सत्य के भी पांव नहीं होते
कहते हैं
झूठ के पांव नहीं होते
किन्तु मैंने तो
कभी सत्य के पांव
भी नहीं देखे।
झूठ अक्सर सबका
एक-सा होता है
पर ऐसा क्यों होता है
कि सत्य
सबका अपना-अपना होता है।
किसी के लिए
रात के अंधेरे ही सत्य हैं
और कोई
चांद की चांदनी को ही
सत्य मानता है।
किसी का सच सावन की घटाएं हैं
तो किसी का सच
सावन का तूफ़ान
जो सब उजाड़ देता है।
किसी के जीवन का सत्य
खिलते पुष्प हैं
तो किसी के जीवन का सत्य
खिलकर मुर्झाते पुष्प ।
किन्तु झूठ
सबका एक-सा होता है,
इसलिए
आज झूठ ही वास्तविक सत्य है
और यही सत्य है।
किससे बात करुं मैं
चारों ओर खलबली है।
समाचारों में सनसनी है।
सड़कों पर हंगामा है।
आन्दोलन-उपद्रव चल रहे हैं
और हम
सास-बहू के मुद्दों पर लिख रहे हैं।
गढ़े मुर्दे उखाड़ रहे हैं।
पुरानी सीवनें उधेड़ रहे हैं।
खिड़की से बाहर का अंधेरा नहीं दिखता
दूर देश में रोशनियां खोज रहे हैं।
हज़ार साल पुरानी बातों का
पिष्ट-पेषण करने में लगे हैं,
और अपने घर में लगी आग से
हाथ सेंकने में लगे हैं।
और यदि और कुछ न हो पाये
तो हमारे पास
ऊपर वाले बहुत हैं,
उनका नाम जपकर
मुंह ढककर सो रहे हैं।
कितना भी मुंह मोड़ लें,
हाथों को जोड़ लें,
शोर को रोक लें,
कानों में रुईं ठूंस लें,
किसी दिन तो
अपने घाव भी रिसेंगे ही।
वैसे भी मुंह मोड़ने
या छुपाने से
कान बन्द नहीं होते,
बस मुंह चुराते हैं हम।
सच लिखने से घबराते हैं हम।
और यदि
औन कुछ न दिखे
तो करताल बजाते हैं हम।
खड़ताल खड़काते हैं हम।
रोज़, हर रोज़
बेवजह
मरने वालों का
हिसाब नहीं मांगती मैं।
किन्तु हमारे भाव मर रहे हैं,
सोच मर रही है,
बेबाक बोलने की आवाज़ डर रही है।
किससे बात करुं मैं ?
ससम्मान बात करनी पड़ती है
पता नहीं वह धोबी कहां है
जिस पर यह मुहावरा बना था
घर का न घाट का।
वैसे इस मुहावरे में
दो जीव भी हुआ करते थे।
जब से समझ आई है
यही सुना है
कि धोबी के गधे हुआ करते थे
जिन पर वे
अपनी गठरियां ठोते थे।
किन्तु मुहावरे से
गर्दभ जी तो गायब हैं
हमारी जिह्वा पर
श्वान महोदय रह गये।
और आगे सुनिये मेरा दर्शन।
धोबी के दर्शन तो
कभी-कभार
अब भी हो जाते हैं
किन्तु गर्दभ और श्वान
दोनों ही
अपने-अपने
अलग दल बनाकर
उंचाईयां छू रहे हैं।
इसीलिए जी का प्रयोग किया है
ससम्मान बात करनी पड़ती है।
कंधों पर सिर लिए घूमते हैं
इस रचना में पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग किया गया है, पर्यायवाची शब्दों में भी अर्थ भेद होता है, इसी अर्थ भेद के कारण मुहावरे बनते हैं, ऐसा मैं समझती हूं, इसी दृष्टि से इस रचना का सृजन हुआ है
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सुनते हैं
अक्ल घास चरने गई है
मति मारी गई है
और समझ भ्रष्ट हो गई है
विवेक-अविवेक का अन्तर
भूल गये हैं
और मनीषा, प्रज्ञा, मेधा
हमारे ऋषि-मुनियों की
धरोहर हुआ करती थीं
जिन्हें हम सम्हाल नहीं पाये
अपनी धरोहर को।
बुद्धि-विवेक कहीं राह में छूट गये
और हम
यूं ही
कंधों पर सिर लिए घूमते हैं।
वृक्षों के लिए जगह नहीं
अट्टालिकाओं की दीवारों से
लटकती है
मंहगी हरियाली।
घरों के भीतर
बैठै हैं बोनसाई।
वन-कानन
कहीं दूर खिसक गये हैं।
शहरों की मज़बूती
वृक्षों के लिए जगह नहीं दे पाती।
नदियां उफ़नने लगी हैं।
पहाड़ दरकने लगे हैं।
हरियाली की आस में
बैठा है हाथ में पौध लिए
आम आदमी,
कहां रोपूं इसे
कि अगली पीढ़ी को
ताज़ी हवा,
सुहाना परिवेश दे सकूं।
.
