विरोध से दुनिया नहीं चलती

ज़रा ज़रा सी बात पर अक्सर क्रोध करने लगी हूं मैं

किसी ने ज़रा सी बात कह दी तर्क करने लगी हूं मैं

विरोध से दुनिया नहीं चलती, सब समझाते हैं मुझे

समझाने वालों से भी इधर बहुत लड़ने लगी हूं मैं

आत्मविश्वास :यह अंहकार नहीं है

आत्मविश्वास की डोर लिए चलते हैं यह अभिमान नहीं है।

स्वाभिमान हमारा सम्बल है यह दर्प का आधार नहीं है।

साहस दिखलाया आत्मनिर्भरता का, मार्ग यह सुगम नहीं,

अस्तित्व बनाकर अपना, जीते हैं, यह अंहकार नहीं है।

 

आशाओं का सूरज

ये सूरज मेरी आशाओं का सूरज है

ये सूरज मेरे दु:साहस का सूरज है

सीढ़ी दर सीढ़ी कदम उठाती हूं मैं

ये सूरज तम पर मेरी विजय का सूरज है

रे मन अपने भीतर झांक

सागर से गहरे हैं मन के भाव, किसने पाई थाह

सीपी में मोती से हैं मन के भाव, किसने पाई थाह

औरों के चिन्तन में डूबा है रे मन अपने भीतर झांक

जीवन लभ्य हो जायेगा जब पा लेगा अपने मन की थाह

स्वप्न हों साकार

तुम बरसो, मैं थाम लूं मेह की रफ्तार

न कहीं सूखा हो न धरती बहे धार धार

नदी, कूप, सर,निर्झर सब हों अमृतमय

शस्यश्यामला धरा पर स्वप्न  हों साकार

काश ! हम कोई शिला होते

पत्थरों में प्यार तराशते हैं

और जिह्वा को कटार बनाये घूमते हैं।

छैनी जब रूप-आकार तराशती है

तब एक संसार आकार लेता है।

तूलिका जब रंग बिखेरती है

तब इन्द्रधनुष बिखरते हैं।

किन्तु जब हम

अन्तर्मन के भावों को

रूप-आकार, रंगों का संसार

देने लगते हैं,

सम्बन्धों को तराशने लगते हैं

तब न जाने कैसे

छैनी-हथौड़े

तीखी कटार बन जाते हैं,

रंग उड़ जाते हैं

सूख जाते हैं।

काश हम भी

वास्तव में ही कोई शिला होते

कोई तराशता हमें,

रूप-रंग-आकार देता

स्नेह उंडेलता

कोई तो कृति ढलती,

कोई तो आकृति सजती।

कौन जाने

फिर रंग भी रंगों में आ जाते

और छैनी-हथौड़ी भी

सम्हल जाते।

 

