कभी कभी, समझ नहीं पाती हूं
कि मैं
आतंकित होकर चिल्लती हूं
या आतंक पैदा करने के लिए।
तुमसे डरकर चिल्लती हूं
या तुम्हें डराने के लिए।
लेकिन इतना जानती हूं
कि मेरे भीतर एक डर है
एक औरत होने का डर।
और यह डर
तुम सबने पैदा किया है
तुम्हारा प्यार, तुम्हारी मनुहार
पराया सा अपनापन
और तुम्हारी फ़टकार
फिर मौके बे मौके
उपेक्षा दर्शाता तुम्हारा तिरस्कार
निरन्तर मुझे डराते रहते हैं।
और तुम , अपने अलग अलग रूपों में
विवश करते रहते हो मुझे
चिल्लाते रहने के लिए।
फिर एक समय आता है
कि थककर मेरी चिल्लाहट
रूदन में बदल जाती है।
और तुम मुझे
पुचकारने लगते हो।
*******
खेल, फिर शुरू हो जाता है।
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जिजीविषा के लिए
रंगों की रंगीनियों में बसी है जि़न्दगी।
डगर कठिन है,
पर जिजीविषा के लिए
प्रतिदिन, यूं ही
सफ़र पर निकलती है जिन्दगी।
आज के निकले कब लौटेंगे,
यूं ही एकाकीपन का एहसास
देती रहती है जिन्दगी।
मृगमरीचिका है जल,
सूने घट पूछते हैं
कब बदलेगी जिन्दगी।
सुना है शहरों में, बड़े-बडे़ भवनों में
ताल-तलैया हैं,
घर-घर है जल की नदियां।
देखा नहीं कभी, कैसे मान ले मन ,
दादी-नानी की परी-कथाओं-सी
लगती हैं ये बातें।
यहां तो,
रेत के दानों-सी बिखरी-बिखरी
रहती है जिन्दगी।
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समझ समझ की बात
कहावत है
बड़ों का कहा
और आंवले का खाया
बाद में मीठा लगता है।
जब किसी ने समझाया था
तब तो
समझ में न आया था।
आज जीवन के इस मोड़ पर
समझ आने से क्या होगा
जो खोना था
खो दिया
और जो मिल सकता था
उससे हाथ धो बैठे।
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कोई तो आयेगा
भावनाओं का वेग
किसी त्वरित नदी की तरह
अविरल गति से
सीमाओं को तोड़ता
तीर से टकराता
कंकड़-पत्थर से जूझता
इक आस में
कोई तो आयेगा
थाम लेगा गति
सहज-सहज।
.
जीवन बीता जाता है
इसी प्रतीक्षा में
और कितनी प्रतीक्षा
और कितना धैर्य !!!!
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डर-डरकर ज़िन्दगी नहीं चलती
डर-डरकर ज़िन्दगी नहीं चलती यह जान ले सखी
उठ हाथ थाम, आगे बढ़, न साथ छोड़ेंगे रे सखी
घन छा रहे, रात घिर आई, नदी-नीर न बैठ अब
नया सोच, चल ज़िन्दगी की राहों को बदलें रे सखी
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जीवन में पतंग-सा भाव ला
जीवन में पतंग-सा भाव ला।
आकाश छूने की कोशिश कर।
पांव धरा पर रख।
सूरज को बांध
पतंग की डोरी में।
उंची उड़ान भर।
रंगों-रंगीनियों से खेल।
मन छोटा न कर।
कटने-टूटने से न डर।
एक दिन
टूटना तो सभी को है।
बस हिम्मत रख।
आकाश छू ले एक बार।
फिर टूटने का,
लौटकर धरा पर
उतरने का दुख नहीं सालता।
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हम ताली बजायेंगे z
चिड़िया रानी, चिड़िया रानी
खाती दाना, पीती पानी
जब देखो उड़ती-फिरती
तूने नहीं क्या क्लास लगानी
जब देखो चूं-चूं करती
इधर-उधर है उड़ती-फिरती
अ आ इ ई पढ़ ले, पढ़ ले
नहीं तो टीचर से पड़ेंगे डंडे
गिन-गिनकर लाना तिनके
गणित में लगेंगे पहाड़े किनके
इतना शोर मचाती हो तुम
कैसे तुम्हें समझाएं हम
क्लास से बाहर खड़ा कर देंगे
रोटी-पानी बन्द कर देंगे
मुर्गा बनाकर कुकड़ूं करवायेंगे
तुम्हें देख हम ताली बजायेंगे।
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लौटा दो मेरे बीते दिन
अब पानी में लहरें
हिलोरें नहीं लेतीं,
एक अजीब-सा
ठहराव दिखता है,
चंचलता मानों प्रश्न करती है,
किश्तियां ठहरी-ठहरी-सी
उदास
किसी प्रिय की आस में।
पर्वत सूने,
ताकते आकाश ,
न सफ़ेदी चमकती है
न हरियाली दमकती हैं।
फूल मुस्कुराते नहीं
भंवरे गुनगुनाते नहीं,
तितलियां
पराग चुनने से डरने लगी हैं।
केसर महकता नहीं,
चिड़िया चहकती नहीं,
इन सबकी यादें
कहीं पीछे छूटने लगी हैं।
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नहीं निखरता,
सौन्दर्य की तलाश में
आस बिखरने लगी है।
बस दूरियां ही दूरियां,
मन निराश करती हैं।
लौटा दो
मेरे बीते दिन।
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ये गर्मी और ये उमस
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मेरी छोड़ो मैं तो डूबी, तुम उतरो ज़रा जग के प्रांगण में
इस जग की आपा-धापी में मेरे संग जीकर दिखला दो तो
गैया,मैया,दूध,दहीं,चरवाहे,माखन,भूलोगे सब पल भर में
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झूठ न बोल
इतना बड़ा झूठ न बोल
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टीस देते हैं
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आंसू हम छिपाते हैं
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उंगलियां घुमाते-घुमाते
कितने ही उपन्यास
भीतर लिखे जाते हैं।
अपने-आपको ही नकारते हैं
न जाने कैसे
ज़िन्दगी
जीते-जीते हार जाते हैं।