मैंने कहा
डर मत,
हवाओं की मशीनें आ गई हैं
लगवा लेगी अगली पीढ़ी।
तू बस अपना सोच।
यही आज की सच्चाई है
कोई माने या न माने
अर्थ का अनर्थ
शब्द बदल देने से
भाव बदल जाते हैं।
नाम-मात्र से
युद्धों के
परिणाम बदल जाते हैं।
बात कुंजर की थी,
नर कहा गया,
महाभारत का युद्ध पलट गया।
नाम वही है,
पर आधी बात सुनने से
कभी-कभी
अर्थ का अनर्थ हो जाता है।
गज-गामिनी,
मदमस्त चाल कहने से
कभी-कभी
व्यंग्य-कटाक्ष हो जाता है।
इसलिए
जब भी शब्द चुनो
सोच-समझकर चुनना,
कहने से पहले दो बार सोचना,
क्योंकि
मद-मस्त चलने वाला
जब भड़कता है
तब
शहर किसने देखे,
जंगल के जंगल
उजड़ जाते हैं।
शुक्र मनाईये,
ये शहर की ओर नहीं देखते,
नहीं तो हम-आप
अभयारण्य में होते।
हम नहीं लकीर के फ़कीर
हमें बचपन से ही
घुट्टी में पिलाई जाती हैं
कुछ बातें,
उन पर
सच-झूठ के मायने नहीं होते।
मायने होते हैं
तो बस इतने
कि बड़े-बुजुर्ग कह गये हैं
तो गलत तो हो ही नहीं सकता।
उनका अनुभूत सत्य रहा होगा
तभी तो सदियों से
कुछ मान्यताएं हैं हमारे जीवन में,
जिनका विरोध करना
संस्कृति-संस्कारों का अपमान
परम्पराओं का उपहास,
और बड़े-बुज़ुर्गों का अपमान।
आज की शिक्षित पीढ़ी
नकारती है इन परम्पराओं-आस्थाओं को।
कहती है
हम नहीं लकीर के फ़कीर।
किन्तु
नया कम्प्यूटर लेने पर
उस पर पहले तिलक करती है।
नये आफ़िस के बाहर
नींबू-मिर्च लटकाती है,
नया काम शुरु करने से पहले
उन पण्डित जी से मुहूर्त निकलवाती है
जो संस्कृत-पोथी पढ़ना भूले बैठे हैं,
फिर नारियल फोड़ती है
कार के सामने।
पूजा-पाठ अनिवार्य है,
नये घर में हवन तो करना ही होगा
चाहे सामग्री मिले या न मिले।
बिल्ली रास्ता काट जाये
तो राह बदल लेते हैं
और छींक आने पर
लौट जाते हैं
चाहे गाड़ी छूटे या नौकरी।
हाथों में ग्रहों की चार अंगूठियां,
गले में चांदी
और कलाई में काला-लाल धागा
नज़र न लगे किसी की।
लेकिन हम नहीं लकीर के फ़कीर।
ये तो हमारी परम्पराएं, संस्कृति है
और मान रखना है हमें इन सबका।
ज़्यादा मत उड़
कौन सी वास्तविकता है
और कौन सा छल,
अक्सर असमंजस में रह जाती हूं।
रोज़ हर रोज़
समाचारों में गूंजती हैं आवाजे़ं
देखो हमने
नारी को
कहां से कहां पहुंचा दिया।
किसी ने चूल्हा बांटा ,
किसी ने गैस,
किसी की सब्सिडी छीनी
तो किसी की आस।
नौकरियां बांट रहे।
घर संवार रहे।
मौज करवा रहे।
स्टेटस दिलवा रहे।
कभी चांद पर खड़ी दिखी।
कभी मंच पर अड़ी दिखी।
आधुनिकता की सीढ़ी पर
आगे और आगे बढ़ी।
अपना यह चित्र देख अघाती नहीं।
अंधविश्वासों ,
कुरीतियों का विरोध कर
मदमाती रही।
प्रंशसा के अंबार लगने लगे।
तुम्हारे नाम के कसीदे
बनने लगे।
साथ ही सब कहने लगे
ऐसी औरतें घर-बार की रहती नहीं
पर तुम अड़ी रही
ज़रा भी डिगी नहीं।
-
ज़्यादा मत उड़ ।
