ऋण नहीं मांगता दान नहीं मांगता ​​​​​​​

समय बदला, युग बदले,

ज़मीन से आकाश तक,

चांद तारों को परख आया मानव।

और मैं !! आज भी

उसी खेत में

बंजर ज़मीन पर

अपने उन्हीं बूढ़े दो बैलों के साथ

हल जोतता ताकता हूं आकाश

कब बरसेगा मेह मेरे लिए।

तब धान उगेगा

भरपेट भोजन मिलेगा।

ऋण नहीं मांगता। दान नहीं मांगता।

बस चाहता हूं

अपने परिश्रम की दो रोटी।

नहीं मरना चाहता मैं बेमौत।

अगर यूं ही मरा

तब मेरे नाम पर राजनीति होगी।

सुर्खियों में आयेगा मेरा नाम।

फ़ोटो छपेगी।

मेरी गरीबी और मेरी यह मौत

अनेक लोगों की रोज़ी-रोटी बनेगी।

धन बंटेगा, चर्चाएं होंगी

मेरी उस लाश पर

और भी बहुत कुछ होगा।

 

और इन सबसे दूर

मेरे घर के लोग

इन्हीं दो बैलों के साथ

उसी बंजर ज़मीन पर

मेरी ही तरह

नज़र गढ़ाए बैठे होंगे आकाश पर

कब बरसेगा मेह

और हमें मिलेगी

अपने परिश्रम की दो रोटी

हां ! ये मैं ही हूं