इन राहों पर
खतरनाक अंधे मोड़
होते हैं
जो दिखते तो नहीं
बस अनुभव की बात होती है
कि आप जान जायें
पहचान जायें
इन अंधों मोड़ों को
नहीं जान पाते
नहीं देख पाते
नहीं समझ पाते
कि उस पार से आने वाला
जीवन लेकर आ रहा है
या मौत।
इधर ऊँचे खड़े पहाड़
कभी छत्रछाया-से लगते हैं
और कभी दरकते-खिसकते
जीवन लीलते।
उधर गहरी खाईयां डराती हैं
मोड़ों पर।
.
फिर
बादलों के घेरे
बरसती बूंदें
अनुपम, अद्भुत,
अनुभूत सौन्दर्य में
उलझता है मन।
.
शायद यही जीवन है।
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प्रकृति जब तेवर दिखाती है
जीवन-अंकुरण
प्रकृति का स्व-नियम है।
नई राहें
आप ढूंढती है प्रकृति।
जिजीविषा, न जाने
किसके भीतर कहां तक है,
इंसान कहां समझ पाया।
जीवन में हम
बनाते रह जाते हैं
नियम कानून,
बांधते हैं सरहदें,
कहां किसका अधिकार,
कौन अनधिकार।
प्रकृति
जब तेवर दिखाती है,
सब उलट-पुलट कर जाती है।
हालात तो यही कहते हैं,
किसी दिन रात में उगेगा सूरज
और दिन में दिखेंगें तारे।
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अपना-अपना सूरज
द्वार पर पैर रखते ही निशि को माँ की नाराज़गी का सामना करना पड़ा, ‘‘अगर कल से इस तरह घर लौटने में आधी रात की न तो आगे से घर से लौटना बन्द कर दूँगी। रोज़ समझाती हूँ पर तेरे कान में बात नहीं पड़ती लड़की।’’
निशि डरते-डरते माँ के निकट आ खड़ी हुई, ‘‘लेकिन मम्मी मैं तो आपसे पूछकर ही गई थी यहीं पड़ोस में नीरा के घर। दूर थोड़े ही जाती हूँ और अभी तो अंधेरा भी नहीं हुआ। देखो धूप........।’’
माँ ने झल्लाकर बात काटी, ‘‘हाँ, अंधेरा तो तब होगा जब किसी दिन नाक कटवा लायेगी हमारी।’’
‘‘इसकी ज़बान ज़्यादा चलने लगी है मम्मी’’, अन्दर से नितिन की आवाज़ आई।
‘‘तू कौन होता है बीच में बोलने वाला?’’निशि को छोटे भाई का हस्तक्षेप अच्छा नहीं लगा।
नितिन उठकर बाहर आया और निशि की चोटी खींचता हुआ बोला, ‘‘मम्मी, इसे समझाओ मैं कौन होता हूँ बोलने वाला।’’
बाल खिंचने से हुई निशि की पीड़ा माँ के तीखे स्वर में दबकर रह गई, ‘‘क्यों भाई नहीं है तेरा। यह तेरी चिन्ता नहीं करेगा तो कौन करेगा? कल को दुनियादारी तो इसे ही निभानी है। कौन सम्हालेगा अगर कोई ऊँच-नीच हो गई तो?’’
माँ की शह पर नितिन का यह रोब निशि के असहनीय था, किन्तु इससे पूर्व कि वह कुछ बोले, माँ नितिन की ओर उन्मुख हुई, ‘‘और तू यहाँ इस समय घर में बैठा क्या कर रहा ह? सूरज अभी ढला नहीं कि तू घर में मुँह छुपाकर बैठ जाता है। जा, बाहर जाकर दोस्तों के साथ खेल। शाम को ज़रा घूमा-फिराकर सेहत बनती है।’’
और निशि! अवाक् खड़ी थी। पूछना चाहती थी कि जब उसकी आधी रात हो जाती है, तब भाई का सूरज भी नहीं ढलता। ऐसा कैसे सम्भव है? क्या सबका सूरज अलग-अलग होता है? उसका और नितिन का सूरज एक साथ क्यों नहीं डूबता?
