आसमान में तिरता हूँ मैं।
धरा को निहारता हूँ मैं।
अपना साहस परखता हूँ मैं।
मंज़िल पाने के लिए
खतरों से खेलता हूँ मैं।
यूँ भी जीवन का क्या भरोसा
लेकिन अपने भरोसे
आगे बढ़ता ही बढ़ता हूँ मैं।
हवाएँ घेरती हैं मुझे,
ज़माने की हवाओं को
परखता हूँ मैं।
साथी नहीं, हमसफ़र नहीं
अकेले ही
अपनी राहों को
तलाशता हूँ मैं।
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हम-तुम तो हैं मूरख जी
युग है चपर कनाती का
ज़ोर चले है लाठी का
हम-तुम तो हैं मूरख जी
घोड़ा चलता काठी का
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मौन की भाषा समझी न
शब्दों की भाषा समझी न, नयनों की भाषा क्या समझोगे
रूदन समझते हो आंसू को, मुस्कानों की भाषा क्या समझोगे
मौन की भाषा समझी न, क्या समझोगे मनुहार की भाषा
गुलदानों में रखते हो सूखे फूल, प्यार की भाषा क्या समझोगे
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भेदभावकारी योजनाएं
(पंजाब नैशनल बैंक में एक योजना है “बहुलाभकारी”
बैंक में लिखा था “बहू लाभकारी”
इस मात्रा भेद ने मुझे इस रचना के लिए प्रेरित किया)
प्रबन्धक महोदय हैरान थे।
माथे पर
परेशानी के निशान थे।
बैंक के बाहर शहर भर की सासें जमा थीं
और मज़े की बात यह
कि इन सासों की नेता
प्रबन्धक महोदय की अपनी अम्मां थीं।
उनके हाथों में
बड़ी बड़ी तख्तियां थीं
नारे थे और फब्तियां थीं :
“प्रबन्धक महोदय को हटाओ
नहीं तो सासलाभकारी योजना चलाओ।
ये बैंक में परिवारवाद फैला रहे हैं
पत्नियों के नाम से
न जाने कितना कमा रहे हैं।
और हम सासों को
सड़क का रास्ता दिखा रहे हैं।
वे नये नये प्रबन्धक बने थे।
शादी भी नयी नयी थी।
अपनी पत्नी और माता के संग
इस शहर में आकर
अभी अभी बसे थे
फिर सास बहू में खूब पटती थी,
प्रबन्धक महोदय की जिन्दगी
बढ़िया चलती थी।
पर यह आज क्या हो गया?
अपनी अम्मां को देख
प्रबन्धक महोदय घबराये।
केबिन से उठकर बाहर आये।
और अम्मां से बोले
“क्या हो गया है तुम्हें अम्मां
ये तख्तियां लिए जुलूस में खड़ी हो।
क्यों मुझे नौकरी से निकलवाने पर तुली हो।
घर जाओ, खाओ पकाओ
सास बहू मौज उड़ाओ।
अम्मां ने दो आंसू टपकाए
और भरे गले से बोलीं
“बेटा, दुनिया कहती थी
शादी के बाद
बेटे बहुओं के होकर रह जाते हैं
पर मैं न मानती थी।
पर आज मैंने
अपनी आंखों से देख ली तुम्हारी करतूत।
बहू के आते ही
हो गये तुम कपूत।
सुन लो,
मैं इन सासों की नेता हूं।
और हम सासों की भीड़
यहां से हटानी है
तो इस बोर्ड पर लिख दो
कि तुम्हें
सासलाभकारी योजना चलानी है।“
यह सुन प्रबन्धक महोदय बोले,
“सुन ओ सासों की नेता,
जो कहता है तेरा बेटा,
ये योजनाएं तो उपर वाले बनाते हैं
इसमें हम प्रबन्धक कुछ नहीं कर पाते हैं।“
“झूठ बोलते हो तुम,
“परबन्धक “ अपनी बहू के”
सासों की नेता बोलीं
“शादी के बाद इधर आये हो
तभी तो ये बोर्ड लगवाए हो।
पुराने दफ्तर में तो
ये योजनाएं न थीं
वहां तो कोई तख्तियां जड़ीं न थीं।“
“ओ सासों की नेता
मैं पहले क्षेत्रीय कार्यालय में काम था करता।
किसी योजना में हाथ नहीं होता मेरा
किसने तुम्हें भड़का दिया
मैं सच्चा सुपूत हूं तेरा।“
प्रबन्धक महोदय बोले
“किसी भी योजना में
धन लगा दो, ओ सासो !
