समय के साथ
हवा आती है
और बन्द खिड़कियों से टकराकर
लौट जाती है।
हमें अब
खिड़कियां खोलने की
आदत नहीं रही।
ताज़ी हवा
और पहली बरसात से हमें
सर्दी लग जाती है।
मिट्टी से सौंधी-सौंधी गंध आने पर
हम नाक पर
रुमाल रख लेते हैं
और चढ़ते सूरज की धूप से
लूह लग जाने का
डर लगता है।
फिर खिड़कियां खोल देने पर
हो सकता है
ताज़ी हवा के साथ
कुछ मिट्टी, कुछ कंकड़
कुछ नया-पुराना, कुछ अच्छा-बुरा
भी चला आये।
अब हवा में ये सब
ज़्यादा हो गये हैं
और इन सबको
सहने की हमारी आदत कम।
हम आदी हो गये हैं
पंखे की हवा, बिजली की रोशनी
और फ्रिज के पानी के अपने-आप में बंद।
हवा की छुअन से
नहीं महसूस होती अब
वह मीठी-सी सिहरन
जो मन में उमंग जगाती थी
और अन्तर्मन के तारों को
कोई मीठा गीत गाने के लिए
झंकृत कर जाती थी।
हवा ने भी हमारी ही तरह
बच-बचकर निकलना सीख लिया है
न इस पर किसी का कोई रंग चढ़ता है
और न इसका रंग किसी पर चढ़ता है।
और कौन जीता है
कौन मरता है
किसी को क्या फ़र्क पड़ता है।
हमें भी अब
मौसम के अनुसार जीने की आदत नहीं रही।
इसलिए हमने
हवा को बाहर कर दिया हे
और अपने-आपको
कमरे में बन्द।
हवा के बदलते रुख पर
चर्चा करने के लिए
हमने अपने कमरों को
वातानुकूलित कर लिया है
सावन-भादों, ज्येष्ठ-पौष
सब वातानुकूलित होकर
हमारे कमरों में बन्द हो गये हैं
और हम
अपने-आपमें।