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मेरी समझ कुछ नहीं आता
मां,
मास्टर जी कहते हैं
धरती गोल घूमती।
चंदा-तारे सब घूमते
सूरज कैसे आता-जाता
बहुत कुछ बतलाते।
मेरी समझ नहीं कुछ आता
फिर हम क्यों नहीं गिरते।
पेड़-पौधे खड़े-खड़े
हम पर क्यों नहीं गिरते।
चंदा लटका आसमान में
कभी दिखता
कभी खो जाता।
कैसे कहां चला जाता है
पता नहीं क्या-क्या समझाते।
इतने सारे तारे
घूम-घूमकर
मेरे बस्ते में क्यों नहीं आ जाते।
कभी सूरज दिखता
कभी चंदा
कभी दोनों कहीं खो जाते।
मेरी समझ कुछ नहीं आता
मास्टर जी
न जाने क्या-क्या बतलाते।
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न्याय अंधा होता है या बहरा
जान नहीं पाई आज तक
न्याय अंधा होता है
या बहरा।
लेकिन इतना जानती हूॅं
कि परिधान बदलने से
स्वभाव नहीं बदल जाता,
आंखों से पट्टी हटने से
न्याय का मार्ग सुगम नहीं होता।
हम सीधे-सादे लोग
बड़ी जल्दी
कुछ गलतफ़हमियों में
फ़ंस जाते हैं।
मूर्ति की आंखों से
पट्टी क्या हटी
सोचने लगे
अब तो न्याय की गंगा बहेगी।
हर दिन पवित्र स्नान होगा
और हम न्याय के जल से
आचमन करेेंगे।
अब पट्टी न्याय की थी
अथवा अन्याय की
यही समझ न सकी।
न्याय कैसा होता है
किसके लिए होता है
और किस रास्ते से होता है
वही समझ सकता है
जिसने न्याय की आस में
कभी जीवन के सालों-साल
बरबाद किये हों।
न्याय की देवी के
नये स्वरूप के लिए
करोड़ों-करोड़ों रुपये लगे होंगें,
किन्तु हर आम आदमी
आज भी
अपना अधिकार पाने के लिए
न्यायालय के दरबार में
अपनी जमा-पूंजी लुटाता
वैसे ही भटक रहा है
जैसे मूर्ति के नये स्वरूप से पहले
भटका करता था।
वह नहीं देख-समझ पाता
कि मूर्ति का रूप बदलने मात्र से
न्याय का रूप कैसे बदल सकता है।
ंकैसे लाखों निरपराध
एक दिन की सुनवाई के लिए
सालों-साल कारागार में काट देते हैं
और कैसे घोषित अपराधी
समाज में जीवन साधिकार बिता लेते हैं।
काश! मूर्ति के नये स्वरूप के साथ
न्याय की प्रक्रिया भी कुछ बदलती,
तारीखें न मिलकर
न्याय की आस मिलती,
उसे मूर्तियॉं नहीं दिखती
दिखती है तो मिटती आस,
विलम्बित न्याय
जो अक्सर
अन्याय से भी बुरा होता है।
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कुछ पल बस अपने लिये
उदित होते सूर्य की रश्मियां
मन को आह्लादित करती हैं।
विविध रंग
मन को आह्लादमयी सांत्वना
प्रदान करते हैं।
शांत चित्त, एकान्त चिन्तन
सांसारिक विषमताओं से
मुक्त करता है।
सांसारिकता से जूझते-जूझते
जब मन उचाट होता है,
तब पल भर का ध्यान
मन-मस्तिष्क को
संतुलित करता है।
आधुनिकता की तीव्र गति
प्राय: निढाल कर जाती है।
किन्तु एक दीर्घ उच्छवास
सारी थकान लूट ले जाता है।
जब मन एकाग्र होता है
तब अधिकांश चिन्ताएं
कहीं गह्वर में चली जाती हैं
और स्वस्थ मन-मस्तिष्क
सारे हल ढूंढ लाता है।
इन व्यस्तताओं में
कुछ पल तो निकाल
बस अपने लिये।
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ज़िन्दगी एक क्षणिका भी न बन पाई
किसी ने कहा
ज़िन्दगी पर
एक उपन्यास लिखो।
सालों-साल का
हिसाब-बेहिसाब लिखो।
स्मृतियों को
उलटने-पलटने लगी।
समेटने लगी
सालों, महीनों, दिनों
और घंटों का,
पल-पल का गणित।
बांधने लगी पृष्ठ दर पृष्ठ।
न जाने कितने झंझावात,
कितने विप्लव,
कितने भूचाल बिखर गये।
कहीं आंसू, कहीं हर्ष,
कहीं आहों के,
सुख-दुख के सागर उफ़न गये।
न जाने
कितने दिन-महीने, साल लग गये
कथाओं का समेटने में।
और जब
अन्तिम रूप देने का समय आया
तो देखा
एक क्षणिका भी न बन पाई।
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ठहरा-सा लगता है जीवन
नदिया की धाराओं में टकराव नहीं है
हवाओं के रुख वह में झनकार नहीं है
ठहरा-ठहरा-सा लगता है अब जीवन
जब मन में ही अब कोई भाव नहीं हैं
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क्यों न कहे
आंखें देखती हैं,
कान सुनते हैं,
दिल जलता है,
माथा तपता है,
सब चुपचाप चलता है।
.
किन्तु यह जिह्वा
सह नहीं पाती,
सब कह बैठती है।
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आंखों में तिरते हैं सपने
आंखों में तिरते हैं सपने,
कुछ गहरे हैं कुछ अपने।
पलकों के साये में
लिखते रहे
प्यार की कहानियां,
कागज़ पर न उकेरी कभी
तेरी मेरी रूमानियां।
कुछ मोती हैं,
नयनों के भीतर
कोई देख न ले,
पलकें मूंद सकते नहीं
कोई भेद न ले।
यूं तो कजराने नयना
काजर से सजते हैं
पर जब तुम्हारी बात उठती है
तब नयनों में तारे सजते हैं।
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मृग-मरीचिका-सा जीवन
मृग-मरीचिका-सा जीवन
कभी धूप छलकती
कभी नदी बिखरती
कभी रेत संवरती।
कदम-दर-कदम
बढ़ते रहे।
जो मिला
ले लिया,
जो न मिला
उसी की आस में
चलते रहे, चलते रहे, चलते रहे
कभी बिखरते रहे
कभी कण-कण संवरते रहे।