असम्भव
उस दिन मैंने
एक सुन्दर सी कली देखी।
उसमें जीवन था और ललक थी।
आशा थी,
और जिन्दगी का उल्लास,
यौवन से भरपूर,
पर अद्भुत आश्चर्य,
कि उसके आस पास
कितने ही लोग थे,
जो उसे देख रहे थे।
उनके हाथ लम्बे,
और कद उंचे।
और वह कली,
फिर भी डाली पर
सुरक्षित थी।
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शहर के बीचों बीच,
चौराहे पर,
हनुमान जी की मूर्ति
खड़ी थी।
गदा
ज़मीन पर टिकाये।
दूसरा हाथ
तथास्तु की मुद्रा में।
साथ की दीवार लिखा था,
गुप्त रोगी मिलें,
हर मंगलवार,
बजरंगी औषधालय,
गली संकटमोचन,ऋषिकेश।
ज़िन्दगी क्यों हारती है
अपने मन के भावों को
परखने के लिए
हम औरों की नज़र
मांगते हैं,
इसीलिए
ज़िन्दगी हारती है।
अपने-आप से मिलना
मन के भीतर
एक संसार है
जो केवल मेरा है।
उससे मिलने के लिए
मुझे
अपने-आप से मिलना होता है
बुरा मत मानना
तुमसे विलग होना होता है।
सब ठीक है
ये आकाश
आज छोटा कैसे हो गया।
तारों का झुरमुट
क्यों आज द्युतिहीन हो गया।
चंदा की चांदना
धूमिल-सी दिखती है,
सूरज आज कैसे
थका-थका-सा हो गया।
.
शायद सब ठीक है,
मेरा ही मन व्यथित है।
रोशनी की एक लकीर
राहें कितनी भी सूनी हों
अंधेरे कितने भी गहराते हों
वक्त के किसी कोने से
रोशनी की एक लकीर
कभी न कभी,
ज़रूर निकलती ही है।
फिर वह एक रेखा हो,
चांद का टुकड़ा
अथवा चमकता सूरज।
इसलिए कभी भी
निराश न होना
अपने जीवन के सूनेपन से
अथवा अंधेरों से
और साथ ही
ज़रूरत से ज़्यादा रोशनी से भी ।
लिखने के लिए
कविता लिखने के लिए
शब्दों की एक सीमा है
मेरे भीतर,
जो कट जाती है उस समय ,
जब मुझे कविता नहीं लिखनी होती।
मरना बड़ा जरूरी है
जब-जब
जीने का प्रयास किया मैंने,
तब-तब
मुझे बता दिया गया,
कि ज़िन्दगी में
मरना बड़ा जरूरी है।
यह ज़रूरी नहीं कि
आप ज़िन्दगी में
एक ही बार मरें,
ज़िन्दा रहते हुए भी
बार-बार
मरने के अनेक रास्ते हैं ।
ज़िंदा रहते हुए भी
मरना ही तो
असली मौत है ।
जिसे हम स्वयं भोगते हैं।
वह मौत क्या
जिसे और लोग भुगतें।
निर्दोष
तुमने,
मुझसे उम्मीदें की।
मैंने,
तुम्हारे लिए
उम्मीदों के बीज बोये।
फिर, उन पर
डाल दिया पानी।
अब,
बीज नहीं उगे,
तो, मेरा दोष कहां !
-
न होना
किसी का
न होना,
नहीं होता
इतना दुःखदायी,
जितना किसी के
होते हुए भी,
न होने के
बराबर होना।
दुनिया कहती है
काश !
लौट आये
अट्ठाहरवीं शती ।
गोबर सानती,
उपले बनाती,
लकडि़या चुन,ती
वन-वन घूमती ।
पांच हाथ घूंघट ओढ़ती,
गागर उठा कुंएं से पानी लाती,
बस रोटियां बनाती,
खिलाती और खाती।
रोटियां खाती, खिलाती और बनाती।
सच ! कितनी सही होती जि़न्दगी।
-
दुनिया कहती है
बाकी सब तो मर्दों के काम हैं।
अपनापन
जब किसी अपने
या फिर
किसी अजनबी के साथ
समय का
अपनत्व होने लगता है,
तब जीवन की गाड़ी
सही पहियों पर
आप ही दौड़ने लगती है,
और गंतव्य तक
सुरक्षित
लेकर ही जाती है।
हाथों में हाथ हो
जब अपनों का साथ हो
हाथों में हाथ हो
तब धरा से गगन तक
मार्ग सुगम हो जाते हैं
चांद राहें रोशन करता है
ज्वार भावनाओं का
उमड़ता है
राहों में फूल बिछते हैं
दिल से दिल मिलते हैं
-
तो तुम्हें क्या ! ! ! !
