जीवन में अपनेपन के द्वार बहुत हैं

जीवन में आस बहुत है, विश्वास बहुत है

आस्था, निष्ठा, श्रद्धा के आसार बहुत हैं

बस एक बार संदेह की दीवारें गिरा दो

जीवन में अपनेपन के खुले द्वार बहुत हैं।

न मैं जानूं न तुम जानो फिर भी अच्छे लगते हो

न मैं जानूं न तुम जानो फिर भी अच्छे लगते हो

न तुम बोले न मैं, मुस्कानों में क्यों बातें करते हो

अनजाने-अनपहचाने रिश्ते अपनों से अच्छे लगते हैं

कदम ठिठकते, दहलीज रोकती, यूं ही मन चंचल करते हो

अपने आप को खोजती हूं

अपने आप को खोजती हूं

अपनी ही प्रतिच्छाया में।

यह एकान्त मेरा है

और मैं भी

बस अपनी हूं

कोई नहीं है

मेरे और मेरे स्व के बीच।

यह अगाध जलराशि

मेरे भीतर भी है

जिसकी तरंगे मेरा जीवन हैं

जिसकी हलचल मेरी प्रेरणा है

जिसकी भंवर मेरा संघर्ष है

और मैं हूं और

और है मेरी प्रतिच्छाया

मेरी प्रेरणा

सी मेरी भावनाएं

अपने ही साथ बांटती हूं

यह भावुकता

कहां है अपना वश !

कब के रूके

कहां बह निकलेगें

पता नहीं।

चोट कहीं खाई थी,

जख्म कहीं था,

और किसी और के आगे

बिखर गये।

 

सबने अपना अपना

अर्थ निकाल लिया।

अब

क्या समझाएं

किस-किसको

क्या-क्या बताएं।

तह-दर-तह

बूंद-बूंद

बनती रहती हैं गांठें

काल की गति में

कुछ उलझी, कुछ सुलझी

और कुछ रिसती

 

बस यूं ही कह बैठी,

जानती हूं वैसे

तुम्हारी समझ से बाहर है

यह भावुकता !!!

बाहर निकलना चाहती हूं

निकाल फेंकना चाहती हूं मन की फांस को।

बाहर निकलना चाहती हूं

स्मृतियों के जाल से, जंजाल से

जो जीने नहीं देतीं मुझे अपने आज में।

पर ये कैसी दुविधा है

कि लौट लौटकर झांकती हूं

मन की दरारों में, किवाड़ों में।

जहां अतीत के घाव रिसते हैं

जिनसे बचना चाहती हूं मैं।

एक अदृश्य अभेद्य संसार है मेरे भीतर

जिसे बार बार छू लेती हूं

अनजाने में ही।

खंगालने लगती हूं अतीत की गठरियां

हाथ रक्त रंजित हो जाते हैं

स्मृतियों के दंश देह को निष्प्राण कर देते हैं

फिर एक मकड़जाल

मेरे मन मस्तिष्क को कुंठित कर देता है

और मैं उलझनों में उलझी

न वर्तमान में जी पाती हूं

और  न अतीत को नकार पाती हूं।।।।।।।

काश ! पहाड़-सी होती मेरी ज़िन्दगी

काश !  पहाड़-सी होती मेरी ज़िन्दगी

 

ज़रा-ज़रा सी बात पर

यूं ही

भरभराकर

नहीं गिर जाते ये पहाड़।

अपने अन्त:करण में

असंख्य ज्वालामुखी समेटे

बांटते हैं

नदियों की तरलता

झरनों की शरारत

नहरों का लचीलापन।

कौन कहेगा इन्हें देखकर

कि इतने भाप्रवण होते हैं ये पहाड़।

 

पहाड़ों की विशालता

अपने सामने

किसी को बौना नहीं करती।

अपने सीने पर बसाये

एक पूरी दुनिया

ज़मीन से उठकर

कितनी सरलता से

छू लेते हैं आकाश को।

बादलों को सहलाते-दुलारते

बिजली-वर्षा-आंधी

सहते-सहते

कमज़ोर नहीं हो जाते यह पहाड़।

आकाश को छूकर

ज़मीन को नहीं भूल जाते ये पहाड़।

 

ज़रा-ज़रा सी बात पर

सागर की तरह

उफ़न नहीं पड़ते ये पहाड़।

नदियों-नहरों की तरह

अपने तटबन्धों को नहीं तोड़ते।

बार-बार अपना रास्ता नहीं बदलते

नहरों-झीलों-तालाबों की तरह

झट-से लुप्त नहीं हो जाते।

और मावन-मन की तरह

जगह-जगह नहीं भटकते।

अपनी स्थिरता में

अविचल हैं ये पहाड़।

 

अपने पैरों से रौंद कर भी

रौंद नहीं सकते तुम पहाड़।

 

पहाड़ों को उजाड़ कर भी

उजाड़ नहीं सकते तुम पहाड़।

 

पहाड़ की उंचाई

तो शायद

आंख-भर नाप भी लो

लेकिन नहीं जान सकते कभी

कितने गहरे हैं ये पहाड़।

 

बहुत बड़ी चाहत है मेरी

काश !

