मेरे जीवन में ऐसी बहुत-सी घटनाएं घटी हैं जो अनहोनी हैं।
हमारे परिवार पर एक प्रकोप रहा है न जाने क्यों, कि कभी भी परिवार में एक मृत्यु नहीं होती थी, दो होती थीं। एक साथ नहीं किन्तु तेहरवीं से पहले। जैसे जब मेरे पिता का निधन हुआ तब मेरे चाचाजी के बेटे का चैथे दिन निधन हुआ। इसी प्रकार दूर-पार की रिश्तेदारी में किसी न किसी का निधन हो जाता था। वर्षों तक ये सब हमने देखा।
यह परम्परा है कि यदि क्रिया से पूर्व कोई पातक मृत्यु या सूतक जन्म हो जाये तो क्रिया उस दिन से 13 दिन आगे बढ़ जाती है।
अर्थात मेरे पिता की क्रिया और चाचाजी के बेटे की क्रिया जिसे तेरहवीं कहते हैं एक ही दिन पर हुई।
सबसे बड़ा हादसा हमारे परिवार में नर्वदा बहन के निधन के बाद हुआ।
नर्वदा का निधन 26 फ़रवरी को हुआ। उनकी क्रिया अर्थात तेरहवीं 10 मार्च को होनी थी। 9 मार्च को मेरी चाचाजी के घर पोते ने जन्म लिया। अर्थात सूतक हो गया। अब नर्वदा की क्रिया 13 दिन आगे बढ़ गई और शायद 22 मार्च निर्धारित हुई। किन्तु 20 मार्च को मेरी मां का निधन हो गया। अर्थात पातक। अब 3 अप्रैल को दोनों की एक साथ क्रिया सम्पन्न हुई, नर्वदा के निधन के लगभग सवा महीने बाद। वे अत्यन्त खौफ़नाक दिन थे हमारे लिए।
Write a comment
More Articles
कौन हैं अपने कौन पराये
कुछ मुखौटै चढ़े हैं, कुछ नकली बने हैं
किसे अपना मानें, कौन पराये बने हैं
मीठी-मीठी बातों पर मत जाना यारो
मानों खेत में खड़े बिजूका से सजे हैं
Share Me
घुमक्कड़ हो गया है मन
घुमक्कड़ हो गया है मन
बिन पूछे बिन जाने
न जाने
निकल जाता है कहां कहां।
रोकती हूं, समझाती हूं
बिठाती हूं , डराती हूं, सुलाती हूं।
पर सुनता नहीं।
भटकता है, इधर उधर अटकता है।
न जाने किस किस से जाकर लग जाता है।
फिर लौट कर
छोटी छोटी बात पर
अपने से ही उलझता है।
सुलगता है।
ज्वालामुखी सा भभकता है।
फिर लावा बहता है आंखों से।
Share Me
आगमन बसन्त का
बसन्त
यूं ही नहीं आ जाता
कि वर्ष बदले,
तिथि बदली,
दिन बदले
और लीजिए
आ गया बसन्त।
मन के उपवन में
सुमधुर भावों की रिमझिम
कहीं धूप, कहीं छाया निखरी।
पल्ल्व मचल रहे
ओस की बूंदे बिखरीं,
कलियां फूल बनीं
रंगों में रंग खिले।
कहीं कोयल कूकी,
कुछ खुशबू
कुछ रंगों के संग
महका-बहका मन
Share Me
माॅं की अॅंगूठी
अंगुलियों से ज़्यादा
माॅं के पल्लू में
बंधी देखी है हमने
माॅं की अनमोल छोटी-सी अॅंगूठी।
बस
एक ही अॅंगूठी
तो हुआ करती थी
उसके पास।
किसी सौन्दर्य का प्रतीक नहीं थी
माॅं के लिए वह अॅंगूठी,
स्वर्ण का मोह भी नहीं
किन्तु अनमोल थी उसके लिए।
जब कभी पूछा माॅं से
अॅंगुली से उतारकर
पल्लू में क्यों बाॅंध लेती हो
अपनी अॅंगूठी।
सहज उत्तर होता था उसका
काम करते हुए
खराब हो जाती है,
बर्तन मांजते
बर्तनों की रगड़ से
घिस जाती है,
आटा-मिट्टी, मसाले फॅंस जाते हैं
स्वर्ण की किंकरी गिर जाती है,
ऐसा कहती थी माॅं।
स्वर्ण बहुत मॅंहगा होता है ,
बहुत अनमोल।
हम छू-छूकर देखते थे
और माॅं हॅंस देती थी
लेकिन कभी भी हमारे हाथ नहीं देती थी।
बस रात को सोते समय
पल्लू से खोलकर
पहन लेती थी
और प्रातः उठते ही फिर पल्लू में
चली जाती थी।
Share Me
जीवन
बात करते-करते मन अक्सर बुझ-सा जाता है
कभी आंखों में तरलता का आभास हो जाता है
तुम्हारी कड़वाहटें अन्तर्मन को झकझकोरती हैं
न जाने जीवन में ऐसा अक्सर क्यों हो जाता है
Share Me
प्रणाम तुम्हें करती हूं
हे भगवान!
