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नयानाभिराम रूप रघुराई
राम-लखन संग-संग चले, अयोध्या नगरी मुस्काई
दीपों की आभा से आलोकित सब जन-मन हरषाई
हर मन में उल्लास है, मधुर गान से नभ गूंज रहा
गगन-धरा सब निरख रहे, नयानाभिराम रूप रघुराई
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मन के इस बियाबान में
मन के बियाबान में
जब राहें बनती हैं
तब कहीं समझ पाते हैं।
मौसम बदलता है।
कभी सूखा,
तो कभी
हरीतिमा बरसती है।
जि़न्दगी बस
राहें सुझाती है।
उपवन महकता है,
पत्ती-पत्ती गुनगुन करती है।
फिर पतझड़, फिर सूखा।
फिर धरा के भीतर से ,
पनपती है प्यार की पौध।
उसी के इंतजार में खड़े हैं।
मन के इस बियाबान में
एकान्त मन।
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बेभाव अपनापन बांटते हैं
किसी को
अपना बना सकें तो क्या बात है।
जब रह रह कर
मन उदास होता है,
तब बिना वजह
खिलखिला सकें तो क्या बात है।
चलो आज
उड़ती चिड़िया के पंख गिने,
जो काम कोई न कर सकता
वही आज कर लें
तो क्या बात है।
किसी की
प्यास बुझा सकें तो क्या बात है।
चलो,
आज बेभाव अपनापन बांटते हैं,
किसी अपने को
सच में
अपना बना सकें तो क्या बात है।
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कामधेनु कुर्सी बनी
समुद्र मंथन से मिली सुरभि, मनोकामनाएं पूरी थी करती,
राजाओं, ऋषियों की स्पर्धा बनी, मान दिलाया थी करती,
गायों को अब कौन पूछता, अब कुर्सी की बात करो यारो,
कामधेनु कुर्सी बनी, इसके चैपायों की पूजा दुनिया करती।
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धागों का रिश्ता
कहने को कच्चे धागों का रिश्ता, पर मज़बूत बड़ा होता है
निःस्वार्थ भावों से जुड़ा यह रिश्ता बहुत अनमोल होता है
भाई यादों में जीता है जब बहना दूर चली चली जाती है
राखी-दूज पर मिलने आती है, तब आनन्द दूना होता है।
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तुम्हारी यह चुप्पी सुहाती नहीं
तुम्हारी यह चुप्पी सुहाती नहीं
उदास बैठी तुम भाती नहीं
कभी तुम्हें यूं देखा नहीं
एकान्तवासी
मौन, गम्भीर, चिन्तित।
लौट आओ
ज़रा अपने अंदाज़ में
तुम्हारी किट–किट–कुट–कुट
डाल डाल फांदती
छुप्पन– छुपाई खेलती
कूदती भागती,
पेड़ों के कोटर से झांकती,
यही अंदाज़ भाता है तुम्हारा।
गुनगुनाती हो
हंसती खिलखिलाती हो मेरे भीतर
जीवन को राग रंग देती हो।
कैसे समझाउं तुम्हें
न तुम मेरी बोली समझती हो
न मैं तुम्हारी।
क्या था, क्या हो गया, क्या होगा
कहां वश रह गया हमारा
चलो, लौट आओ तो ज़रा अपने रंग में।
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हम श्मशान बनने लगते हैं
इंसान जब मर जाता है,
शव कहलाता है।
जिंदा बहुत शोर करता था,
मरकर चुप हो जाता है।
किन्तु जब मर कर बोलता है,
तब प्रेत कहलाता है।
.
श्मशान में टूटती चुप्पी
बहुत भयंकर होती है।
प्रेतात्माएं होती हैं या नहीं,
मुझे नहीं पता,
किन्तु जब
जीवित और मृत
के सम्बन्ध टूटते हैं,
तब सन्नाटा भी टूटता है।
कुछ चीखें
दूर तक सुनाई देती हैं
और कुछ
भीतर ही भीतर घुटती हैं।
आग बाहर भी जलती है
और भीतर भी।
इंसान है, शव है या प्रेतात्मा,
नहीं समझ आता,
जब रात-आधी-रात
चीत्कार सुनाई देती है,
सूर्यास्त के बाद
लाशें धधकती हैं,
श्मशान से उठती लपटें,
शहरों को रौंद रही हैं,
सड़कों पर घूम रही हैं,
बेखौफ़।
हम सिलेंडर, दवाईयां,
बैड और अस्पताल का पता लिए,
उनके पीछे-पीछे घूम रहे हैं
और लौटकर पंहुच जाते हैं
फिर श्मशान घाट।
.
फिर चुपचाप
गणना करने लगते हैं, भावहीन,
आंकड़ों में उलझे,
श्मशान बनने लगते हैं।
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यहां रंगीनियां सजती हैं
दीवारों पर
उकेरित ये कृतियां
भाव अनमोल।
नेह, अपनत्व, संस्कारों का
न लगा सके कोई मोल।
घर की रंगीनियां,
खुशियां यहां बरसती हैं,
सबके हित की कामना
यहां करती हैं।
प्रतिदिन यहां
रंगीनियां सजती हैं,
पर्वों पर हर बार
जीवन में नये रंग भरती हैं।
किन्तु
जब समय चलता है
तो जीवन में बहुत कुछ बदलता है।
नहीं कहते कि ठीक है या नहीं,
किन्तु
रह गई अब स्मृतियां अशेष,
नवरंगों से सजी दीवारों पर
अब ये कृतियां
किन्हीं मूल्यवान
बंधन में बंधी दीवारों पर लटकती हैं।
स्मृतियां यूं ही भटकती हैं।
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पावस की पहली बूंद
पावस की पहली बूंद
धरा तक पहुंचते-पहुंचते ही
सूख जाती है।
तपती धरा
और तपती हवाएं
नमी सोख ले जाती हैं।
अब पावस की पहली बूंद
कहां नम करती है मन।
कहां उमड़ती हैं
मन में प्रेम-प्यार,
मनुहार की बातें।
समाचार डराते हैं,
पावस की पहली बूंद
आने से पहले ही
चेतावनियां जारी करते हैं।
सम्हल कर रहना,
सामान बांधकर रख लो,
राशन समेट लो।
कभी भी उड़ा ले जायेंगी हवाएँ।
अब पावस की बूंद,
बूंद नहीं आती,
महावृष्टि बनकर आती है।
कहीं बिजली गिरी
कहीं जल-प्लावन।
क्या जायेगा
क्या रह जायेगा
बस इसी सोच में
रह जाते हैं हम।
क्या उजड़ा, क्या बह गया
क्या बचा
बस यही देखते रह जाते हैं हम
और अगली पावस की प्रतीक्षा
करते हैं हम
इस बार देखें क्या होगा!!!
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गधा-पुराण
पता था मुझे पहले ही
गधों के सींग नहीं होते,
किन्तु शायद
आपको पता नहीं
कि गधों में ही अक्ल होती है।
गधे को गधा कह दिया
तो बुरा क्यों मानना।
दूसरों का बोझा ढोते हैं
इसीलिए,
खा-पीकर
आराम से सोते हैं।
मार का क्या।
वह तो सभी को पड़ती है
बस यह मत पूछना कैसे-कैसे,
बड़े-बड़ों की पोल खुल जायेगी
और यह मुझे अच्छा नहीं लगेगा।
गधे को घास तो डालते हैं,
आपको क्या मिलता है।
और ज़रूरत पड़ने पर
इसी गधे को
बाप भी बना लेते हैं।
आज के लिए इतना ही बहुत है
गधा-पुराण।
बाकी फिर कभी सही।