ज़्यादा मत उड़

कौन सी वास्तविकता है

और कौन सा छल,

अक्सर असमंजस में रह जाती हूं।

रोज़ हर रोज़

समाचारों में गूंजती हैं आवाजे़ं

देखो हमने

नारी को

कहां से कहां पहुंचा दिया।

किसी ने चूल्हा बांटा ,

किसी ने गैस,

किसी की सब्सिडी छीनी        

तो किसी की आस।

नौकरियां बांट रहे।

घर संवार रहे।

मौज करवा रहे।

स्टेटस दिलवा रहे।

कभी चांद पर खड़ी दिखी।

कभी मंच पर अड़ी दिखी।

आधुनिकता की सीढ़ी पर

आगे और आगे बढ़ी।

अपना यह चित्र देख अघाती नहीं।

अंधविश्वासों    ,

कुरीतियों का विरोध कर

मदमाती रही।

प्रंशसा के अंबार लगने लगे।

तुम्हारे नाम के कसीदे

बनने लगे।

साथ ही सब कहने लगे

ऐसी औरतें घर-बार की रहती नहीं

पर तुम अड़ी रही

ज़रा भी डिगी नहीं।

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ज़्यादा मत उड़ ।

कहीं भी हो आओ

लौटकर यहीं,

यही चूल्हा-चौका करना है।

परम्पराओं के नाम पर

घूंघट की ओट में जीना है।

और ऐसे ही मरना है।।।