कुछ चमकते सपने बुनूं

जीवन में अकेलापन

बहुत कुछ बोलता है

कभी कभी

अथाह रस घोलता है।

अपने से ही बोलना

मन के तराने छेड़ना

कुछ पूछना कुछ बताना

अपने आप से ही रूठना, मनाना

उलटना पलटना

कुछ स्मृतियों को।

यहां बैठूं या वहां बैठूं

पेड़ों पर चढ़ जाउं

उपवन में भागूं दौड़ूं

तितली को छू लूं

फूलों को निहारूं

बादलों को पुकारूं

आकाश को पुकारूं

फिर चंदा-तारों को ले मुट्ठी में

कुछ चमकते सपने बुनूं

अपने मन की आहटें सुनूं

अपनी चाहतों को संवारू

फिर

ताज़ी हवा के झोंके के साथ

लौट आउं वर्तमान में

सहज सहज।

मन गया बहक बहक

चिड़िया की कुहुक-कुहुक, फूलों की महक-महक

तुम बोले मधुर मधुर, मन गया बहक बहक

सरगम की तान उठी, साज़ बजे, राग बने,

सतरंगी आभा छाई, ताल बजे ठुमक ठुमक

नयन क्यों भीगे

मन के उद्गारों को कलम उचित शब्द अक्सर दे नहीं पाती

नयन क्यों भीगे, यह बात कलम कभी समझ नहीं पाती

धूप-छांव तो आनी-जानी है हर पल, हर दिन जीवन में

इतनी सी बात क्यों इस पगले मन को समझ नहीं आती

साहस है मेरा

साहस है मेरा, इच्छा है मेरी, पर क्यों लोग हस्तक्षेप करने चले आते हैं

जीवन है मेरा, राहें हैं मेरी, पर क्यों लोग “कंधा” देने चले आते हैं

अपने हैं, सपने हैं, कुछ जुड़ते हैं बनते हैं, कुछ मिटते हैं, तुमको क्या

जीती हूं अपनी शर्तों पर, पर पता नहीं क्यों लोग आग लगाने चले आते हैं

मानवता को मुंडेर पर रख

आस्था, विश्वास,श्रद्धा को हम निर्जीव पत्थरों पर लुटा रहे हैं

अधिकारों के नाम पर जाति-धर्म,आरक्षण का विष पिला रहे हैं

अपने ही घरों में विष-बेल बीज ली है,जानते ही नहीं हम

मानवता को मुंडेर पर रख,अपना घर फूंक ताली बजा रहे हैं

अभिलाषाओं के कसीदे

आकाश पर अभिलाषाओं के कसीदे कढ़े थे
भावनाओं के ज्वार से माणिक-मोती जड़े थे
न जाने कब एक धागा छूटा हाथ से मेरे
समय से पहले ही सारे ख्वाब ज़मीन पर पड़े थे

मन मिलते हैं

जब हाथों से हाथ जुड़ते हैं

जीवन में राग घुलते हैं
रिश्तों की डोर बंधती है

मन से फिर मन मिलते हैं

 

पांच-सात क्या पी ली

जगती हूं,उठती हूं, फिर सोती हूं,मनमस्त हूं

घड़ी की सूईयों को रोक दिया है, अलमस्त हूं

पूरा दिन पड़ा है कर लेंगे सारे काम देर-सबेर

बस पांच-सात क्या पी ली,(चाय),मदमस्त हूं

चलो, आज बेभाव अपनापन बांटते हैं

किसी की प्यास बुझा सकें तो क्या बात है।

किसी को बस यूं ही अपना बना सकें तो क्या बात है।

जब रह रह कर मन उदास होता है,

तब बिना वजह खिलखिला सकें तो क्या बात है।

चलो आज उड़ती चिड़िया के पंख गिने,

जो काम कोई न कर सकता हो,

वही आज कर लें तो क्या बात है।

चलो, आज बेभाव अपनापन बांटते हैं,

किसी अपने को सच में अपना बना सकें तो क्या बात है।

खुश होने के लिए भी

न कोई चाहत, न कभी कोई मांग।
एक नये आनन्द के साथ
रोज़ आते हैं
आनन्दित करते हैं
और चले जाते हैं।
चांद को कभी उदास नहीं देखा
सूरज कभी रोया नहीं
तारे कभी टिमटिमाना नहीं भूलते।
और  हम हैं कि
ज़रा-सा खुश होने के लिए भी
कोई बहाना ढूंढते हैं
कोई बड़ा-सा कारण
नहीं तो लोग पता नहीं क्या सोचेंगे
कि अरे !
यह आज इतनी खुश क्यों है
और एक तहलका मच जायेगा।


 