पहाड़-सी होती मेरी ज़िन्दगी।

 

 

मैं वारिस हूं अकेली अपनी तन्हाईयों की।

मैं हंसती हूं, गाती हूं।

गुनगुनाती हूं, मुस्कुराती हूं

खिलखिलाती हूं।

हंसती हूं

तो हंसती ही चली जाती हूं

बोलती हूं

तो बोलती ही चली जाती हूं

लोग कहते हैं

कितना जीवन्तता भरी है इसके अन्दर

जीवन जीना हो तो कोई इससे सीखे।

 

एक आवरण है यह।

झांक न ले कहीं कोई मेरे भीतर।

न भेद ले मेरे मन की गहराईयों को।

न खटखटाए कोई मेरे मन की सांकल।

छू न ले मेरी तन्हाईयों को।

न भंग हो मेरी खामोशी की चीख।

मेरी अचल अटल सम्पत्ति हैं ये।

कोई लूट न ले

मेरी जीवन भर की अर्जित सम्पदा

मैं वारिस हूं अकेली अपनी तन्हाईयों की।

 

खालीपन का एहसास

 

घर के आलों में

दीवारों में,

कहीं कोनों में,

पुरानी अलमारियों में,

पुराने कपड़ों की तहों में

छिपाकर रखती रही हूं

न जाने कितने एहसास,

तह-दर-तह

समेटकर रखे थे मैंने

बेमतलब, बेवजह।

सर्दी-गर्मी,

होली-दीपावली पर

जब साफ़-सफ़ाई

होती है घर में,

सबसे पहले,

सब, एक होकर

उनकी ही छंटाई में लग जाते हैं,

कितना बेकार कचरा जमा कर रखा है घर में।

कितनी जगह रूकी है

इनकी वजह से,

कब काम आता है ये सब,

पूछते हैं सब मुझसे।

मेरे पास कोई उत्तर नहीं होता कभी भी।

इसे मेरा समर्पण मानकर

मुझसे पूछे बिना

छंटाई हो जाती है।

घर में जगह बन जाती है।

मैं अपने भीतर भी

एक खालीपन का एहसास करती हूं

पर वहां कुछ नया जमा नहीं पाती।

 

