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मेरा प्रवचन है
इस छोटी सी उम्र में ही
जान ले ली है मेरी।
बड़ी बड़ी बातें सिखाते हैं
जीवन की राहें बताते हैं
मुझे क्या बनना है जीवन में
सब अपनी-अपनी राय दे जाते हैं।
और न जाने क्या क्या बताते-समझाते हैं।
इस छोटी सी उम्र में ही
एक नियमावली है मेरे लिए
उठने , बैठने, सोने, खाने-पीने की
पढ़ने और अनेक कलाओं में
पारंगत होने की।
अरे !
ज़रा मेरी उम्र तो देखो
मेरा कद, मेरा वजूद तो देखो
मेरा मजमून तो देखो।
किसे किसे समझाउं
मेरे खेलने खाने के दिन हैं।
देख रहे हैं न आप
अभी से मेरे सिर के बाल उड़ गये
आंखों पर चश्मा चढ़ गया।
तो
मैंने भी अपना मार्ग चुन लिया है।
पोथी उठा ली है
धूनी रमा ली है
शाम पांच बजे
मेरा प्रवचन है
आप सब निमंत्रित हैं।
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मूर्ख मित्र से बुद्धिमान शत्रु अच्छा
एक पुरानी कहावत है : मूर्ख मित्र से बुद्धिमान शत्रु अच्छा होता है, चलिए आज इस मुहावरे की चीर-फ़ाड़ करते हैं।
मित्र कौन है? मेरी समझ में मित्र वह है जो हमारी अच्छाईयों-बुराईयों के साथ हमें स्वीकार करता है। जिससे हम निःसंकोच अपना सुख-दुख, परेशानी बांट सकते हैं और उससे सामाजिक, मानसिक सहयोग की आशा रखते हैं। जो हमें, हमारे परिवार के साथ हमें स्वीकार करता है, जो हमें हमारी कमियों के साथ तो स्वीकार करता ही है और हमारी गलतियों के लिए हमें डांटने, मना करने, रोकने का भी साहस रखता है, वही मित्र कहलाता है और यही अपेक्षाएॅं वह हमसे भी करता है।
किन्तु शत्रु की हमारे मन में एक सीधी-सी व्याख्या है कि यह व्यक्ति हमारे लिए जो भी करेगा, बुरा ही करेगा।
किन्तु हम शत्रु किसे मानें और क्यों मानें। मित्र शब्द को परिभाषित करना जितना सरल और शत्रु शब्द को परिभाषित करना उतना ही कठिन। दूरियाॅं, अनबन, नाराज़गी जैसे भाव सरल होते हैं किन्तु शत्रु शब्द बहुत ही गहरा एवं नकारात्मक है जहाॅं अच्छाई और सच्चाई के लिए कोई जगह ही नहीं रह जाती।
मेरी समझ तो यह कहती है कि यदि शत्रु बुद्धिमान होगा तब तो उससे और भी सावधान रहने की आवश्यकता है। मूर्ख मित्र से भी ज़्यादा। मूर्ख मित्र भूल कर सकता है, नादानी कर सकता है किन्तु धोखा, छल-कपट, धूर्तता, प्रवंचना नहीं कर सकता।
यह ज़रूरी नहीं है कि पुरानी सभी कहावतें, मुहावरे ठीक ही हों।
शत्रु तो शत्रु ही रहेगा, बुद्धिमान हो अथवा मूर्ख।
मित्र स्वीकार हैं, और जो वास्तव में मित्र होते हैं वे मित्रों के लिए कभी भी मूर्ख हो ही नहीं सकते। और यदि हैं भी तो भी स्वीकार्य हैं। और शत्रुओं की तो वैसे ही जीवन में कमी नहीं है, बुद्धिमान, मूर्ख सबकी लाईन लगी है, एक ढूॅंढने निकलो, हज़ार मिलते हैं।
वर्तमान में दुनिया आभासी मित्रों एवं शत्रुओं से ज़्यादा बौखलाई दिखती है।
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देख रहे त्रिपुरारी
भाल तिलक, माथ चन्द्रमा, गले में विषधर भारी
गौरी संग नयन मूंदकर जग देख रहे त्रिपुरारी
नेह बरसे, मन सरसे, देख-देख मन हरषे
विषपान किये, भागीरथी संग देखें दुनिया सारी
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कोई हमें क्यों रोक रहा
आँख बन्द कर सोने में मज़ा आने लगता है।
बन्द आँख से झांकने में मज़ा आने लगता है।
पकी-पकाई मिलती रहे, मुँह में ग्रास आता रहे
कोई हमें क्यों रोक रहा, यही खलने लगता है
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ऐसा अक्सर होता है
