बेटा-बेटी एक समान

बेटी ने पूछा

मां, बेटा-बेटी एक समान!

मां बोली,

हां हां, बेटा-बेटी एक समान!

बेटी बोली,

मां तो अब से कहना

मैं अपने बेटे को

बेटी समान मानती हूं।

 

अंधेरों से जूझता है मन

गगन की आस हो या चांद की,

धरा की नज़दीकियां छूटती नहीं।

मन उड़ता पखेरु-सा,

डालियों पर झूमता,

संजोता ख्वाब कोई।

अंधेरों से जूझता है मन,

संजोता है रोशनियां,

दूरियां कभी सिमटती नहीं,

आस कभी मिटती नहीं।

चांद है या ख्वाब कोई।

रोशनी है आस कोई।

 

किससे क्या कहें हम

लाशों पर शहर नहीं बसते

बाले-बरछियों से घर नहीं बनते

फ़सलों में पानी की ही तरावट चाहिए

रक्त से बीज नहीं पनपते।

कब कौन किसको समझाये यह

हमें तो यह भी नहीं पता

कि कौन शत्रु

और कौन मित्र बनकर लड़ते।

जिनसे आज करते हैं मैत्री समझौता

वे ही कल शत्रु बन बरसते।

अस्त्रों-शस्त्रों से घरों की सजावट नहीं होती

और दूसरों के कंधों पर दुनिया नही चलती।

अपनी-अपनी कोशिश

हमने जब भी

उठकर

खड़े होने की कोशिश की

तुमने हमें

मिट्टी मे मिला देना चाहा।

लेकिन

तुम यह बात भूल गये

कि मिट्टी में मिल जाने पर ही

एक छोटा-सा बीज

विशाल वृक्ष का रूप

धारण कर लेता है।

 

प्रतिष्ठा

उस अधिकार को पाने के लिए

जो तुम्हारा नहीं है;

दूसरे का अधिकार छीनने के लिए

जो तुम्हारे वश में नहीं है

बोलते रहा, बोलते रहो।

बोलत-बोलते

जब ज़बान थक जाये

तो गाली देना शुरु कर दो।

गाली देते-देते

जब हिम्मत चुक जाये

तब हाथापाई पर उतर आओ।

और जब लगे

कि हाथापाई में

सामने वाला भारी पड़ गया है

तो दो कदम पीछे हटकर

हाथ झाड़ लो -

- लो छोड़ दिया मैंने तुम्हें

- आओ, समझौता कर लें

फिर समझौते की शतें

उसके सिर पर लाद दो।

 

जीवन का  अर्थ

मैं अक्सर

बहुत-सी बातें

नहीं समझ पाती हूं।

और यह बात भी

कुछ ऐसी ही है

जिसे मैं नहीं समझ पाती हूं।

बड़े-बड़े

पण्डित-ज्ञानी कह गये

मोह-माया में मत पड़ो,

आसक्ति से दूर रहो,

न करो किसी से अनुराग।

विरक्ति बड़ी उपलब्धि है।

तो

इस जीवन का क्या अर्थ?

 

कोई बतायेगा मुझे !!!

 

हम किसे फूंकें

कहते हैं

दूध का जला

छाछ को  भी

फूंक-फूंक कर पीता है

किन्तु हम तो छाछ के जले हैं

हम किसे फूंकें

बतायेगा कोई

उड़ान चाहतों की

दिल से भरें

उड़ान

चाहतों की

तो पर्वतों को चीर

रंगीनियों में

छू लेगें आकाश।

 

चालें चलते

भेड़ें अब दिखती नहीं

भेड़-चाल रह गई है।

किसके पीछे

किसके आगे

कौन चल रहा

देखने की बात

रह गई है।

भेड़ों के अब रंग बदल गये

ऊन उतर गई

चाल बदल गई

पहचान कहां रह गई है।

किसके भीतर कौन सी चाल

कहां समझ रह गई है।

चालें चलते, बस चालें चलते

समझ-बूझ कहां रह गई है।

 