खेल फिर शुरू हो जाता है

कभी कभी, समझ नहीं पाती हूं

कि मैं

आतंकित होकर चिल्लती हूं

या आतंक पैदा करने के लिए।

तुमसे डरकर चिल्लती हूं

या तुम्हें डराने के लिए।

लेकिन इतना जानती हूं

कि मेरे भीतर एक डर है

एक औरत होने का डर।

और यह डर

तुम सबने पैदा किया है

तुम्हारा प्यार, तुम्हारी मनुहार

पराया सा अपनापन

और तुम्हारी फ़टकार

फिर मौके बे मौके

उपेक्षा दर्शाता तुम्हारा तिरस्कार

निरन्तर मुझे डराते रहते हैं।

और तुम , अपने अलग अलग रूपों में

विवश करते रहते हो मुझे

चिल्लाते रहने के लिए।

फिर एक समय आता है

कि थककर मेरी चिल्लाहट

रूदन में बदल जाती है।

और तुम मुझे

पुचकारने लगते हो।

*******

खेल, फिर शुरू हो जाता है।

कहते हैं जब जागो तभी सवेरा

कहते हैं जब जागो तभी सवेरा, पर ऐसा कहां हो पाता है

आधे टूटे-छूटे सपनों से जीवन-भर न पीछा छूट पाता है

रात और दिन के अंधेरे-उजियारे में उलझा रहता है मन

सपनों की गठरी रिसती है यह मन कभी समझ न पाता

सर्वगुण सम्पन्न कोई नहीं होता

जान लें हम सर्वगुण सम्पन्न तो यहां कोई नहीं होता

अच्छाई-बुराई सब साथ चले, मन यूं ही दुख में रोता

राम-रावण जीवन्त हैं यहां, किस-किस की बात करें

अन्तद्र्वन्द्व में जी रहे, नहीं जानते, कौन कहां सजग होता

इक फूल-सा ख्वाबों में

जब भी
उनसे मिलने को मन करता है

इक फूल-सा ख्वाबों में
खिलता नज़र आता है।

पतझड़ में भी
बहार की आस जगती है
आकाश गंगा में
फूलों का झरना नज़र आता है।

फूल तो खिले नहीं
पर जीवन-मकरन्द का
सौन्दर्य नज़र आता है।

तितलियों की छोटी-छोटी उड़ान में
भावों का सागर
चांद पर टहलता नज़र आता है।

चिड़िया की चहक में
न जाने कितने गीत बजते हैं
उनके मिलन की आस में
मन गीत गुनगुनाता नज़र आता है।

सांझ ढले
जब मन स्मृतियों के साये में ढलता है
तब लुक-छुप करती रंगीनियों में
मन बहकता नज़र आता है।

जब-जब तेरी स्मृतियों से
बच निकलने की कोशिश की
मन बहकता-सा नज़र आता है।

हम इंसान अजीब से असमंजस में रहते हैं

पुष्प कभी अकेले नहीं महकते,

बागवान साथ होता है।

पल्लव कभी यूं ही नहीं बहकते,

हवाएं साथ देती हैं।

चांद, तारों संग रात्रि-गमन करता है,

बादलों की घटाओं संग

बिजली कड़कती है,

तो बूंदें भी बरसती हैं।

धूप संग-संग छाया चलती है।

 

प्रकृति किसी को

अकेलेपन से जूझने नहीं देती।

 

लेकिन हम इंसान

अजीब से असमंजस में रहते हैं।

अपनों के बीच

एकाकीपन से जूझते हैं,

और अकेले में

सहारों की तलाश करने निकल पड़ते हैं।

मेरे बारे में क्या लिखेंगे लोग

अक्सर

अपने बारे में सोचती हूं

मेरे बारे में

क्या लिखेंगे लोग।

हंसना तो आता है मुझे

पर मेरी हंसी

कितनी खुशियां दे पाती है

किसी को,

यही सोच कर सोचती हूं,

कुछ ज्यादा अच्छा नहीं

मेरे बारे में लिखेंगे लोग।

ज़िन्दगी में उदासी तो

कभी भी किसी को सुहाती नहीं,

और मैं जल्दी मुरझा जाती हूं

पेड़ से गिरे पत्तों की तरह।

छोटी-छोटी बातों पर

बहक जाती हूं,

रूठ जाती हूं,

आंसूं तो पलकों पर रहते हैं,

तब

मेरे बारे में कहां से

कुछ अच्छा लिखेंगे लोग।

सच बोलने की आदत है बुरी,

किसी को भी कह देती हूं

खोटी-खरी,

बेबात

किसी को मनाना मुझे आता नहीं

अकारण

किसी को भाव देना मुझे भाता नहीं,

फिर,

मेरे बारे में कहां से

कुछ अच्छा लिखेंगे लोग।

अक्सर अपनी बात कह पाती नहीं

किसी की सुननी मुझे आती नहीं

मौसम-सा मन है,

कभी बसन्त-सा बहकता है,

पंछी-सा चहकता है,

कभी इतनी लम्बी झड़ी

कि सब तट-बन्ध टूटते है।

कभी वाणी में जलाती धूप से

शब्द आकार ले लेते हैं

कभी

शीत में-से जमे भाव

निःशब्द रह जाते हैं।

फिर कैसे कहूं,

कि मेरे बारे में

कुछ अच्छा लिखेंगे लोग।

प्रेम, सौहार्द,स्नेह के निर्झर बहाकर देख

किसी दूसरे की व्यथा को अपना बनाकर  देख

औरों के लिए सुख का सपना सजाकर तो देख

अपने लिए,अपनों के लिए तो जीते हैं सभी यहां

मैत्री, प्रेम, सौहार्द,स्नेह के निर्झर बहाकर देख

कहां गये वे नेता -वेत्ता

कहां गये वे नेता -वेत्ता

चूल्हे बांटा करते थे।

किसी मंच से हमारी रोटी

अपने हित में सेंका करते थे।

बड़े-बड़े बोल बोलकर

नोटों की गिनती करते थे।

झूठी आस दिलाकर

वोटों की गिनती करते थे।

उन गैसों को ढूंढ रहे हम

किसी आधार से निकले थे,

कोई सब्सिडी, कोई पैसा

चीख-चीख कर हमको

मंचों से बतलाया करते थे।

वे गैस कहां जल रहे

जो हमारे नाम से लूटे थे।

बात करें हैं गांव-गांव की

पर शहरों में ही जाया करते थे।

 