इतना उंचा मचान।
सारा तेरा जहान।
कैसी तेरी शान ।
हिमगिरि के शिखर पर
बैठा तू महान।
कहते हैं
तू कण-कण में बसता है।
जहां रहो
वहीं तुझमें मन रमता है।
फिर क्यों
इतने उंचे शिखरों पर
धाम बनाया।
दर्शनों के लिए
धरा से गगन तक
इंसान को दौड़ाया।
ठिठुरता है तन।
कांपता है मन।
हिम गिरता है।
शीत में डरता है।
मन में शिवधाम सृजित करती हूं।
यहीं से प्रणाम तुम्हें करती हूं।
Share Me
मंगल गान गा रहे
मंगल गान गा रहे, जीवन में खुशियाँ ला रहे हम
वन्दन सूर्य का कर रहे, जीवन में प्रकाश ला रहे हम
छोटे-छोटे उत्सव, छोटी-छोटी खुशियाँ आती रहें
हॅंस-बोलकर, मेल-मिलाप से जीवन में रंग ला रहे हम
Share Me
सपने
अजीब सी होती हैं
ये रातें भी।
कभी जागते बीतती हैं
तो कभी सोते।
कभी सपने आते हैं
तो कभी
सपने डराकर
जगा जाते हैं।
कहते हैं
सिरहाने पानी ढककर
रख दें
तो बुरे सपने नहीं आते।
पर सपनों को
पानी नहीं दिखता।
उन्हें
आना है
तो आ ही जाते हैं।
कभी सोते-सोते
जगा जाते हैं
कभी पूरी-पूरी रात जगाकर
प्रात होते ही
सुला जाते हैं।
एक और अलग-सी बात
दिन हो या रात
अंधेरे में आंखें
बन्द हो ही जाती हैं।
और मुश्किल यह
कि जो देखना होता है
फिर भी देख ही लिया जाता है
क्योंकि
देखते तो हम
मन की आंखों से हैं
अंधेरे और रोशनी
दिन और रात को इससे क्या।
Share Me
रोशनी की परछाईयां भी राह दिखा जाती हैं
अजीब है इंसान का मन।
कभी गहरे सागर पार उतरता है।
कभी
आकाश की उंचाईयों को
नापता है।
ज़िन्दगी में अक्सर
रोशनी की परछाईयां भी
राह दिखा जाती हैं।
ज़रूरी नहीं
कि सीधे-सीधे
किरणों से टकराओ।
फिर सूरज डूबता है,
या चांद चमकता है,
कोई फ़र्क नहीं पड़ता।
ज़िन्दगी में,
कोई एक पल
तो ऐसा होता है,
जब सागर-तल
और गगन की उंचाईयों का
अन्तर मिट जाता है।
बस!
उस पल को पकड़ना,
और मुट्ठी में बांधना ही
ज़रा कठिन होता है।
*-*-*-*-*-*-*-*-*-
कविता सूद 1.10.2020
चित्र आधारित रचना
यह अनुपम सौन्दर्य
आकर्षित करता है,
एक लम्बी उड़ान के लिए।
रंगों में बहकता है
किसी के प्यार के लिए।
इन्द्रधनुष-सा रूप लेता है
सौन्दर्य के आख्यान के लिए।
तरू की विशालता
संवरती है बहार के लिए।
दूर-दूर तम फैला शून्य
समझाता है एक संवाद के लिए।
परिदृश्य से झांकती रोशनी
विश्वास देती है एक आस के लिए।
Share Me
जीवन चक्र तो चलता रहता है
जीवन चक्र तो चलता रहता है
अच्छा लगा
तुम्हारा अभियान।
पहले
वंशी की मधुर धुन पर
नेह दिया,
सबको मोहित किया,
प्रेम का संदेश दिया।
.
उपरान्त
शंखनाद किया,
एक उद्घोष, आह्वान,
सत्य पर चलने का,
अन्याय का विरोध,
अपने अधिकारों के लिए
मर मिटने का,
चक्र थाम।
.
और एक संदेश,
जीवन-चक्र तो चलता रहता है,
तू अपना कर्म किये जा
फल तो मिलेगा ही।