सन्दर्भ तो बहुत थे

जीवन में

सन्दर्भ तो बहुत थे

बस उनको भावों से

जोड़ ही नहीं पाये।

कब, कहाँ, कौन-सा

सन्दर्भ छूट गया,

कौन-सा विफ़ल रहा,

समझ ही नहीं पाये।

ऐसा क्यों हुआ

कि प्रेम, मनुहार

अपनापन

विश्वास और आस भी

सन्दर्भ बनते चले गये

और हम जीवन-भर

न जाने कहाँ-कहाँ

उलझते-सुलझते रह गये।