बैंक सबको
बिना भेद भाव
समान दर से है ब्याज है देता।
इस सासलाभकारी योजना की याद
तुम्हें क्यों आई ?
मेरे बैंक की
कौन सी योजना तुम्हें नहीं भाई ?
सासों की सामूहिक आवाज़ आई,
“यदि बैंक भेद भाव नहीं करता
तो यह बहू लाभकारी योजना क्यों चलाई?
तभी तो हमें
सासलाभकारी योजना की याद आई।
यदि सासों की भीड़ यहां से हटानी है
तो इस तख्ती पर लिख दो
कि तुम्हें
सास लाभकारी योजना चलानी है।
और यदि
सास लाभकारी योजना न चलाओ,
तो अपनी यह
बहू लाभकारी योजना हटाओ,
और सास बहू के लिए
कोई एक सी योजना चलाओ।“
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अपना मान करना सीख
आधुनिकता के द्वार पर खड़ी नारी
कहने को आकाश छू रही है
पाताल नाप रही है
पुरुषों के साथ
कंधे से कंधा मिलाकर
चलने की शान मार रही है
घर-बाहर दोनों मोर्चों पर
जीतती नज़र आ रही है।
अपने अधिकारों की बात करती
कहीं भी कमतर
नज़र न आ रही है।
किन्तु यहां
क्यों मौन साध रही है?
न मोम की गुड़िया है,
न लाचार, अपंग।
फिर क्यों इस मोर्चे पर
हर बार
पराजित-सी हार रही है।
.
पाखण्डों और परम्पराओं में
भेद करना सीख।
अपने हित में
अपने लिए बात करना सीख।
रूढ़ियों और रीतियों में
पहचान करना सीख।
अपनी कोमल-कान्त छवि से
बाहर निकल
गलत-सही में भेद करना सीख।
आवाज़ उठा
अपने लिए निर्णय लेना सीख।
सिर उठा,
आंख तरेर, आंख दिखा
आंख से आंख मिला
न डर।
तर्क कर, वितर्क कर
दो की चार कर
अपनी राहें आप नाप
हो निडर।
अपने कंधे पर अपना हाथ रख
अपने हाथ में अपना हाथ ले
न डर।
सब बदल गये, सब बदल गया।
तू भी बदल।
अपना मान करना सीख।
अपना मान रखना सीख।
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अपनी पहचान की तलाश
नाम ढूँढती हूँ पहचान पूछती हूँ ।
मैं कौन हूँ बस अपनी आवाज ढूँढती हूँ ।
प्रमाणपत्र जाँचती हूँ
पहचान पत्र तलाशती हूँ
जन्मपत्री देखती हूँ
जन्म प्रमाणपत्र मांगती हूँ
बस अपना नाम मांगती हूँ।
परेशान घूमती हूँ
पूछती हूँ सब से
बस अपनी पहचान मांगती हूं।
खिलखिलाते हैं सब
अरे ! ये कमला की छुटकी
कमली हो गई है।
नाम ढूँढती है, पहचान ढूँढती है
अपनी आवाज ढूँढती है।
अरे ! सब जानते हैं
सब पहचानते हैं
नाम जानते हैं।
कमला की बिटिया, वकील की छोरी
विन्नी बिन्नी की बहना,
हेमू की पत्नी, देवकी की बहू,
और मिठू की अम्मा ।
इतने नाम इतनी पहचान।
फिर भी !
परेशान घूमती है, पहचान पूछती है
नाम मांगती है, आवाज़ मांगती है।
मैं पूछती हूं
फिर ये कविता कौन है
कौन है यह कविता ?