कहीं भी हो आओ
लौटकर यहीं,
यही चूल्हा-चौका करना है।
परम्पराओं के नाम पर
घूंघट की ओट में जीना है।
और ऐसे ही मरना है।।।
हम भी शेर हुआ करते थे
एक प्राचीन कथा है
गीदड़ ने शेर की खाल ओढ़ ली थी
और जंगल का राजा बन बैठा था।
जब साथियों ने हुंआ-हुंआ की
तब वह भी कर बैठा था।
और पकड़ा गया था,
पकड़ा क्या, बेचारा मारा गया था।
ज़माना बदल गया ।
शेर न सोचा
मैं गीदड़ की खाल ओढ़कर देखूं एक बार।
एक की देखा-देखी,
सभी शेरों ने गीदड़ की खाल ओढ़ ली
और हुंआ-हुंआ करने लगे।
धीरे-धीरे वे
अपनी असलियत भूलते चले गये।
आज सारे शेर
दहाड़ना भूलकर
हुंआ-हुंआ करने में लगे हैं।
अपना शिकार करना छोड़कर
औरों की जूठन खाने में लगे हैं।
गीदड़-भभकियां दे रहे हैं,
और सारे अपने-आप को
राजा समझ बैठे हैं।
शोक किस बात का, आरोप किस बात का।
हमारे भीतर का शेर भी तो
हुंआ-हुंआ करने में ही लगा है।
लेकिन बड़ी बात यह,
कि हमें यही नहीं पता
कि हम भीतर से वास्तव में शेर हैं
जो गीदड़ की खाल ओढ़े बैठे हैं,
या हैं ही गीदड़
और इस भ्रम में जी रहे हैं,
कि एक समय की बात है,
हम भी शेर हुआ करते थे।
ताल-तलैया पोखर भैया
ताल-तलैया, पोखर भैया,
मैं क्या जानू्ं
क्या होते सरोवर मैया।
बस नाम सुना है
न देखें हमने भैया।
गड्ढे देखे, नाले देखे,
सड़कों पर बहते परनाले देखे,
छप-छपाछप गाड़ी देखी।
सड़कों पर आबादी देखी।
-
जब-जब झड़ी लगे,
डाली-डाली बहके।
कुहुक-कुहुक बोले चिरैया ।
रंग निखरें मन महके।
मस्त समां है,
पर लोगन को लगता डर है भैया।
सड़कों पर होगा
पोखर भैया, ताल-तलैया
हमने बोला मैया,
अब तो हम भी देखेंगे ,
कैसे होते हैं ताल-तलैया,
और सरोवर, पोखर भैया ।
लिखने को तो बहुत कुछ है
पढ़ने की ललक है,
आगे बढ़ने की ललक है।
न जाने कहां तक
राह खुली है ,
और कहां ताला बन्द है।
आजकल
विज्ञापन बहुत हैं,
बनावट बहुत है,
तरह तरह की
सजावट बहुत है।
सरल-सहज
कहां जीवन रह गया,
कसावट बहुत है।
राहें दुर्गम हैं,
डर बहुत है।
पढ़ ले, पढ़ ले।
आजकल
पढ़ी-लिखी लड़कियों की
डिमांड बहुत है।
पर साथ-साथ
चूल्हा-चौका-घिसाई भी सीख लेना,
उसके बिना
लड़कियों का जीवन
नरक है।
अंग्रज़ी में गिट-पिट करना सीख ले,
पर मानस भी रट लेना ,
यह भी जीवन का जरूरी पक्ष है।
तुम्हारी सादगी, तुम्हारी यह मुस्कुराहट
आकर्षित करती है,
पर
सजना-संवरना भी सीख ले,
यहां भी होना दक्ष है।
लिखने को तो बहुत कुछ है,
पर कलम रोकती है,
चुप कर ,
यहां बहुत बड़ा विपक्ष है।
जीते जी मूर्तियों पर हार
बाज़ार में बिक रहे हैं
कीर्ति-ध्वज, यश-पताकाएं,
जितनी चाहें
घर में लाकर सजा लें,
कुछ दीवारों पर टांगे,
कुछ गले में लटका लें,
नामपट्ट बन जायेंगे,
मूर्तियों पर हार चढ़ जायेंगे ।
द्वार पर मढ़ जायेंगे ।
पुस्तकों पर नाम छप जायेंगे ।
हार चढ़ जायेंगे ।