मन के भीतर कल्पवृक्ष

मन के भीतर ही

उगे बैठे हैं

न जाने कितने कल्पवृक्ष।

रोज उगते हैं, फलते-फूलते हैं

जड़े जमाते हैं

और समय के प्रवाह में

सब कुछ दे जाते हैं।

न समुद्र मंथन की आवश्यकता,

न किसी युद्ध की

न देवताओं-असुरों की,

क्योंकि सब कुछ तो

इसी मन के भीतर है।

कहां बाहर भटकते हैं हम

क्यों बाहर भटकते हैं हम।

हां, यह और बात है

कि समय के प्रवाह में

बदल जाता है बहुत कुछ।

शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं

भाव बदल जाते हैं

प्रभाव बदल जाते हैं।

इसलिए

मन के इस कल्पवृक्ष से भी

बहुत आशाएं मत रखना।

शब्दों की झोली खाली पाती हूं

जब भावों का ज्वार उमड़ता है, तब सोच-समझ उड़ जाती है

लिखने बैठें तो अपने ही मन की बात कहां समझ में आती है

कलम को क्यों दोष दूं, क्यों स्याही फैली, सूखी या मिट गई

भावों को किन शब्दों में ढालूं, शब्दों की झोली खाली पाती हूं

बस प्यार किया जाता है

मन है कि

आकाश हुआ जाता है

विश्वास हुआ जाता है

तुम्हारे साथ

एक एहसास हुआ जाता है

घनघारे घटाओं में

यूं ही निराकार जिया जाता है

क्षणिक है यह रूप

भाव, पिघलेंगे

हवा बहेगी

सूरत, मिट जायेगी

तो क्या

मन में तो अंकित है इक रूप

बस,

उससे ही जिया जाता है

यूं ही, रहा जाता है

बस प्यार, किया जाता है

बनती रहती हैं गांठें बूंद-बूंद

कहां है अपना वश !
कब के रूके
कहां बह निकलेगें
पता नहीं।
चोट कहीं खाई थी,
जख्म कहीं था,
और किसी और के आगे
बिखर गये।

सबने अपना अपना 
अर्थ निकाल लिया।
अब 
क्या समझाएं
किस-किसको 
क्या-क्या बताएं।
तह-दर-तह
बूंद-बूंद
बनती रहती हैं गांठें
काल की गति में
कुछ उलझी, कुछ सुलझी
और कुछ रिसती

बस यूं ही कह बैठी,
जानती हूं वैसे 
तुम्हारी समझ से बाहर है
यह भावुकता !!!

इन आंखों का क्या करूं

शब्दों को बदल देने की

कला जानती हूं,

अपनी अभिव्यक्ति को

अनभिव्यक्ति बनाने की

कला जानती हूं ।

पर इन आंखों का क्या करूं

जो सदैव

सही समय पर

धोखा दे जाती हैं।

रोकने पर भी

न जाने

क्या-क्या कह जाती हैं।

जहां चुप रहना चाहिए

वहां बोलने लगती हैं

और जहां बोलना चाहिए

वहां

उठती-गिरती, इधर-उधर

ताक-झांक करती

धोखा देकर ही रहती हैं।

और कुछ न सूझे तो

गंगा-यमुना बहने लगती है।

फूल तो फूल हैं

फूल तो फूल हैं
कहीं भी खिलते हैं।
कभी नयनों में द्युतिमान होते हैं
 कभी गालों पर महकते हैं
कभी उपवन को सुरभित करते हैं,
तो कभी मन को 
आनन्दित करते हैं,
मन के मधुर भावों को
साकार कर देते हैं
शब्द को भाव देते हैं
और भाव को अर्थ।
प्रेम-भाव का समर्पण हैं,
कभी किसी की याद में
गुलदानों में लगे-लगे 
मुरझा जाते हैं।
यही फूल स्वागत भी करते हैं
और अन्तिम यात्रा भी। 
और कभी किसी की 
स्मृतियों में जीते हैं
ठहरते हैं उन पर आंसू 
ओस की बूंदों से।

अरे अपने भीतर जांच

शब्दों की क्या बात करें, ये मन बड़ा वाचाल है

इधर-उधर भटकता रहता, न अपना पूछे हाल है

तांक-झांक की आदत बुरी, अरे अपने भीतर जांच

है सबका हाल यही, तभी तो सब यहां बेहाल हैं

 

भावों की छप-छपाक

यूं ही जीवन जीना है।

नयनों से छलकी एक बूंद

कभी-कभी

सागर के जल-सी गहरी होती है,

भावों की छप-छपाक

न  जाने क्या-क्या कह जाती है।

और कभी ओस की बूंद-सी

झट-से ओझल हो जाती है।

हो सकता है

माणिक-मोती मिल जायें,

या फिर

किसी नागफ़नी में उलझे-से रह जायें।

कौन जाने, कब

फूलों की सुगंध से मन महक उठे,

तरल-तरल से भाव छलक उठें।

इसी निराश-आस-विश्वास में

ज़िन्दगी बीतती चली जाती है।

 

 

प्यार के इज़हार के लिए

आ जा,

आज ज़रा

ताज के साये में

कुछ देर बैठ कर देखें।

क्या एहसास होता है

ज़रा सोच कर देखें।

किसी के प्रेम के प्रतीक को

अपने मन में उतार कर देखें।

क्या सोचकर बनाया होगा

अपनी महबूबा के लिए

इसे किसी ने,

ज़रा हम भी आजमां कर तो देखें।

न ज़मीं पर रहता है

न आसमां पर,

किस के दिल में कौन रहता है

ज़रा जांच कर देखें।

प्यार के इज़हार के लिए

इन पत्थरों की क्या ज़रूरत थी,

बस एक बार

हमारे दिल में उतर कर तो देखें।
एक अनछुए एहसास-सी,

तरल-तरल भाव-सी,

प्रेम की कही-अनकही कहानी

नहीं कह सकता यह ताज जी।

मेरी कागज़ की नाव खो गई

कागज़ की नाव में

जितने सपने थे

सब अपने थे।

छोटे-छोटे थे

पर मन के थे ।

न डूबने की चिन्ता

न सपनों के टूटने की चिन्ता।

तिरती थी,

पलटती थी,

टूट-फूट जाती थी,

भंवर में अटकती थी,

रूक-रूक जाती थी,

एक जाती थी,

एक और आ जाती थी।

पर सपने तो सपने थे

सब अपने थे]