क्यों? क्यों?
वह घूम रही है, पूछ रही है, चिल्ला रही है, ‘‘बताओ, मेरा सूरज अलग क्यों डूबता है? क्यों डूबता है मेरा सूरज इतनी जल्दी? क्यों डूब जाता है मेरा सूरज धूप रहते?
क्यों? क्यों?
पर कोई उत्तर नहीं देता। सब सुनते हैं और हँसते हैं। धरती-आकाश, पेड़-पौधे, चाँद-तारे, फूल-पत्थर, सब हँसते हैं,
बौरा गई है लड़की, इतना भी नहीं जानती कि लड़के और लड़कियों का सूरज अलग-अलग होता है।
पर निशि सच में ही बौरा गई है। हाथ फैलाए सूरज की ओर दौड़ रही है और कहती है मैं अपना सूरज डूबने नहीं दूँगी।
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कृष्ण एक अवतार बचा है ले लो
अपने जन्मदिवस पर,
आनन्द पूर्वक,
परिवार के साथ,
आनन्दमय वातावरण में,
आनन्द मना रही थी।
पता नहीं कहां से
कृष्ण जी पधारे,
बोले, परसों मेरा भी जन्मदिन था।
करोड़ों लोगों ने मनाया।
मैं बोली
तो मेरे पास क्या करने आये हो?
मैंने तो नहीं मनाया।
बोले,
इसी लिए तो तुम्हें ही
अपना आशीष देने आया हूं,
बोले] जुग-जुग जीओ बेटा।
पहले तो मैंने उन्हें डांट दिया,
अपना उच्चारण तो ठीक करो,
जुग नहीं होता, युग होता है।
इससे पहले कि वह
डर कर चले जाते,
मैंने रोक लिया और पूछा,
हे कृष्ण! यह तो बताओ
कौन से युग में जीउं ?
मेरे इस प्रश्न पर कृष्ण जी
तांक-झांक करने लगे।
मैंने कहा, केक खाओ,
और मेरे प्रश्न सुलझाओ।
हर युग में आये तुम।
हर युग में छाये तुम।
पर मेरी समझ कुछ छोटी है
बुद्धि ज़रा मोटी है।
कुछ समझाओ मुझे तुम।
पढ़ा है मैंने
24 अवतार लिए तुमने।
कहते हैं
सतयुग सबसे अच्छा था,
फिर भी पांच अवतार लिये तुमने।
दुष्टों का संहार किया
अच्छों को वरदान दिया।
त्रेता युग में तीन रूप लिये
और द्वापर में अकेले ही चले आये।
कहते हैं,
यह कलियुग है,
घोर पाप-अपराध का युग है।
मुझे क्या लेना
किस युग में तुमने क्या किया।
किसे दण्ड दिया,
और किसे अपराध मुक्त किया।
एक अवतार बचा है
ले लो, ले लो,
नयी दुनिया देखो
इस युग में जीओ,
केक खाओ और मौज करो।
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दो पंछी
गुपचुप, छुपछुपकर बैठे दो पंछी
नेह-नीर में भीग रहे दो पंछी
घन बरसे, मन हरषे, देख रहे
साथ-साथ बैठे खुश हैं दो पंछी
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प्रेम-प्यार की बात न करना
प्रेम-प्यार की बात न करना,
घृणा के बीज हम बो रहे हैं।
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सम्बन्धों का मान नहीं अब,
दीवारें हम अब चिन रहे हैं।
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काले-गोरे की बात चल रही,
चेहरों को रंगों से पोत रहे हैं ।
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अमीर-गरीब की बात कर रहे,
पैसे से दुनिया को तोल रहे हैं ।अ
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कौन है सच्चा, कौन है झूठा,
बिन जाने हम कोस रहे हैं।
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पढ़ना-लिखना बात पुरानी
सुनी-सुनाई पर चल रहे हैं।
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सर्वधर्म समभाव भूल गये,
भेद-भाव हम ढो रहे हैं।