बस झुक कर
कुछ चरण-पादुकाओं को
छूना होगा,
कुछ खर्चा-पानी करना होगा,
फिर देखिए
कैसे जीते-जी ही
मूर्तियों पर हार चढ़ जायेंगे ।
प्रेम की नवीन परिभाषा और कृष्ण
कभी सोचा नहीं मैंने
इस तरह तुम्हारे लिए।
ऐसा तो नहीं कि प्रेम-भाव,
श्रृंगार भाव नहीं मेरे मन में।
किन्तु तुम्हारी प्रेम-कथाओं का
युगों-युगों से
इतना पिष्ट-पेषण हुआ
कि भाव ही निष्ठुर हो गये।
स्त्रियां ही नहीं
पुरुष भी राधे-राधे बनकर
तुम्हारे प्रेम में वियोगी हो गये।
निःसंदेह, सौन्दर्य के रूप हो तुम।
तुम्हारी श्याम आभा,
मोर पंख के साथ
मन मोह ले जाती है।
राधा के साथ
तुम्हारा प्रेम, नेह,
यमुना के नील जल में
गोपियों के संग रास-लीला,
आह ! मन बहक-बहक जाता है।
लेकिन, इस युग में
ढूंढती हूं तुम्हारा वह रूप,
अपने-परायों को
जीना सिखलाता था।
प्रेम की एक नवीन परिभाषा पढ़ाता था।
सत्य-असत्य को परिभाषित करता था,
अपराधी को दण्डित करता था,
करता था न्याय, बेधड़क।
चक्र घूमता था उसका,
उसकी एक अंगुली से परिभाषित
होता था यह जगत।
हर युग में रूप बदलकर
प्रेम की नवीन परिभाषा सिखाते थे तुम।
इस काल में कब आओगे,
आंखें बिछाये बैठे हैं हम।
विज्ञापन
शहर के बीचों बीच,
चौराहे पर,
हनुमान जी की मूर्ति
खड़ी थी।
गदा
ज़मीन पर टिकाये।
दूसरा हाथ
तथास्तु की मुद्रा में।
साथ की दीवार लिखा था,
गुप्त रोगी मिलें,
हर मंगलवार,
बजरंगी औषधालय,
गली संकटमोचन,ऋषिकेश।
दुनिया मेरी मुट्ठी में
बहुत बड़ा है जगत,
फिर भी कुछ सीढ़ियां चढ़कर
एक गुरूर में
अक्सर कह बैठते हैं हम
दुनिया मेरी मुट्ठी में।
सम्बन्ध रिस रहे हैं,
भाव बिखर रहे हैं,
सांसे थम रही हैं,
दूरियां बढ़ रही हैं।
अक्सर विपदाओं में
साथ खड़े होते हैं,
किन्तु यहां सब मुंह फेर पड़े हैं।
सच कहें तो लगता है,
न तेरे वश में, न मेरे वश में,
समझ से बाहर की बात हो गई है।
समय पर चेतते नहीं।
अब हाथ जोड़ें,
या प्रार्थनाएं करें,
बस देखते रहने भर की बात हो गई है।
ताउते एवं यास तूफ़ान के दृष्टिगत रचना
अपनी सीमाओं का
अतिक्रमण करते हुए
लहरें आज शहरों में प्रवेश कर गईं।
उठते बवंडर ने
सागर में कश्तियों से
अपनी नाराज़गी जताई।
हवाओं की गति ने
सब उलट-पलट दिया।
घटाएं यूं घिरीं, बरस रहीं
मानों कोई आतप दिया।
प्रकृति के सौन्दर्य से
मोहित इंसान
इस रौद्र रूप के सामने
बौना दिखाई दिया।
प्रकृति संकेत देती है,
आदेश देती है, निर्देश देती है।
अक्सर
सम्हलने का समय भी देती है।
किन्तु हम
सदा की तरह
आग लगने पर
कुंआ खोदने निकलते हैं।
मौत की दस्तक
कितनी
सरल-सहज लगती थी ज़िन्दगी।
खुली हवाओं में सांस लेते,
जैसी भी मिली है
जी रहे थे ज़िन्दगी।
कभी ठहरी-सी,
कभी मदमाती, हंसाती,
छूकर, मस्ती में बहती,
कभी रुलाती,
हवाओं संग
लहराती, गाती, मुस्काती।
.
