे लिए न सावन हरे
न भादों सूखे
हां, कभी -कभी देखता हूं
हमारे खेतों को सपाट कर
बन गई हैं बहुमंजिला इमारतें
विकास के नाम पर
तुम्हारा धुंआ झेलते हैं हम
और मेरे जीवन का आसरा
ये सूखी टहनियां
छोड़ दो मेरे लिए।