छोटी छोटी खुशियों से खुश रहती है ज़िन्दगी

 

बस हम समझ ही नहीं पाते

कितनी ही छोटी छोटी खुशियां

हर समय

हमारे आस पास

मंडराती रहती हैं

हमारा द्वार खटखटाती हैं

हंसाती हैं रूलाती हैं

जीवन में रस बस जाती हैं

पर हम उन्हें बांध नहीं पाते।

आैर इधर

एक आदत सी हो गई है

एक नाराज़गी पसरी रहती है

हमारे चारों ओर

छोटी छोटी बातों पर खिन्न होता है मन

रूठते हैं, बिसूरते हैं, बहकते हैं।

उसकी कमीज़ मेरी कमीज़ से उजली क्यों

उसकी रिंग टोन मेरी रिंग टोन से नई क्यों।

गर्मी में गर्मी क्यों और   शीत ऋतु में ठंडक क्यों

पानी क्यों बरसा

मिट्टी क्यों महकी, रेत क्यों सूखी

बिल्ली क्यों भागी, कौआ क्यों बोला

ये मंहगाई

गोभी क्यों मंहगी, आलू क्यों सस्ता

खुशियों को पहचानते नहीं

नाराज़गी के कारण ढूंढते हैं।

चिड़चिड़ाते हैं, बड़बड़ाते हैं

अन्त में मुंह ढककर सो जाते हैं ।

और अगली सुबह

फिर वही राग अलापते हैं।