बौखलाई, बौराई घूमती हूं
नाम पूछती हूं, अपनी आवाज ढूँढती हूं
अपनी पहचान मांगती हूं
अपना नाम मांगती हूं।
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मज़दूर दिवस मनाओ
तुम मेरे लिए
मज़दूर दिवस मनाओ
कुछ पन्ने छपवाओ
दीवारों पर लगवाओ
सभाओं का आयोजन करवाओ
मेरी निर्धनता, कर्मठता
पर बातें बनाओ।
मेरे बच्चों की
बाल-मज़दूरी के विरुद्ध
आवाज़ उठाओ।
उनकी शिक्षा पर चर्चा करवाओ।
अपराधियों की भांति
एक पंक्ति में खड़ाकर
कपड़े, रोटी और ढेर सारे
अपराध-बोध बंटवाओ।
एक दिन
बस एक दिन बच्चों को
केक, टाफ़ी, बिस्कुट खिलाओ।
.
कभी समय मिले
तो मेरी मेहनत की कीमत लगाओ
मेरे बनाये महलों के नीचे
दबी मेरी झोंपड़ी
की पन्नी हटवाओ।
मेरी हँसी और खुशी
की कीमत में कभी
अपने महलों की खुशी तुलवाओ।
अतिक्रमण के नाम पर
मेरी उजड़ी झोंपड़ी से
कभी अपने महल की सीमाएँ नपवाओ।
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असमंजस में रहते हैं हम
कितनी बार,
हम समझ ही नहीं पाते,
कि परम्पराओं में जी रहे हैं,
या रूढ़ियों में।
.
दादी की परम्पराएं,
मां के लिए रूढ़ियां थीं,
और मां की परम्पराएं
मुझे रूढ़ियां लगती हैं।
.
हमारी पिछली पीढ़ियां
विरासत में हमें दे जाती हैं,
न जाने कितने अमूल्य विचार,
परम्पराएं, संस्कृति और व्यवहार,
कुछ पुराने यादगार पल।
इस धरोहर को
कभी हम सम्हाल पाते हैं,
और कभी नहीं।
कभी सार्थक लगती हैं,
तो कभी अर्थहीन।
गठरियां बांधकर
रख देते हैं
किसी बन्द कमरे में,
कभी ज़रूरत पड़ी तो देखेंगे,
और भूल जाते हैं।
.
ऐसे ही पीढ़ी-दर-पीढ़ी
सौंपी जाती है विरासत,
किसी की समझ आती है
किसी की नहीं।
किन्तु यह परम्परा
कभी टूटती नहीं,
चाहे गठरियों
या बन्द कमरों में ही रहें,
इतना ही बहुत है।
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चींटियों के पंख
सुना है
चींटियों की
मौत आती है
तो पर निकल आते हैं।
.
किन्तु चिड़िया के
पर नहीं निकलते
तब मौत आती है।
.
कभी-कभी
इंसान के भी
पर निकल आते हैं
अदृश्य।
उसे आप ही नहीं पता होता
कि वह कब
आसमान में उड़ रहा है
और कब धराशायी हो जाता है।
क्योंकि
उसकी दृष्टि
अपने से ज़्यादा
औरों के
पर गिनने पर रहती है।
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जीवन क्या होता है
जीवन में अमृत चाहिए
तो पहले विष पीना पड़ता है।
जीवन में सुख पाना है
तो दुख की सीढ़ी पर भी
चढ़ना पड़ता है।
धूप खिलेगी
तो कल
घटाएँ भी घिर आयेंगी
रिमझिम-रिमझिम बरसातों में
बिजली भी चमकेगी
कब आयेगी आँधी,
कब तूफ़ान से उजड़ेगा सब
नहीं पता।
जीवन में चंदा-सूरज हैं
तो ग्रहण भी तो लगता है
पूनम की रातें होती हैं
अमावस का
अंधियारा भी छाता है।
किसने जाना, किसने समझा
जीवन क्या होता है।
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लिख नहीं पाती
मौसम बदल रहा है
बाहर का
या मन का
समझ नहीं पाती अक्सर।
हवाएं
तेज़ चल रही हैं
धूल उड़ रही है,
भावों पर गर्द छा रही है,
डालियां
बहकती हैं
और पत्तों से रुष्ट
झाड़ देती हैं उन्हें।
खिली धूप में भी
अंधकार का एहसास होता है,
बिन बादल भी
छा जाती हैं घटाएं।
लगता है
घेर रही हैं मुझे,
तब लिख नहीं पाती।