आया कोरोना

घर में कहां से घुस आया कोरोना

हम जानते नहीं।

दूरियां थीं, द्वार बन्द थे,

 डाक्टर मानते नहीं।

कहां हुई लापरवाही,

 कहां से कौन लाया,

पता नहीं।

एक-एक कर पांचों विकेट गिरे,

अस्पताल के चक्कर काटे,

जूझ रहे,

फिर हुए खड़े,

हार हम मानते नहीं।

प्रकृति मुस्काती है

मधुर शब्द

पहली बरसात की

मीठी फुहारों-से होते हैं

मानों हल्के-फुल्के छींटे,

अंजुरियों में

भरती-झरती बूंदें

चेहरे पर रुकती-बहतीं,

पत्तों को रुक-रुक छूतीं

फूलों पर खेलती,

धरा पर भागती-दौड़ती

यहां-वहां मस्ती से झूमती

प्रकृति मुस्काती है

मन आह्लादित होता है।

 

ले जीवन का आनन्द

सपनों की सीढ़ी तानी

चलें गगन की ओर

लहराती बदरियां

सागर की लहरियां

चंदा की चांदनी

करती उच्छृंखल मन।

लरजती डालियों से

झांकती हैं रोशनियां

कहती हैं

ले जीवन का आनन्द।

 

प्रेम-सम्बन्ध

 

दो क्षणिकाएं

******-******

प्रेम-सम्बन्ध

कदम बहके

चेहरा खिले

यूं ही मुस्काये

होंठों पर चुप्पी

पर आंखें

कहां मानें

सब कह डालें।

*-*

प्रेम-सम्बन्ध

मानों बहता दरिया

शीतल समीर

बहकते फूल

खिलता पराग

ठण्डी छांव

आकाश से

बरसते तुषार।

 

कुछ नया

मैं,

निरन्तर

टूट टूटकर,

फिर फिर जुड़ने वाली,

वह चट्टान हूं

जो जितनी बार टूटती है

जुड़ने से पहले,

उतनी ही बार

अपने भीतर

कुछ नया समेट लेती है।

मैं चाहती हूं

कि तुम मुझे

बार बार तोड़ते रहो

और  मैं

फिर फिर जुड़ती रहूं।

जब प्रेम कहीं से मिलता है

अनबोले शब्दों की चोटें

भावों को ठूंठ बना जाती हैं।

कब रस-पल्लव झड़ गये

जान नहीं पाते हैं।

जब प्रेम कहीं से मिलता है,

तब मन कोमल कोंपल हो जाता है।

रूखे-रूखे भावों से आहत,

मन तरल-तरल हो जाता है।

बिखरे सम्बन्धों के तार कहीं जुड़ते हैं।

जीवन हरा-भरा हो जाता है।

मुस्काते हैं कुछ नव-पल्ल्व,

कुछ कलियां करवट लेती हैं,

जीवन इक खिली-खिली

बगिया-सा हो जाता है।

    

चांद मानों मुस्कुराया

चांद मानों हड़बड़ाया

बादलों की धमक से।

सूरज की रोशनी मिट चुकी थी,

चांद मानों लड़खड़ाया

अंधेरे की धमक से।

लहरों में मची खलबली,

देख तरु लड़खड़ाने लगे।

जल में देख प्रतिबिम्ब,

चांद मानों मुस्कुराया

अपनी ही चमक से।

अंधेरों में भी रोशनी होती है,

चमक होती है, दमक होती है,

यह समझाया हमें चांद ने

अपनेपन से  मनन  से ।

झुकना तो पड़ता ही है

कहां समय  मिलता है

कमर सीधी करने का।

काम कोई भी करें,

घर हो या खलिहान,

झुकना तो पड़ता ही है,

झुककर ही

काम करना पड़ता है।

फिर धीरे-धीरे

आदत हो जाती है,

झुके रहने की।

और फिर एक  समय

ऐसा  आता है

कि सिर उठाकर

चलना ही भूल जाती हैं।

फिर,

कहां कभी सिर  उठाकर

चल पाती हैं।

 

मुस्कानों की भाषा लिखूं

छलक-छलक-छलकती बूंदें,

मन में रस भरती बूंदें

लहर-लहर लहराता आंचल

मन हरषे जब घन बरसे

मुस्कानों की भाषा लिखूं

हवाओं संग उड़ान भरूं मैं

राग बजे और साज बजे

मन ही मन संगीत सजे

धारा संग बहती जाती

अपने में ही उड़ती जाती

कोई न रोके कोई न टोके

जीवन-भर ये हास सजे।

 

कुछ यादें

काश !