पर इधर
सांसें थमने लगी हैं।
हवाओं की
कीमत लगने लगी है।
आज हवाओं ने
सांसों की कीमत बताई है।
जिन्दगी पर
पहरा बैठा दिया है हवाओं ने।
मौत की दस्तक सुनाने लगी हैं।
रुकती हैं सांसें, बिंधती हैं सांसें,
कीमत मांगती हैं सांसें।
अपनों की सांसें चलाने के लिए
हवाओं से जूझ रहे हैं अपने।
.
शायद हम ही
बदलती हवाओं का रुख
पहचान नहीं पाये,
इसीलिए हवाएं
आज
हमारी परीक्षा ले रही हैं।
युग प्रदर्शन का है
मैं आज तक
समझ नहीं पाई
कि मोर शहर में
क्यों नहीं नाचते।
जंगल में नाचते हैं
जहां कोई देखता नहीं।
सुना है
मोरनी को लुभाने के लिए
नृत्य करते हो तुम।
बादल-वर्षा की आहट से
इंसान का मन-मयूर नाच उठता है,
तो तुम्हारी तो बात ही क्या।
तुम्हारी पायल से मुग्ध यह संसार
वन-वन ढूंढता है तुम्हें।
अद्भुत सौन्दर्य का रूप हो तुम।
रंगों की निराली छटा
मनमोहक रूप हो तुम।
पर कहां
जंगल में छिपे बैठे तुम।
कृष्ण अपने मुकुट में
पंख तुम्हारा सजाये बैठे हैं,
और तुम वहां वन में
अपना सौन्दर्य छिपाये बैठे हो।
युग प्रदर्शन का है,
दिखावे और चढ़ावे का है,
काक और उलूव
मंचों पर कूकते हैं यहां,
गर्धभ और सियार
शहरों में घूमते हैं यहां।
मांग बड़ी है।
एक बार तो आओ,
एक सिंहासन तुम्हें भी
दिलवा देंगे।
राष्ट््र पक्षी तो हो
दो-चार पद और दिलवा देंगे।
बांसुरी छोड़ो आंखें खोलो
बांसुरी छोड़ो, आंखें खोलो,
ज़रा मेरी सुनो।
कितने ही युगों में
नये से नये अवतार लेकर
तुमने
दुष्टों का संहार किया,
विश्व का कल्याण किया।
और अब इस युग में
राधा-संग
आंख मूंदकर निश्चिंत बैठे हो,
मानों सतयुग हो, द्वापर युग हो
या हो राम-राज्य।
-
अथवा मैं यह मान लूं,
कि तुम
साहस छोड़ बैठे हो,
आंख खोलने का।
क्योंकि तुम्हारे प्रत्येक युग के दुष्ट
रूप बदलकर,
इस युग में संगठित होकर,
तुमसे पहले ही अवतरित हो चुके हैं,
नाम-ग्राम-पहचान सब बदल चुके हैं,
निडर।
क्योंकि वे जानते हैं,
तुम्हारे आयुध पुराने हो चुके हैं,
तुम्हारी सारी नीतियां,
बीते युगों की बात हो चुकी हैं,
और कोई अर्जुन, भीम नहीं हैं यहां।
अत: ज़रा संम्हलकर उठना।
वे राह देख रहे हैं तुम्हारी
दो-दो हाथ करने के लिए।
एक आदमी मरा
एक आदमी मरा।
अक्सर एक आदमी मरता है।
जब तक वह जिंदा था
वह बहुत कुछ था।
उसके बार में बहुत सारे लोग
बहुत-सी बातें जानते थे।
वह समझदार, उत्तरदायी
प्यारा इंसान था।
उसके फूल-से कोमल दो बच्चे थे।
या फिर वह शराबी, आवारा बदमाश था।
पत्नी को पीटता था।
उसकी कमाई पर ऐश करता था।
बच्चे पैदा करता था।
पर बच्चों के दायित्व के नाम पर