न टूटते थे न फूटते थे,

जीवन की लय

यूं ही बहती जाती थी।

फिर एक दिन

हम बड़े हो गये

सपने भारी-भारी हो गये।

अपने ही नहीं

सबके हो गये।

पता ही नहीं लगा

वह कागज़ की नाव

कहां खो गई।

कभी अनायास यूं ही

याद आ जाती है

तो ढूंढने निकल पड़ते हैं,

किन्तु भारी सपने कहां

पीछा छोड़ते हैं।

सपने सिर पर लादे घूम रहे हैं,

अब नाव नहीं बनती।

मेरी कागज़ की नाव

न जाने कहां खो गई

मिल जाये तो लौटा देना।

लीपा-पोती जितनी कर ले

रंग रूप की ऐसी तैसी

मन के भाव देख प्रेयसी

लीपा-पोती जितनी कर ले

दर्पण बोले दिखती कैसी

उम्र का एक पल और पूरी ज़िन्दगी

पता ही नहीं लगा

उम्र कैसे बीत गई

अरे ! पैंसठ की हो गई मैं।

अच्छा !!

कैसे बीत गये ये पैंसठ वर्ष,

मानों कल की ही घटना हो।

स्मृतियों की छोटी-सी गठरी है

जानती हूं

यदि खोलूंगी, खंगालूंगी

इस तरह बिखरेगी

कि समझने-समेटने में

अगले पैंसठ वर्ष लग जायेंगे।

और यह भी नहीं जानती

हाथ आयेगी रिक्तता

या कोई रस।

और कभी-कभी

ऐसा क्यों होता है

कि उम्र का एक पल

पूरी ज़िन्दगी पर

भारी हो जाता है

और हम

दिन, महीने, साल,

गिनते रह जाते हैं

लगता है मानों

शताब्दियां बीत गईं

और हम

अपने-आपको वहीं खड़ा पाते हैं।

कहत हैं रेत से घर नहीं बनते

मन से

अपनी राहों पर चलती हूं

दूर तक छूटे

अपने ही पद-चिन्हों को

परखती हूं

कहत हैं रेत से घर नहीं बनते

नहीं छूटते रेत पर निशान,

सागर पलटता है

और सब समेट ले जाता है

हवाएं उड़ती हैं और

सब समतल दिखता है,

किन्तु भीतर कितने उजड़े घर

कितने गहरे निशान छूटे हैं

कौन जानता है,

कहीं गहराई में

भीतर ही भीतर पलते

छूटे चिन्ह

कुछ पल के लिए

मन में गहरे तक रहते हैं

कौन चला, कहां चला, कहां से आया

कौन जाने

यूं ही, एक भटकन है

निरखती हूं, परखती हूं

लौट-लौट देखती हूं

पर बस अपने ही

निशान नहीं मिलते।

मौन को मुखर कीजिए

बस अब बहुत हो चुका,

अब मौन को मुखर कीजिए

कुछ तो बोलिए

न मुंह बन्द कीजिए।

संकेतों की भाषा

कोई समझता नहीं

बोलकर ही भाव दीजिए।

खामोशियां घुटती हैं कहीं

ज़रा ज़ोर से बोलकर

आवाज़ दीजिए।

जो मन न भाए

उसका

खुलकर विरोध कीजिए।

यह सोचकर

कि बुरा लगेगा किसी को

अपना मन मत उदास कीजिए।

बुरे को बुरा कहकर

स्पष्ट भाव दीजिए,

और यही सुनने की

हिम्मत भी

अपने अन्दर पैदा कीजिए।

चुप्पी को सब समझते हैं कमज़ोरी

चिल्लाकर जवाब दीजिए।

कलम की नोक तीखी कीजिए

शब्दों को आवाज़ कीजिए।

मौन को मुखर कीजिए।