भूल पाते

कुछ यादें, कुछ बातें

तो आज जि़न्‍दगी

कितनी आसान होती

कुछ भूलें तुमने की

कुछ भूलें हमने  की।

कुछ की गठरी

तुमने अपनी पीठ पर बांध ली

और कुछ की मैंने

और विपरीत दिशा में चल दिये

 

 

कुछ भूलें

 

कुछ भूलें हमसे हुई होंगी

कुछ भूलें उनसे हुईं होंगीं

गिला हम करते नहीं,

पर इंतज़ार करते रहे

कि  करेंगे वे गिला

बड़ी जल्‍दी भूल जाते हैं

वे  अपनी गलतियों को,

पर औरों की भूलों को

कहानी की तरह

याद रखते हैं

 

फिर आ गये वे दस दिन

फिर आ गये वे दस दिन

पूजा-अर्चना ,

व्रतोपवास,

निराहार, निरामिष,

मितभाषी, पूजा-पाठी,

राम-नाम, बस मां का नाम।

कन्या-पूजन,चरण-वन्दना।

 

फिर तिरोहित कर देंगे जल में।

 

और हम मुक्त हो जायेंगे

फिर,

कंस, दुर्योधन, दुःशासन    ,

रावण बनने के लिए।

 

मन गीत गुने

मृदंग बजे

सुर-साज सजे

मन-मीत मिले

मन गीत गुने

निर्जन वन में

वन-फूल खिले

अबोल बोले

मन-भाव बने

इस निर्जन में

इस कथा कहे

अमर प्रेम की

 

बैठे-ठाले यूं ही

अदृश्‍य,

एक छोटा-सा मन।

भाव,

सागर की अथाह जलराशि-से।

न डूबें, न उतरें।

तरल-तरल, बहक-बहक।

विशालकाय वृक्ष से

कभी सम्‍बल देते।

और कभी अनन्‍त शाखाओं से

इधर-उधर भटकन।

जल अतल, थल विस्‍तारित

कभी भंवर, कभी बवंडर

कुछ रंग, कुछ बेरंग  

बस

बैठे-ठाले यूं ही।

 

 

वह घाव पुराना

अपनी गलती का एहसास कर

सालता रहता है मन,

जब नहीं होता है काफ़ी

अफ़सोस का मरहम।

और कई बातों का जब

लग जाता है बन्धन

तो भूल जाती है वह घुटन।

लेकिन होता है जब कोई

वैसा ही एहसास दुबारा,

नासूर बन जाता है

तब वह घाव पुराना।

 

असम्भव

उस दिन मैंने

एक सुन्दर सी कली देखी।

उसमें जीवन था और ललक थी।

आशा थी,

और जिन्दगी का उल्लास,

यौवन से भरपूर,

पर अद्भुत आश्चर्य,

कि उसके आस पास

कितने ही लोग थे,

जो उसे देख रहे थे।

उनके हाथ लम्बे,

और कद उंचे।

और वह कली,

फिर भी डाली पर

सुरक्षित थी।

 

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शहर के बीचों बीच,

चौराहे पर,

हनुमान जी की मूर्ति

खड़ी थी।

गदा

ज़मीन पर टिकाये।

दूसरा हाथ

तथास्तु की मुद्रा में।

साथ की दीवार लिखा था,

गुप्त रोगी मिलें,

हर मंगलवार,

बजरंगी औषधालय,

गली संकटमोचन,ऋषिकेश।

 

 

 

ज़िन्दगी क्यों हारती है

अपने मन के भावों को

परखने के लिए

हम औरों की नज़र

मांगते हैं,

इसीलिए

ज़िन्दगी हारती है।

 

अपने-आप से मिलना

 

मन के भीतर

एक संसार है

जो केवल मेरा है।

उससे मिलने के लिए

मुझे

अपने-आप से मिलना होता है

बुरा मत मानना

तुमसे विलग होना होता है।

 

सब ठीक है

ये आकाश

आज छोटा कैसे हो गया।

तारों का झुरमुट

क्यों आज द्युतिहीन हो गया।

चंदा की चांदना

धूमिल-सी दिखती है,

सूरज आज कैसे

थका-थका-सा हो गया।

.

शायद सब ठीक है,

मेरा ही मन व्यथित है।

 

रोशनी की एक लकीर

राहें कितनी भी सूनी हों

अंधेरे कितने भी गहराते हों

वक्त के किसी कोने से

रोशनी की एक लकीर

कभी न कभी,

ज़रूर निकलती ही है।

फिर वह एक रेखा हो,

चांद का टुकड़ा

अथवा चमकता सूरज।

इसलिए कभी भी

निराश न होना

अपने जीवन के सूनेपन से

अथवा अंधेरों से

और साथ ही

ज़रूरत से ज़्यादा रोशनी से भी ।