आग कहीं भीतर जलती है

चूल्हे में जलता है दिल

अब हमको भरमाने को

कला, संस्कृति, परम्परा,

मां की बातें करते हैं।

सबको चाहे नया-नया,

मेरे नाम पर लीपा-पोती।

पंचतारा में भोजन करते

मुझको कहते चूल्हे में जा।

सपना देखने में क्या जाता है

कोई भी उड़ान

इतनी सरल नहीं होती

जितनी दिखती है।

 

बड़ा आकर्षित करता है

आकाश को चीरता यान।

रंगों में उलझता।

 

दोनों बाहें फैलाये

आकाश को

हाथों से छू लेने की

एक नाकाम कोशिश,

अक्सर

मायूस तो करती है,

लेकिन आकाश में

चमकता चांद !

कुछ सपने दिखाता है

पुकारता है

साहस देता है,

चांद पर

घर बसाने का सपना

दिखाता है,

जानती हूं , कठिन है

असम्भव-प्रायः

किन्तु सपना देखने में क्या जाता है।

 

हर चीज़ मर गई अगर एहसास मर गया

 

मेरी आंखों के सामने

एक चिड़िया तार में फंसी,

उलझी-उलझी,

चीं-चीं करती

धीरे-धीरे मरती रही,

और हम दूर खड़े बेबस

शायद तमाशबीन से

देख रहे थे उसे

वैसे ही

धीरे-धीरे मरते।

 

तभी

चिड़ियों का एक दल

कहीं दूर से

उड़ता आया,

और उनकी चिड़चिडाहट से

गगन गूंज उठा,

रोंगटे खड़े हो गये हमारे,

और दिल दहल गया।

 

उनके प्रयास विफ़ल थे

किन्तु उनका दर्द

धरा और गगन को भेदकर

चीत्कार कर उठा था।

 

कुछ देर तक हम

देखते रहे, देखते रहे,

चिड़िया मरती रही,

चिड़ियां रूदन करती रहीं,

इतने में ही

कहीं से एक बाज आया,

चिड़ियों के दल को भेदता,

तार में फ़ंसी चिड़िया के पैर खींचे

और ले उड़ा,

कुछ देर  चर्चा  करते रहे   हम

फिर हम भीतर आकर

टी. वी. पर

दंगों के समाचारों का

आनन्द लेने लगे।

 

क्रूरता की कोई सीमा नहीं ।

 

हर चीज़ मर गई

अगर एहसास मर गया।

पत्थरों के भीतर भी पिघलती है जिन्दगी

प्यार मनुहार धार-धार से संवरती है जिन्दगी

मन ही क्या पत्थरों के भीतर भी पिघलती है जिन्दगी

यूं तो  ठोकरे खा-खाकर भी जीवन संवर जाता है

यही तो भाव हैं कि सिर पर सूरज उगा लेती है जिन्दगी

सपनों की बात न करना यारो मुझसे

आंखों में तिरते हैं, पलकों में छिपते हैं

शब्दों में बंधते हैं, आहों में कटते हैं

सपनों की बात न करना यारो मुझसे

सांसों में बिंधते हैं, राहों में चुभते हैं।

रंगों की दुनिया बड़ी निराली है

सुनते हैं इन्द्रधनुष के सप्त रंगों में श्वेताभा रहती है,

कैसे कह दूं इन रंगीनियों के पीछे कोई आस रहती हैं

रंगों की दुनिया बड़ी निराली है कौन कहां समझ पाया,

रंगों क भी भाव होते हैं, इतनी समझ हमें कहां आ पाती है।

कुछ सपने बोले थे कुछ डोले थे

 


कागज की कश्ती में

कुछ सपने थे

कुछ अपने थे

कुछ सच्चे, कुछ झूठ थे

कुछ सपने बोले थे

कुछ डोले थे

कुछ उलझ गये

कुछ बिखर  गये

कुछ को मैंने पानी में छोड़ दिया

कुछ को गठरी में बांध लिया

पानी में कश्ती

इधर-उधर तिरती

हिलती

हिचकोले खाती

कहती जाती

कुछ टूटेंगे

कुछ नये बनेंगे

कुछ संवरेंगे

गठरी खुल जायेगी

बिखर-बिखर जायेगी

डरना मत

फिर नये सपने बुनना

नई नाव खेना

कुछ नया चुनना

बस तिरते रहना

बुनते रहना

बहते रहना

 

