जिन्दगी की आग में सिंकी मां
बहुत याद आती हैं
मां के हाथ की वो दो सूखी रोटियां
आम की फांक के साथ
अखबार के पन्ने में लपेटकर दिया करती थी
स्कूल के लिए।
और उन दो सूखी रोटियों की ताकत से
हम दिन भर मस्त रहते थे।
आम की फांक को तब तक चूसते थे
जब तक उसकी जान नहीं निकल जाती थी।
चूल्हे की आग में तपी रोटियां
एक बेनामी सी दाल-सब्जी
अजब-गजब स्वाद वाली
कटोरियां भर-भर पी जाते थे
आग में भुने आलू-कचालू
नमक के साथ निगल जाते थे।
चूल्हे को घेरकर बैठे
बतियाते, हंसते, लड़ते,
झीना-झपटी करते।
अपनी थाली से ज्यादा स्वाद
दूसरे की थाली में आता था।
रात की बची रोटियों का करारापन
चाय के प्याले के साथ।
और तड़का भात नाश्ते में
खट्टी-मीठी चटनियां
गुड़-शक्कर का मीठा
चूरी के साथ खा जाते थे पूरी रोटी।
जिन्दगी की आग में सिंकी मां,
और उसके हाथ की बनी रोटियों से मिली
संघर्ष की पौष्टिकता
आज भी भीतर ज्वलन्त है।
छप्पन भोग बनाने-खाने के बाद भी
तरसती हूं इस स्वाद के लिए।
बनाने की कोशिश करती हूं
पर वह स्वाद तो मां के साथ चला गया।
अगर आपके घर में हो ऐसी रोटियां और ऐसा स्वाद
तो मुझे ज़रूर न्यौता देना