कहते हैं
जड़ें ज़मीन में जितनी गहरी हों
वृक्ष उतने ही फलते-फूलते हैं।
अपनी मिट्टी की पकड़
उन्हें उर्वरा बनाये रखती है।
किन्तु वट-वृक्ष !
मैं नहीं जानती
कि ज़मीन के नीचे
इसकी कहां तक पैठ है।
किन्तु इतना समझती हूं
कि अपनी जड़ों को
यह धरा पर भी ले आया है।
डाल से डाल निकलती है
उलझती हैं,सुलझती हैं
बिखरती हैं, संवरती हैं,
वृक्ष से वृक्ष बनते हैं।
धरा से गगन,
और गगन से धरा की आेर
बार-बार लौटती हैं इसकी जड़ें
नव-सृजन के लिए।
-
बस
इंसान की हद का ही पता नहीं लगता
कि कितना ज़मीन के उपर है
और कितना ज़मीन के भीतर।
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नया- पुराना
कुछ अलग-सा ही होता है
दिसम्बर।
पहले तो
बहुत प्रतीक्षा करवाता है
और आते ही
चलने की बात
करने लगता है।
कहता है
पुराना जायेगा तभी तो
कुछ नया आयेगा।
और जब नया आयेगा
तो कुछ पुराना जायेगा।
लेकिन
नये और पुराने के
बीच की दूरियां
पाटने में ही
ज़िन्दगी निकल जाती है
और हम नासमझ
बस हिसाब लगाते रह जाते हैं।
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छोटा-सा जीवन है हंस ले मना
छोटा-सा जीवन है हंस ले मना
जीवन में
बार-बार अवसर नहीं मिलते,
धूप ज्यादा हो
तो सदैव बादल नहीं घिरते,
चांद कभी कहीं नहीं जाता।
बस हमारी ही समझ का फेर है
कभी पूर्णिमा
कभी ईद और कभी अमावस
की बात करते हैं।
निभा सको तो निभा लो
हर मौसम को जीवन में
यूं जीने के अवसर
बार-बार नहीं मिलते।
रूठने-मनाने का
सिला तो जीवन-भर चला रहता है
अपनों को मनाने के
अवसर बार -बार नहीं मिलते।
कहते हैं छोटा-सा जीवन है
हंस ले मना,
यूं अकारण
खुश रहने के अवसर
बार-बार नहीं मिलते ।
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अपने ही घर को लूटने से
कुछ रोशनियां अंधेरे की आहट से ग्रस्त हुआ करती हैं
जलते घरों की आग पर कभी भी रोटियां नहीं सिकती हैं
अंधेरे में हम पहचान नहीं पाते हैं अपने ही घर का द्वार
अपने ही घर को लूटने से तिज़ोरियां नहीं भरती हैं।
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खून का असली रंग
हमारे यहाँ
रगों में बहते खून की
बहुत बात होती है।
किसी का खून खानदानी,
किसी का उजला,
किसी का काला
किसी का अपना
और किसी का पराया।
तब आसानी से
कह देते हैं
अपना तो खून ही
ख़राब निकला।
और
ऐसा नीच खून
तो हमारा खून
हो ही नहीं सकता।
-
लेकिन
काश! हम समझ पाते
कि रगों में बहते खून का
कोई रंग नहीं होता
खून का रंग तब होता है
जब वह किसी के काम आये।
फिर अपना हो या पराया,
खानदानी हो या काला,
खून का असली रंग
तभी पहचान में आता है।
लाल, नीला या काला
होने से कभी
कोई फ़र्क नहीं पड़ता।
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चाहतों की भूख
जीवन में आगे-पीछे, ऊपर-नीचे तो चलता रहता है
जो पाया, अनायास न जाने कभी कहाँ खो जाता है
बहुत-बहुत की चाह में धक्का-मुक्की में लगे हैं हम
चाहतों की भूख से मानव कहाँ कभी पार पा पाता है।
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मोती बनीं सुन्दर
बूँदों का सागर है या सागर में बूँदें
छल-छल-छलक रहीं मदमाती बूँदें
सीपी में बन्द हुईं मोती बनीं सुन्दर
छू लें तो मानों डरकर भाग रही बूँदें
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नई आस नया विश्वास
एक चक्र घूमता है जीवन का।
उर्वरा धरा
जीवन विकसित करती है।
बीज से अंकुरण होता है
अंकुरण से
पौधे रूप लेने लगते हैं
जीवन की आहट मिलती है।
डालियाँ झूमती हैं
रंगीनियाँ बोलती हैं
गगन देखता है
मन इस आस में जीता है,
कुछ नया मिलेगा
जीवन आगे बढ़ेगा।
मानों धन-धान्य
बिखरता है इन डालियों में,
पुनः धरा में
और अंकुरित होती है नई आस
नया विश्वास।
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सहज भाव से जीना है जीवन
कल क्या था,बीत गया,कुछ रीत गया,छोड़ उन्हें
खट्टी थीं या मीठी थीं या रिसती थीं,अब छोड़ उन्हें
कुछ तो लेख मिटाने होंगे बीते,नया आज लिखने को
सहज भाव से जीना है जीवन,कल की गांठें,खोल उन्हें
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वक्त की करवटें
जिन्दगी अब गुनगुनाने से डरने लगी है।
सुबह अब रात-सी देखो ढलने लगी है।
वक्त की करवटें अब समझ नहीं आतीं,
उम्र भी तो ढलान पर चलने लगी है।
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उठ बालिके उठ बालिके
सुनसान, बियाबान-सा
सब लगता है,
मिट्टी के इस ढेर पर
क्यों बैठी हो बालिके,
कौन तुम्हारा यहाँ
कैसे पहुँची,
कौन बिठा गया।
इतनी विशाल
दीमक की बांबी
डर नहीं लगता तुम्हें।
द्वार बन्द पड़े
बीच में गहरी खाई,
सीढ़ियाँ न राह दिखातीं
उठ बालिके।
उठ बालिके,
चल घर चल
अपने कदम आप बढ़ा
अपनी बात आप उठा।
न कर किसी से आस।
कर अपने पर विश्वास।
उठ बालिके।