आत्मस्वीकृति

कौन कहता है

कि हमें ईमानदारी से जीना नहीं आता

अभी तो जीना सीखा है हमने।

 

दुकानदार जब सब्जी तोलता है

तो दो चार मटर, एक दो टमाटर

और कुछ छोटी मोटी

हरी पत्तियां तो चखी ही जा सकती हैं।

वैसे भी तो वह ज्यादा भाव बताकर

हमें लूट ही रहा था।

राशन की दुकान पर

और कुछ नहीं तो

चीनी तो मीठी ही है।

 

फिर फल वाले का यह कर्त्तव्य है

कि जब तक हम

फलों को जांचे परखें, मोल भाव करें

वह साथ आये बच्चे को

दो चार दाने अंगूर के तो दे।

और फल चखकर ही तो पता लगेगा

कि सामान लेने लायक है या नहीं

और बाज़ार से मंहगा है।

 

किसे फ़ुर्सत है देखने की

कि सिग्रेट जलाती समय

दुकानदार की माचिस ने

जेब में जगह बना ली है।

और अगर बर्तनों की दुकान पर

एक दो चम्मच या गिलास

टोकरी में गिर गये हैं

तो इन छोटी छोटी चीज़ों में

क्या रखा है

इन्हें महत्व मत दो

इन छोटी छोटी वारदातों को

चोरी नहीं ज़रूरत कहते हैं

ये तो ऐसे ही चलता है।

 

कौन परवाह करता है

कि दफ्तर के कितने पैन, कागज़ और रजिस्टर

घर की शोभा बढ़ा रहे हैं

बच्चे उनसे तितलियां बना रहे हैं

हवाई जहाज़ उड़ा रहे हैं

और उन कागज़ों पर

काले चोर की तस्वीर बनाकर

तुम्हें ही डरा रहे हैं।

लेकिन तुम क्यों डरते हो  ?

कौन पहचानता है इस तस्वीर को

क्योंकि हम सभी का चेहरा

किसी न किसी कोण से

इस तस्वीर के पीछे छिपा है

यह और बात है कि

मुझे तुम्हारा और तुम्हें मेरा दिखा है।

इसलिए बेहतर है दोस्त

हाथ मिला लें

और इस चित्र को

बच्चे की हरकत कह कर जला दें।