खाली कागज़ पर लकीरें  खींचता रहता हूं मैं

खाली कागज पर लकीरें 
खींचती रहती हूं मैं।
यूं तो 
अपने दिल का हाल लिखती हूं,
पर सुना नहीं सकती
इस जमाने को,
इसलिए कह देती हूं
यूं ही 
समय बिताने के लिए
खाली कागज पर लकीरें 
खींचती रहती हूं मैं।
जब कोई देख लेता है
मेरे कागज पर 
उतरी तुम्हारी तस्वीर,
पन्ना पलट कर
कह देती हूं,
यूं ही
समय बिताने के लिए
खाली कागज पर
लकीरें
खींचती रहती हूं मैं।
कोई गलतफहमी न 
हो जाये किसी को
इसलिए
दिल का हाल
कुछ लकीरों में बयान कर
यूं ही 
खाली कागज पर 
लकीरें 
खींचती रहती हूं मैं।
पर समझ नहीं पाती,
यूं ही 
कागज पर खिंची खाली लकीरें
कब रूप ले लेती हैं
मन की गहराईयों से उठी चाहतों का
उभर आती है तुम्‍हारी तस्‍वीर , 
डरती हूं जमाने की रूसवाईयों से 
इसलिए 
अब खाली कागज पर लकीरें 
भी नहीं खींचती हूं मैं।

मन उदास-उदास क्यों है

हवाएं बहक रहीं

मौसम सुहाना है

सावन में पंछी कूक रहे

वृक्षों पर

डाली-डाली

पल्लव झूम रहे

कहीं रिमझिम-रिमझिम

तो कहीं फुहारें

मन सरस-सरस

कोयल कूके

पिया-पिया

मैं निहार रही सूनी राहें

कब लौटोगे पिया

और तुम पूछ रहे

मन उदास-उदास क्यों है ?

 

चल न मन,पतंग बन

आकाश छूने की तमन्ना है

पतंग में।

एक पतली सी डोर के सहारे

यह जानते हुए भी

कि कट सकती है,

फट सकती है,

लूट ली जा सकती है

तारों में उलझकर रह सकती है

टूटकर धरा पर मिट्टी में मिल सकती है।

किन्तु उन्मुक्त गगन

जीवन का उत्साह

खुली उड़ान,

उत्सव का आनन्द

उल्लास और उमंग।

पवन की गति,

कुछ हाथों की यति

रंगों की मति

राहें नहीं रोकते।

  *    *    *    *

चल न मन,

पतंग बन।

शिलालेख हैं मेरे भीतर

शिलालेख हैं मेरे भीतर कल की बीती बातों के

अपने ही जब चोट करें तब नासूर बने हैं घातों के

इन रिसते घावों की गांठे बनती हैं न खुलने वाली

अन्तिम यात्रा तक ढोते हैं हम खण्डहर इन आघातों के

मौन की भाषा समझी न

शब्दों की भाषा समझी न, नयनों की भाषा क्या समझोगे

रूदन समझते हो आंसू को, मुस्कानों की भाषा क्या समझोगे

मौन की भाषा समझी न, क्या समझोगे मनुहार की भाषा

गुलदानों में रखते हो सूखे फूल, प्यार की भाषा क्या समझोगे

 

कांटों को थाम लीजिए

रूकिये ज़रा, मुहब्बत की बात करनी है तो कांटों को थाम लीजिए

छोड़िये गुलाब की चाहत को, अनश्वर कांटों को अपने साथ लीजिए

न रंग बदलेंगे, न बिखरेंगे, न दिल तोड़ेंगे, दूर तक साथ निभायेंगे,

फूल भी अक्सर गहरा घाव कर जाते हैं, बस इतना जान लीजिए

अपने मन के संतोष के लिए

न सम्मान के लिए, न अपमान के लिए

कोई कर्म न कीजिए बस बखान के लिए

अपनी-अपनी सोच है, अपनी-अपनी राय

करती हूं बस अपने मन के संतोष के लिए

चाहतों का अम्बार दबा है

मन के भीतर मन है, मन के भीतर एक और मन

खोल खोल कर देखती हूं कितने ही तो हो गये मन

इस मन के किसी गह्वर में चाहतों का अम्बार दबा है

किसको रखूं, किसको छोड़ूं नहीं बतलाता है रे मन।