कहते हैं हाथ की है मैल रूपया
जब से आया बजट है भैया, अपनी हो गई ता-ता थैया
जब से सुना बजट है वैरागी होने को मन करता है भैया
मेरा पैसा मुझसे छीनें, ये कैसी सरकार है भैया
देखो-देखो टैक्स बरसते, छाता कहां से लाउं मैया
कहते हैं हाथ की है मैल रूपया, थोड़ी मुझको देना भैया
छल है, मोह-माया है, चाह नहीं, कहने की ही बातें भैया
टैक्स भरो, टैक्स भरो, सुनते-सुनते नींद हमारी टूट गई
मुट्ठी से रिसता है धन, गुल्लक मेरी टूट गई
जब से सुना बजट है भैया, मोह-माया सब छूट गई
सिक्के सारे खन-खन गिरते किसने लूटे पता नहीं
मेरी पूंजी किसने लूटी, कैसे लूटी मुझको यह तो पता नहीं
किसकी जेबें भर गईं, किसकी कट गईं, कोई न जानें भैया
इससे बेहतर योग चला लें, चल मुफ्त की रोटी खाएं भैया
आतंक मन के भीतर पसरा है
शांत है मेरा शहर फिर भी देखो डरे हुए हैं हम
न चोरी न डाका फिर भी ताले जड़े हुए हैं हम
बाहर है सन्नाटा, आतंक मन के भीतर पसरा है
बेवजह डर डर कर जीना सीखकर बड़े हुए हैं हम
कर्म-काण्ड छोड़कर, बस कर्म करो
राधा बोली कृष्ण से, चल श्याम वन में, रासलीला के लिए।
कृष्ण हतप्रभ, बोले गीता में दिया था संदेश हर युग के लिए।
बहुत अवतार लिए, युद्ध लड़े, उपदेश दिये तुम्हें हे मानव!
कर्म-काण्ड छोड़कर, बस कर्म करो मेरी आराधना के लिए ।
आवश्यकता है होश दिवस की
१६ अक्टूबर को 'एनेस्थीसिया डे' अर्थात् 'मूर्छा दिवस' होता है
प्रेरित होकर प्रस्तुति
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कोई होश दिवस मनाए
हम सबको होश में लाये
जो हो रहा है
उसकी जांच परख करवाए।
यहां सब सो रहे हैं
किसका धन है काला
किसका है सफ़ेद
कौन हमें बतलाए।
कुछ दुकानें बन्द हो रहीं
कुछ की दीवाली सज रही
इधर बार-बार बाढ़
आ रही
और दुनिया है कि
पानी को तरस रही
कौन बतलाए
कोई होश दिवस मनाएं
हम सबको होश में लाये।
बैंक डूब रहे
निकासी बन्द हो रही
सुनते हैं कुछ मंदी है
पर सरकार कहे सब चंगी है
सच को कौन हमें समझाए
कोई होश दिवस मनाए
हम सबको होश में लाये
जो हो रहा है
उसकी जांच परख करवाए।
कैसे जीते-जी अमर होते है
सरकार से सीखो कुछ, पांच साल कैसे सोते हैं
सरकार से सीखो कुछ, झूठे वादे कैसे होते हैं
हमारी ज़िन्दगी कोई पांच साला सरकार नहीं है
फिर भी सरकार से सीखो कैसे जीते-जी अमर होते है।
पूछती है मुझसे मेरी कलम
राष्ट्र भक्ति के गीत लिखने के लिए कलम उठाती हूं जब जब
पूछती है मुझसे मेरी कलम, देश हित में तूने क्या किया अब तक