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अपने-अपने रूप चुन लिए,
किस्से रोज़ नये बुन रहे हैं।
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राजनीति का ज्ञान नहीं है
चर्चा में हम लगे हुए हैं।
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ठहरी-ठहरी-सी है ज़िन्दगी
सपनों से हम डरने लगे हैं।
दिल में भ्रम पलने लगे हैं ।
ठहरी-ठहरी-सी है ज़िन्दगी
अपने ही अब खलने लगे हैं।
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अरे अपने भीतर जांच
शब्दों की क्या बात करें, ये मन बड़ा वाचाल है
इधर-उधर भटकता रहता, न अपना पूछे हाल है
तांक-झांक की आदत बुरी, अरे अपने भीतर जांच
है सबका हाल यही, तभी तो सब यहां बेहाल हैं
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आंसुओं के निशान
आॅंख से बहता पानी
उतना ही खारा होता है
जितना सागर का पानी।
उतनी ही गहराई होती है
जैसी सागर में।
आॅंखों के भीतर भी
उठती हैं उत्ताल तरंगें,
डूबते हैं भाव,
कसकती हैं आशाएॅं, इच्छाएॅं।
कोरों पर जमती है काई,
भीतर ही भीतर
उठते हैं बवंडर,
भंवर में डूब जाते हैं
न जाने कितने सपने।
बस अन्तर इतना ही है
कि सागर का पानी
कभी सूखता नहीं,
चिन्ह रेत पर छोड़ता नहीं,
मिलते हैं माणिक-मोती
सुच्चे सीपी-शंख।
लेकिन आॅंख का पानी
जब-जब सूखता है
तब-तब भीतर तक
सागर भर-भर जाता है,
लेकिन
फिर भी
देता है शुष्कता का एहसास
और अपने पीछे छोड़ जाता है
अनदेखे जीवन भर के निशान।
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मर रहा है आम आदमी : कहीं अपनों हाथों
हम एक-दूसरे को नहीं जानते
नहीं जानते
किस देश, धर्म के हैं सामने वाले
शायद हम अपनी
या उनकी
धरती को भी नहीं पहचानते।
जंगल, पहाड़, नदियां सब एक-सी,
एक देश से
दूसरे देश में आती-जाती हैं।
पंछी बिना पूछे, बिना जाने
देश-दुनिया बदल लेते हैं।
किसने हमारा क्या लूट लिया
क्या बिगाड़ दिया,
नहीं जानते हम।
जानते हैं तो बस इतना
कि कभी दो देश बसे थे
कुछ जातियां बंटी थीं
कुछ धर्म जन्मे थे
किसी को सत्ता चाहिये थी
किसी को अधिकार।
और वे सब तमाशबीन बनकर
उंचे सिंहासनों पर बैठे हैं
शायद एक साथ,
जहां उन्हें कोई छू भी नहीं सकता।
वे अपने घरों में
बारूद की खेती करते हैं
और उसकी फ़सल
हमारे हाथों में थमा देते हैं।
हमारे घर, खेत, शहर
जंगल बन रहे हैं।
जाने-अनजाने
हम भी उन्हीं फ़सलों की बुआई
अपने घर-आंगन में करने लगे हैं
अपनी मौत का सामान जमा करने लगे हैं
मर रहा है आम आदमी
कहीं अपनों से
और कहीं अपने ही हाथों
कहीं भी, किसी भी रूप में।
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खास नहीं आम ही होता है आदमी
खास कहां होता है आदमी
आम ही होता है आदमी।
जो आम नहीं होता
वह नहीं होता है आदमी।
वह होता है
कोई बड़ा पद,
कोई उंची कुर्सी,
कोई नाम,
मीडिया में चमकता,
अखबारों में दमकता,
करोड़ों में खेलता,
किसी सौदे में उलझा,
कहीं झंडे गाढ़ता,
लम्बी-लम्बी हांकता
विमान से नीचे झांकता
योजनाओं पर रोटियां सेंकता,
कुर्सियों की
अदला-बदली का खेल खेलता,
अक्सर पूछता है
कहां रहता है आम आदमी,
कैसा दिखता है आम आदमी।
क्यों राहों में आता है आम आदमी।