उन्हें हरामी के पिल्ले कहता था।
वह आदमी एक औरत का पति था।
वह औरत रोज़ उसके लिए रोटी बनाती थीं,
उसका बिस्तर बिछाती थी,
और बिछ जाती थी।
उस आदमी के मरने पर
पांच सौ आदमी
उसकी लाश के आस-पास एकत्र थे।
वे सब थे, जो उसके बारे में
कुछ भी जानते थे।
वे सब भी थे
जो उसके बारे में तो नहीं जानते थे
किन्तु उसकी पत्नी और बच्चों के बारे
में कुछ जानते थे।
कुछ ऐसे भी थे जो कुछ भी नहीं जानते थे
लेकिन फिर भी वहां थे।
उन पांच सौ लोगों में
एक भी ऐसा आदमी नहीं था,
जिसे उसके मरने का
अफ़सोस न हो रहा हो।
लेकिन अफ़सोस का कारण
कोई नहीं बता पा रहा था।
अब उसकी लाश ले जाने का
समय आ गया था।
पांच सौ आदमी छंटने लगे थे।
श्मशान घाट तक पहुंचते-पहुंचते
बस कुछ ही लोग बचे थे।
लाश जल रही थी,भीड़ छंट रही थी ।
एक आदमी मरा। एक औरत बची।
पता नहीं वह कैसी औरत थी।
अच्छी थी या बुरी
गुणी थी या कुलच्छनी।
पर एक औरत बची।
एक आदमी से
पहचानी जाने वाली औरत।
अच्छे या बुरे आदमी की एक औरत।
दो अच्छे बच्चों की
या फिर हरामी पिल्लों की मां।
अभी तक उस औरत के पास
एक आदमी का नाम था।
वह कौन था, क्या था,
अच्छा था या बुरा,
इससे किसी को क्या लेना।
बस हर औरत के पीछे
एक अदद आदमी का नाम होने से ही
कोई भी औरत
एक औेरत हो जाती है।
और आदमी के मरते ही
औरत औरत न रहकर
पता नहीं क्या-क्या बन जाती है।
-
अब उस औरत को
एक नया आदमी मिला।
क्या फर्क पड़ता है कि वह
चालीस साल का है
अथवा चार साल का।
आदमी तो आदमी ही होता है।
उस दिन हज़ार से भी ज़्यादा
आदमी एकत्र थे।
एक चार साल के आदमी को
पगड़ी पहना दी गई।
सत्ता दी गई उस आदमी की
जो मरा था।
अब वह उस मरे हुए आदमी का
उत्तरााधिकारी था ,
और उस औरत का भी।
उस नये आदमी की सत्ता की सुरक्षा के लिए
औरत का रंगीन दुपट्टा
और कांच की चूड़ियां उतार दी गईं।
-
एक आदमी मरा।
-
नहीं ! एक औरत मरी।
पोखर भैया ताल-तलैया
ताल-तलैया, पोखर भैया,
मैं क्या जानू्ं
क्या होते सरोवर मैया।
बस नाम सुना है
न देखें हमने भैया।
गड्ढे देखे, नाले देखे,
सड़कों पर बहते परनाले देखे,
छप-छपाछप गाड़ी देखी।
सड़कों पर आबादी देखी।
-
जब-जब झड़ी लगे,
डाली-डाली बहके।
कुहुक-कुहुक बोले चिरैया ।
रंग निखरें मन महके।
मस्त समां है,
पर लोगन को लगता डर है भैया।
सड़कों पर होगा
पोखर भैया, ताल-तलैया
हमने बोला मैया,
अब तो हम भी देखेंगे ,
कैसे होते हैं ताल-तलैया,
और सरोवर, पोखर भैया ।
ऐसा नहीं होता मेरे मालिक
कर्म न करना,
परिश्रम न करना,
धर्म न निभाना
बस राम-नाम जपना।
.