भ्रष्ट्राचार, झूठ, रिश्वतखोरी,अनैतकिता के विरूद्ध क्या लड़ी कभी
गीत लिखकर महान बनने की कोशिश करोगे कवि तुम कब तक
बासी रोटी-से तिरछे ऐंठे हैं
प्रेम-प्यार की बातें करते, मन में गांठें बांधे बैठे हैं
चेहरा देखो तो इनका, बासी रोटी-से तिरछे ऐंठे हैं
झूठे वादे टप-टप गिरते, गठरी देखो खुली पड़ी
दिखते प्यारे, हमसे पूछो, अन्दर से कितने कैंठे हैं।
यात्रा
अस्पलात से श्मशान घाट तक
अर्थी को कंधे पर उठाये
थक रहे थे चार आदमी।
एक लाश थी
और चार आदमी।
अस्पलात से श्मशान घाट दूर था।
वैसे तो मिल जाती
अस्पताल की गाड़ी
अस्पलात से श्मशान घाट।
पर कंधों पर ढोकर
इज़्जत दी जाती है आदमी को
मरने के बाद की।
और वे चार आदमी
उसे इज़्जत दे रहे थे।
और इस इज़्जत के घेरे में
रास्ते में
अर्थी ज़मीन पर रखकर
सुस्ताना मना था।
पर वह आदमी
जो मर चुका था
मरने के बाद की स्थिति में
लाश।
उसे दया आई
उन चारों पर।
बोली
भाईयो,
थक गये हो तो सुस्ता लो ज़रा
मैं अपने आपको
बेइज़्जत नहीं मानूंगी।
चारों ने सोचा
लाश की यह अन्तिम इच्छा है
जलने से पहले।
इसकी यह इच्छा
ज़रूर पूरी करनी चाहिए।
और वे चारों
उस मोड़ पर
छायादार वृक्ष के नीचे
अर्थी ज़मीन पर रखकर
आराम फ़रमाने लगे।
अचानक
लाश उठ बैठी।
बोली,
मैं लेटे लेटे थक गई हूं।
बैठकर ज़रा कमर सीधी कर लूं।
तुम चाहो तो लेटकर
कमर सीधी कर लो।
मैं कहां भागी जा रही हूं
लाश ही तो हूं।
और वे चारों आदमी लेट गये
और लाश रखवाली करने लगी।
वे चारों
आज तक सो रहे हैं
और लाश
रखवाली कर रही है।
समझा रहे हैं राजाजी
वीरता दिखा रहे मंच पर आज राजाजी
हाथ उठा अपना ही गुणगान कर रहे हैं राजाजी
धर्म-कर्म, जाति-पाति के नाम पर ‘मत’ देना
बस इतना ही तो समझा रहे हैं राजाजी।
बहुत हो गई यहां सबकी जी हुज़ूरी
अब तो मन कठोर करना ही पड़ेगा
जैसे तुम हो वैसा बनना ही पड़ेगा
बहुत हो गई यहां सबकी जी हुज़ूरी
सब छोड़कर आगे बढ़ना ही पड़ेगा
पुरानी रचनाओं का करें पिष्ट-पेषण
पुरानी रचनाओं का कब तक करें पिष्ट-पेषण सुहाता नहीं
रोज़ नया क्या लिखें हमें तो समझ कुछ अब आता नहीं
कवियों की नित-नयी रचनाएं पढ़-पढ़कर मन कुढ़ता है
लेखनी न चले तो अपने पर ही दया का भाव भाता नहीं
और हम हार लिए खड़े हैं
पाप का घड़ा
अब फूटता
नहीं।
जब भराव होता है
तब रिसाव होता है
बनते हैं बुत
कुर्सियों पर जमते हैं।
परत दर परत
सोने चांदी के वर्क
समाज, परिवार,धर्म, राजनीति
सब कहीं जमाव होता है।
फिर भराव होता है
फिर रिसाव होता है
फिर बनते हैं बुत
और हम हार लिए खड़े हैं.........