ऐसा अक्सर होता है जब हम रोते हैं जग हंसता है
ऐसा अक्सर होता है हम हंसते हैं जग ताने कसता है
न हमारी हंसी देख सकते हो न दुख में साथ होते हो
दुनिया की बातों में आकर मन यूँ ही फ़ँसता है।
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अतीत का मोह
अतीत की तहों में
रही होंगी कभी
कुछ खूबसूरत इमारतें
गगनचुम्बी मीनारें
स्वर्ण-रजत से मढ़े सिंहासन
धवल-जल-प्रवाह
मरमरी संगमरमर पर
संगीत की सुमधुर लहरियाँ ।
हमारी आंखों पर चढ़ा होता है
उस अनदेखे सौन्दर्य का
ऐसा परदा
कि हम वर्तमान में
जीना ही भूल जाते हैं।
और उस अतीत के मोह में
वर्तमान कहीं भूत में चला जाता है
और सब गड्मगड् हो जाता है।
भूत और वर्तमान के बीच उलझे
लौट-लौटकर देखते हैं
परखते हैं
और उस अतीत को ही
संजोने के प्रयास में लगे रहते हैं।
अतीत
चाहे कितना भी सुनहरा हो
काल के गाल में
रिसता तो है ही
और हम
अतीत के मोह से चिपके
विरासतें सम्हालते रह जाते हैं
और वर्तमान गह्वर में
डूबता चला जाता है।
खुदाईयों से मिलते हैं
काल-कलवित कंकाल,
हज़ारों-लाखों वर्ष पुरानी वस्तुएँ
उन्हें रूपाकार देने में
सुरक्षित रखने में
लगाते हैं अरबों-खरबों लगाते हैं
और वर्तमान के लिए
अगली पीढ़ी का
मुहँ ताकने लगते हैं।
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झूठी तेरी वाणाी
बोल-अबोल कुछ भी बोल, मन की कड़ियाॅं खोल
आज तो तेरे साथ करें हम वार्ता खोलें तेरी पोल
देखें तो कितनी सच्ची, कितनी झूठी तेरी वाणाी
बोल-चाल से भाग लिए पर लगेगा अब तो मोल
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रंग-बिरंगी आभा लेकर
काली-काली घनघोर घटाएं, बिजुरी चमके, मन बहके
झर-झर-झर बूंदें झरतीं, चीं-चीं-चीं-चीं चिड़िया चहके
पीछे से कहीं आया इन्द्रधनुष रंग-बिरंगी आभा लेकर
मदमस्त पवन, धरा निखरी, उपवन देखो महके-महके
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बुद्धम् शरणम गच्छामि
कथाओं के अनुसार आज से लगभग 2500 वर्ष पूर्व की कथा है। 563 ईसा पूर्व। एक राजकुमार अपनी सोती हुई पत्नी एवं नवजाव शिशु को आधी रात में त्याग कर ज्ञान प्राप्ति के लिए चला गया। उस युवक ने घोर तपस्या की, साधना की और दिव्य ज्ञान प्राप्त किया। उन्होंने सम्पूर्ण जगत को जरा, मरण, दुखों से मुक्ति दिलाने के लिए, सत्य एवं दिव्य ज्ञान की खोज के लिए जगत के हित के लिए वर्षों कठोर साधना की और अन्त में बिहार बोध गया में बोधि वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई ओर वे सिद्धार्थ गौतम से भगवान बुद्ध बन गये।
जिस ज्ञान की प्राप्ति के लिए बुद्ध ने अपने परिवार का परित्याग किया, जो कि उनका दायित्व था क्या उस ज्ञान का उपयोग आज यह संसार कर रहा है? क्या जगत के लिए उनका ज्ञान और उपदेश चरम उपलब्धि था?
यदि था तो उनके उपरान्त क्यों आवश्यकता पड़ी कि एक-अनेक युग-पुरुष आये जिन्होंने संसार को पुनः उपदेश दिये, अपने ज्ञान की धारा बहाई, ग्रंथ लिखे गये, आप्त वाक्य बने और यह क्रम आज भी चल रहा है। एक समय बाद ज्ञान की धारा धर्म का रूप ले लेती है। उपदेश की पुनरावृत्ति होती है हर युग में, केवल नाम बदलते हैं, स्थापनाएँ नहीं बदलतीं।
जब भी गौतम बुद्ध के त्याग, ज्ञान, बौद्धित्व, साधना की बात की जाती है मुझे केवल नवजात शिशु और यशोधरा की याद आती है, उनके प्रति कर्तव्य, विश्वास की डोर टूटी तो सम्पूर्ण जगत के साथ कैसे जोड़ी?