आंखें बन्द कर लेने से
बिल्ली नहीं भाग जाती।
राम-नाम जपने से
समस्या हल नहीं हो जाती।
.
कुछ चरित्र हमें राह दिखाते हैं।
सन्मार्ग पर चलाते हैं।
किन्तु उनका नाम लेकर
हाथ पर हाथ धरे
बैठने को नहीं कहते हैं।
.
बुद्धि दी, समझ दी,
दी हमें निर्माण-विध्वंस की शक्ति।
दुरुपयोग-सदुपयोग हमारे हाथ में था।
.
भूलें करें हम,
उलट-पुलट करें हम,
और जब हाथ से बाहर की बात हो,
तो हे राम ! हे राम!
.
ऐसा नहीं होता मेरे मालिक।
कृष्ण की पुकार
न कर वन्दन मेंरा
न कर चन्दन मेरा
अपने भीतर खोज
देख क्रंदन मेरा।
हर युग में
हर मानव के भीतर जन्मा हूं।
न महाभारत रचा
न गीता पढ़ी मैंने
सब तेरे ही भीतर हैं
तू ही रचता है।
ग्वाल-बाल, गैया-मैया, रास-रचैया
तेरी अभिलाषाएं
नाम मेरे मढ़ता है।
बस राह दिखाई थी मैंने
न आयुध बांटे
न चक्रव्यूह रचे मैंने
लाक्षाग्रह, चीर-वीर,
भीष्म-प्रतिज्ञाएं
सब तू ही करता है
और अपराध छुपाने को अपना
नाम मेरा रटता है।
पर इस धोखे में मत रहना
तेरी यह चतुराई
कभी तुझे बचा पायेगी।
कुरूक्षेत्र अभी लाशों से पटा पड़ा है
देख ज़रा जाकर
तू भी वहीं कहीं पड़ा है।
कृष्ण ने किया था शंखनाद
महाभारत की कथा
पढ़कर ज्ञात हुआ था,
शंखनाद से कृष्ण ने किया था
एक ऐसे युद्ध का उद्घोष,
जिसमें करोड़ों लोग मरे थे,
एक पूरा युग उजड़ गया था।
अपनों ने अपनों को मारा था,
उजाड़े थे अपने ही घर,
लालसा, मोह, घृणा, द्वेष, षड्यन्त्र,
चाहत थी एक राजसत्ता की।
पूरी कथा
बार-बार पढ़ने के बाद भी
कभी समझ नहीं पाई
कि इस शंखनाद से
किसे क्या उपलब्धि हुई।
-
यह भी पढ़ा है,
कि शंखनाद की ध्वनि से,
ऐसे अदृश्य
जीवाणु भी नष्ट हो जाते हैं
जो यूं
कभी नष्ट नहीं किये जा सकते।
इसी कारण
मृत देह के साथ भी
किया जाता है शंखनाद।
-
शुभ अवसर पर भी
होता है शंखनाद
क्योंकि
जीवाणु तो
हर जगह पाये जाते हैं।
फिर यह तो
काल की गति बताती है,
कि वह शुभ रहा अथवा अशुभ।
-
एक शंखनाद
हमारे भीतर भी होता है।
नहीं सुनते हम उसकी ध्वनियां।
एक आर्तनाद गूंजता है और
बढ़ते हैं एक नये महाभारत की ओेर।
लीक पीटना छोड़ दें
युग बदलते हैं भाव कहां बदलते हैं।
राम-रावण तो हर युग में पनपते हैं।
कथाओं को घोट-घोट कर पी रहे हम]
लीक पीटना छोड़ दें तब जीवन संवरते हैं।
गूगल गुरू घंटाल
कम्प्यूटर जी गुरू हो गये, गूगल गुरू घंटाल
छात्र हो गये हाई टैक, गुरू बैठै हाल-बेहाल
नमन करें या क्लिक करें, समझ से बाहर बात
स्मार्ट बोर्ड, टैबलैट,पी सी, ई पुस्तक में उलझे
अपना ज्ञान भूलकर, घूम रहे, ले कंधे बेताल
आॅन-लाईन शिक्षा बनी यहाँ जी का जंजाल
लैपटाॅप खरीदे नये-नये, मोबाईल एंड््रायड्
गूगल बिन ज्ञान अधूरा यह ले अब तू जान
गुरुओं ने लिंक दिये, नैट ने ले लिए प्राण
रोज़-रोज़ चार्ज कराओ, बिल ने ले ली जान
किसकी टोपी किसका सिर
बचपन में कथा पढ़ी है,
टोपी वाला टोपी बेचे,
पेड़ के नीचे सो जाये।
बन्दर उसकी टोपी ले गये,
पेड़ पर बैठे उसे चिड़ायें।
टोपी पहने भागे जायें।
बन्दर थे पर नकल उतारें।
टोपी वाले ने आजमाया
अपनी टोपी फेंक दिखलाया।
बन्दरों ने भी टोपी फेंकी,
टोपी वाला ले उठाये।
.