साक्षरता अभियान से लौटती औरतें
लौट रहीं थीं
वे अपने दड़बों में
सिर से पैर तक औरतें।
उनकी मांग में
लाल घना सिंदूर था
एक बड़ी सी
शुद्ध सोने की टिकुली
माथे पर टीका।
बाल गुंथे हुए लाल परांदे में।
नाक में नथनी। कान में झुमके।
गले में हार मालाएं।
कलाईयों पर रंग बिरंगी चूड़ियां।
पैरों में पायल, बिछुए।
और कई कुछ।
कहीं कुछ छूटा नहीं
जो यह न बता सके
कि वे सब, औरतें हैं बस औरतें।
इन सबके उपर
एक लम्बी सी ओढ़नी
जिसमें पीठ पर बंधे
दो एक बच्चे
और एक घूंघट
उनके अस्तित्व को नकारता।
इन सबके बीच
मुट्ठी के किसी कोने में
एक प्रमाणपत्र भी था
“अ” से “ज्ञ” तक
जिससे बच्चे खेल रहे थे।
आज जब सच कहने की बात हुई
आज जब
सच कहने की बात हुई
तो अचानक एक शोर उठ खड़ा हुआ।
लोगों के चेहरे क्रोध से तमतमाने लगे।
तरह तरह की बातें होने लगीं।
मेरे व्यक्तित्व पर उंगलियां उठने लगीं।
लोग
मेरे चारों ओर लामबन्द होने लगे।
इधर उधर देखा
तो न जाने कौन-कौन
मेरे पास आ गये।
उनके हाथों में झण्डे थे और तख्तियां थीं
उन पर
सच बोलने के वादे थे, और इरादे थे।
कुछ नारे थे
और मेरे लिए कुछ इशारे थे।
अरे ! तुम तो
ज़रा सी बात पर यूं ही
भावुक हो जाती हो
कि ज़रा सा किसी ने उकसाया नहीं
कि सच बोलने पर उतारू हो जाती हो।
मेरे हाथ में उन्होंने
एक पूरी सूची थमा दी।
हर युग में झूठ की ही तो
सदा जीत होती रही है।
और यह तो
वैसे भी कलियुग है।
नारों में जिओ, वादों में जिओ
धोखे में जिओ, झूठ को पियो।
फिर अचानक भीड़ बढ़ गई।
मानों कोई मेला लगा हो।
लोग वैसे ही आनन्दित हो रहे थे
मानों रावण दहन चल रहा हो।
सुना होगा आपने
कि रावण-दहन की लकड़ियां
घर में रखने से खुशहाली होती है
और बुरी बलाएं भाग जाती हैं।
और तभी मेरी देह के टुकड़े-टुकड़े होकर
हवा में उड़ने लगे
लोग भागने लगे।
जिसके हाथ जो लगा, ले गये।
घर में रखेंगे इन अवशेषों को।
दरवाज़े के बाहर टांगेगे
नजरबट्टू बनाकर।
बताएंगे अगली पीढ़ी को
हमारे ज़माने में
ऐसे भी लोग हुआ करते थे।
और शायद एक समय बाद
लाखों करोड़ों कीमत भी मिल जाये
एक पुरातन संग्रहीत वस्तु के रूप में।
ठकोसले बहुत हैं
न मन थका-हारा, न तन थका-हारा
किसी झूठ, किसी सच में फंसा बेचारा
यहां दुनियादारी के ठकोसले बहुत हैं
किस-किससे निपटे, बुरा फंसा बेचारा
पर मूर्ख बहुत था रावण
कहते हैं दुराचारी था, अहंकारी था, पर मूर्ख बहुत था रावण
बहन के मान के लिए उसने दांव पर लगाया था सिंहासन
जानता था जीत नहीं पाउंगा, पर बहन का मान रखना था उसे
अपने ही कपटी थे, जानकर भी, दांव पर लगाया था सिंहासन
मेरे देश को रावणों की ज़रूरत है
मेरे देश को रावणों की ज़रूरत है।
चौराहे पर रीता, बैठक में मीता
दफ्तर में नीता, मन्दिर में गीता
वन वन सीता,
कहती है
रावण आओ, मुझे बचाओ
अपहरण कर लो मेरा
अशोक वाटिका बनवाओ।
ऋषि मुनियों की, विद्वानों की
बलशाली बाहुबलियों की
पितृभक्तों-मातृभक्तों की
सत्यवादी, मर्यादावादी, वचनबद्धों की
अगणित गाथाएं हैं।
वेद-ज्ञाता, जन-जन के हितकारी
धर्मों के नायक और गायक
