मौसम मौसम
जब हम छोटे थे, वैसे बहुत बड़ा तो अपने-आपको मैं अभी भी नहीं मानती, आप मानते हों तो मुझे बता दीजिएगा।
हांॅं, तो जब हम छोटे थे, तो तीन ही मौसम जानते थे, गर्मी, सर्दी और बरसात। और शुद्ध हिन्दी में बरसात के मौसम को मानसून कहा जाता था। ये सावन-भादों जैसे शब्द तो कभी सुने ही नहीं थे। तब बसन्त ऋतु भी नहीं हुआ करती थी। पुस्तकों में अवश्य चार ऋतुओं वर्णित थी, शीत, ग्रीष्म, वर्षा और शरद ऋतु। हिन्दी की कविताओं में सावन और बसन्त शब्द आये होंगे कभी, किन्तु इनका महत्व नहीं था। पन्त, दिनकर आदि छायावादी कवियों ने अवश्य सावन एवं बसन्त पर कविताएॅं लिखीं, पंजाबी गीतों में भी इनका वर्णन है, फ़िल्मी गीतों में भी बसन्त और सावन की झड़ी लगती रही है किन्तु इन्हें कभी इतना महत्व नहीं मिला था। महत्व था तो बस बरसात और सर्दी के मौसम का।
शिमला में एक अगस्त से 15 अगस्त तक बरसात की, और 1 जनवरी से 28 फ़रवरी तक सर्दी की छुट्टियाॅं मिलती थीं, इस कारण हमारे लिए यही ऋतुएॅं महत्व रखती थीं। वहाॅं तो गर्मियों में भी बरसात चली ही रहती थी। हम तो बस इतना जानते थे कि बरसात है तो चाय-पकौड़े, समोसे, गर्मागरम जलेबी, बरसात में भीगना। और सर्दी है तो मूंगफली, गचक, रेवड़ी अंगीठियाॅं और बर्फ़ के मौसम का आनन्द लेना।
यह सावन कब आया, वर्षा ऋतु या बरसात अथवा मानसून सावन में कब बदल गया, कुछ पता ही नहीं लगा। अब सावन का अति शुद्ध महीना, पूजा, व्रत, सोमवार को विशेष पूजा-विधि, खान-पान कुछ नहीं जानते थे हम। शिवरात्रि का ज्ञान भी फ़रवरी-मार्च में आने वाली शिवरात्रि का ही था। सावन की शिवरात्रि तो कभी सुनी ही नहीं थी। हम यात्राओें के बारे में भी नहीं जानते थे। अब जब से फ़ेसबक पर सावन आया तभी से यह ज्ञानवृद्धि भी हुई। हम तो बस हर मौसम का बेधड़क, बेझिझक आनन्द ही लेते थे।
मेरा अध्ययन मुझे यह बताता है कि जबसे फ़ेसबुक का आगमन हुआ तब से सावन और बसन्त शब्दों को महत्व मिला। ये महीने नहीं रह गये, उत्सव बन गये। और उत्सव भी बने तो प्रेम, श्रृंगार, मिलन, विरह, झूले, सखियाॅं। हमारे समय भी झूले होते थे। एक मोटी रस्सी छत से अथवा किसी वृक्ष की मज़बूत डाली पर लटकाकर, उपर तकिया या कोई मोटी चादर तह करके रख दी और बन गया झूला। अब ये रंग-बिरंगे झूले, फूलों से सजे, रंग-बिरंगे परिधान पहने मोहक युवतियाॅं, पता नहीं किस देश से आई हैं।
इसके बाद तीज का पर्व। हमारे समय में भी होता था लेकिन घर के भीतर तक ही। माॅं व्रत रखती थी और छोटी-सी पूजा करती थी। और अरे ! राधा-कृष्ण को मैं कैसे भूल सकती हूॅं। कवियों के पास लिखने के लिए विषयों की झड़ी लग गई। अब पूरा महीना फ़ेसबुक सावनी और प्रेममयी रहेगी।
बहुत अज्ञानी थे हम।
मन की बात तो कहनी ही रह गई। यह एक चिन्तन का विषय है कि हमारा अध्ययन-क्षेत्र आज फ़ेसबुक की रचनाओं तक सीमित रह गया है। और हम अथवा मैं उसी माध्यम से सोचने-समझने लगे हैं।
अब सावन की बात करें तो, फ़ेसबुक पर तो सावन की बौछारें, प्रेम, श्रृंगार, राधा-कृष्ण, झूले, तीज मनाती, गीत गातीं श्रृंगारित महिलाएॅं, और वास्तविक जीवन में उमस, भरी रसोई में रोटी पकातीं स्त्रियाॅं, आती-जाती बिजली से परेशान ज़िन्दगियाॅं, बन्द रास्तों में जाम में उलझते लोग , सड़कों पर भरता पानी, तालाब बनते घर, बेसमैंट में डूबकर मरते बच्चे, गिरते-टूटते पुल, फ़टते बादल, दरकते पहाड़।
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कहते हैं सावन जलता है, यहां तो गली-गली पानी बहता है
प्यार की पींगे चढ़ती हैं, यहां सड़कों पर सैलाब बहता है
जो घर से निकला पता नहीं किस राह लौटेगा बहते-बहते
इश्क-मुहब्बत कहने की बातें, छत से पानी टपका रहता है