हर पांच साल में आती हैं,
टोपी पहनाकर जाती हैं।
समझ आये तो ठीक
नहीं तो जाकर माथा पीट।
नेताजी का आसन
नेताजी ने कुर्सी त्याग दी
और भूमि पर आसन बिछाकर बैठ गये।
हमने पूछा, ऐसा क्यों किया आपने।
वैसे तो हमें पता है,
कि आपकी औकात ज़मीन की ही है,
किन्तु
कुर्सी त्यागना तो बहुत महानता की बात है,
कैसे किया आपने यह साहस।
नेताजी मुस्कुराये, बोले,
क्या तुम्हें भी बताना पड़ेगा,
कि कुर्सी की चार टांगे होती हैं
और इंसान की दो।
कोई भी, कभी भी पकड़कर
कोई-सी भी टांग खींच देता था।
अब हम भूमि पर, आसन जमाकर
पालथी मारकर बैठ गये हैं,
कोई दिखाये हमारी टांग खींचकर।
समझदारी की बात यह
कि कुर्सी के पीछे
तो लोग भागते-छीनते दिखाई देते हैं,
कभी आपने देखा है किसी को
आसन छीनते।
अब गांधी जी भी तो
भूमि पर आसन जमाकर ही बैठते थे,
कोई चला उनकी राह पर
आज तक मांगा उनका आसन किसी ने क्या।
नहीं न !
अब मैं नेताजी को क्या समझाती,
गांधी जी का आसन तो उनके साथ ही चला गया।
और नेताजी आपका आसन ,
आधुनिक भारतीय राजनीति का आसन है,
आप पालथी मारे यूं ही बैठे रह जायेंगे,
और जनता कब आपके नीचे से
आपका आसन खींचकर चलती बनेगी,
आपको पता भी नहीं चलेगा।
सरकारी कुर्सी
आज मैं
कुर्सी लेने बाज़ार गई।
विक्रेता से कुर्सी दिखाने के लिए कहा।
वह बोला,
कैसी कुर्सी चाहिए आपको ?
मेरा सीधा-सा उत्तर था ।
सुविधाजनक,
जिस पर बैठकर काम किया जा सके
जैसी कि सरकारी कार्यालयों में होती है।
उसके चेहरे पर कुटिल मुस्कुराहट आ गई
तो ऐसे बोलिए न मैडम
आप घर में सरकारी कुर्सी जैसी
कुर्सी चाहती है।
लगता है किसी सरकारी दफ़्तर से
सेवानिवृत्त होकर आई हैं
इशारों में ही बात हो गई
मेरे हाथ आज लगे
जिन्न और चिराग।
पूछा मैंने
क्या करोगे तुम मेरे
सारे काम-काज।
बोले, खोपड़ी तेरी
क्या घूम गई है
जो हमसे करते बात।
ज्ञात हो चुकी हमको
तुम्हारी सारी घात।
बहुत कर चुके रगड़ाई हमारी।
बहुत लगाये ढक्कन।
किन्तु अब हम
बुद्धिमान हो गये।
बोतल बड़ी-बड़ी हो गई,
लेन-देन की बात हो गई,
न रगड़ाई और न ढक्कन।
बस देता जा और लेता जा।
लाता जा और पाता जा।
भर दे बोतल, काम करा ले।
काम करा ले बोतल भर दे।
इशारों में ही बात हो गई
समझ आ गई तो ठीक
नहीं आई तो
जाकर अपना माथा पीट।