भीष्म प्रतिज्ञाधारी, राजाज्ञा के अनुचारी
धर्मों के गायक और नायक
वचनों से भारी।
कर्म बड़े हैं, धर्म बड़े हैं
नियम बड़े हैं, कर्म बड़े हैं।
नाक काट लो, देह बांट लो
संदेह करो और त्याग करो।
वस्त्र उतार लो, वस्त्र चढ़ा दो।
श्रापित कर दो, शिला बना दो।
मुक्ति दिला दो। परीक्षा ले लो।
कथा बना लो।चरित्र गिरा दो।
देवी बना दो, पूजा कर लो
विसर्जित कर दो।
हरम सजा लो, भोग लगा लो।
नाच नचा लो, दुकान सजा लो।
भाव लगा लो। बेचो-बेचो और खरीदो।
बलात् बिठा लो, बलात् भगा लो।
मूर्ख बहुत था रावण।
जीत चुका था जीवन ,हार चुकी थी मौत।
विश्व-विजेता, ज्ञानी-ध्यानी
ऋद्धि-सिद्धि का स्वामी।
न चेहरा देखा, न स्पर्श किया।
पत्नी बना लूं, हरम सजा लूं
दासी बना लूं
बिना स्वीकृति कैसे छू लूं
सोचा करता था रावण।
मूर्ख बहुत था रावण।
सुरक्षा दी, सुविधाएं दी
इच्छा पूछी, विनम्र बना था रावण।
दूर दूर रहता था रावण।
मूर्ख बहुत था रावण।
धर्म-विरोधी, काण्ड-विरोधी
निर्मम, निर्दयी, हत्यारा,
असुर बुद्धि था रावण।
पर औरत को औरत माना
मूर्ख बहुत था रावण।
अपमान हुआ था एक बहन का
था लगाया दांव पर सिहांसन।
राजा था, बलशाली था
पर याचक बन बैठा था रावण
मूर्ख बहुत था रावण।
किसके हाथ में डोर है
नगर नगर में शोर है यहां गली-गली में चोर है
मुंह ढककर बैठे हैं सारे, देखो अन्याय यह घोर है
समझौते की बात हुई, कोई किसी का नाम न ले
धरने पर बैठै हैं सारे, ढूंढों किसके हाथ में डोर है
मानव का बन्दरपना
बहुत सुना और पढ़ा है मैंने
मानव के पूर्वज
बन्दर हुआ करते थे।
अब क्या बताएं आपको,
यह भी पढ़ा है मैंने,
कि कुछ भी कर लें
आनुवंशिक गुण तो
रह ही जाते हैं।
वैसे तो बहुत बदल लिया
हमने अपने-आपको,
बहुत विकास कर लिया,
पर कभी-कभी
बन्दरपना आ ही जाता है।
ताड़ते रहते हैं हम
किसके पेड़ पर ज़्यादा फ़ल लगे हैं,
किसके घर के दरवाजे़ खुले हैं,
बात ज़रूरत की नहीa]
आदत की है,
बस लूटने चले हैं।
कहलाते तो मानव हैं
लेकिन जंगलीपन में मज़ा आता है
दूसरों को नोचकर खाने में
अपने पूर्वजों को भी मात देते हैं।
बेचारे बन्दरों को तो यूं ही
नकलची कहा जाता है,
मानव को औरों के काम
अपने नाम हथियाने में
ज़्यादा मज़ा आता है।
कहने को तो आज
आदमी बन्दर को डमरु पर नचाता है,
पर अपना नाच कहां देख पाता है।
बन्दर तो आज भी बन्दर है
और अपने बन्दरपने में मस्त है
लेकिन मानव
न बना मानव , न छोड़ पाया
बन्दरपना
बस एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर
कूदता-फांदता दिखाई देता है।
विरोध के स्वर
आंख मूंद कर बैठे हैं, न सुनते हैं न गुनते हैं
सुनी-सुनाई बातों का ही पिष्ट पेषण करते हैं
दूर बैठै, नहीं जानते, कहां क्या घटा, क्यों घटा
विरोध के स्वर को आज हम देश-द्रोह मान बैठे हैं
न आंख मूंद समर्थन कर
न आंख मूंद समर्थन कर किसी का, बुद्धि के दरवाज़े खोल,
अंध-भक्ति से हटकर, सोच-समझकर, मोल-तोलकर बोल,
कभी-कभी सूरज को भी दीपक की रोशनी दिखानी पड़ती है,
चेत ले आज, नहीं तो सोचेगा क्यों नहीं मैंने बोले निडर सच्चे बोल