असमंजस
भीड़ से बचते हैं हम
लेकिन
अकेलापन पूछता है
क्या तुम्हारा कोई नहीं।
क्या कहूं
अपने-आप से
या अकेलेपन से।
भीड़ इतनी
कि अपने-पराये की पहचान
कहीं खो गई है।
या तो सब अपने-से लगते हैं
या कोई नहीं।
और भीड़ का तो
कोई चेहरा भी नहीं,
किसे कहूं अपना
और किसे छोड़ दूं।
यह कैसा असमंजस है।