वक्त कहां किसी का
वक्त को
जब मैं वक्त नहीं दे पाई
तो वह कहां मेरा होता ।
कहा मेरे साथ चल, हंस दिया।
कहा, ठहर ज़रा,
मैं तैयार तो हो लूं
साथ तेरे चलने के लिए,
उपहास किया मेरा।
जब आग लगती है
किसी आग में घर उजड़ते हैं ।
कहीं किसी के भाव जलते हैं ।
जब आग लगती है किसी वन में
मन के संताप उजड़ते हैं ।
शेर-चीतों को ले आये हम
अभयारण्य में ।
कोई बताये मुझे
क्या कहूं उस चिडि़या से,
किसी वृक्ष की शाख पर,
जिसके बच्चे पलते हैं ।
अनुभव की बात है
कभी किसी ने कह दिया
एक तिनके का सहारा भी बहुत होता है।
किस्मत साथ दे ,
तो सीखा हुआ
ककहरा भी बहुत होता है।
लेकिन पुराने मुहावरे
ज़िन्दगी में सदा साथ नहीं देते ।
यूं तो बड़े-बड़े पहाड़ों को
यूं ही लांघ जाता है आदमी ,
लेकिन कभी-कभी
एक तिनके की चोट से
घायल मन
हर आस-विश्वास खोता है।
मधुर-मधुर पल
प्रकृति अपने मन से
एक मुस्कान देती है।
कुछ रंग,
कुछ आकार देती है।
प्यार की आहट
और अपनेपन की छांव देती है।
कलियां
नवजीवन की आहट देती हैं।
खिलते हैं फूल
जीवन का आसार देती हैं।
जब गिरती हैं पत्तियां
रक्तवर्ण
मन में एक चाहत का भास देती हैं।
समेट लेती हूं मुट्ठी में
मधुर-मधुर पलों का आभास देती हैं।
तीर खोज रही मैं
गहरे सागर के अंतस में
तीर खोज रही मैं।
ठहरा-ठहरा-सा सागर है,
ठिठका-ठिठका-सा जल।
कुछ परछाईयां झलक रहीं,
नीरवता में डूबा हर पल।
-
चकित हूं मैं,
कैसे द्युतिमान जल है,
लहरें आलोकित हो रहीं,
तुम संग हो मेरे
क्या यह तुम्हारा अक्स है?
नेह का बस एक फूल
जीवन की इस आपाधापी में,
इस उलझी-बिखरी-जि़न्दगी में,
भाग-दौड़ में बहकी जि़न्दगी में,
नेह का बस कोई एक फूल खिल जाये।
मन संवर संवर जाता है।
पत्ती-पत्ती , फूल-फूल,
परिमल के संग चली एक बयार,
मन बहक बहक जाता है।
देखएि कैसे सब संवर संवर जाता है।
नेह की पौध
हृदय में अंकुरित होती है
जब नेह की पौध,
विश्रृंखलित होते हैं मन के भाव ,
लेने लगते हैं आकार।
पुष्पित –पल्लवित होती हैं
कुछ भाव लताएं।
द्युतिमान होता है मन का आकाश।
नीलाभ आकाश और धरा,
जीवन आलोकित करते हैं।
मन में एक विश्चास हो
चल आज
इन उमड़ते-घुमड़ते बादलों
में जीवन का
एक मधुर चित्र बनायें।
सूरज की रंगीनियां
बादलों की अठखेलियां
किरणों से बनायें।
दूरियां कितनी भी हों,
जब हाथ में हाथ हो,
मन में एक विश्चास हो,
सहज-सरल-सरस
भाव हों,
बस , हम और आप हों।
न छूट रहे लगाव थे
कुछ कहे-अनकहे भाव थे।
कुछ पंख लगे चाव थे।
कुछ शब्दों के साथ थे।
कुछ मिट गये लगाव थे।
कुछ को शब्द मिले थे।
कुछ सूख गये रिसाव थे।
आधी नींद में देखे
कुछ बिखरे-बिखरे ख्वाब थे।
नहीं पलटती अब मैं पन्ने,
नहीं संवारती पृष्ठ।
कहीं धूल जमी,
कहीं स्याही बिखरी।
किसी पुरानी-फ़टी किताब-से,
न छूट रहे लगाव थे।
तलाश
वे और थे
जो मंज़िल की तलाश में
भटका करते थे।
आज तो
मंज़िल मेरी तलाश में है।
क्योंकि
मंज़िल तक
कोई पहुंचता ही नहीं।
आत्ममूल्यांकन
अत्यन्त सरल है
मेरे लिए
तुम्हारे गुण दोष
रूप रंग, चाल ढाल
उठने बैठने, बातचीत करने
और तुम्हारी अन्य सभी
बातों का निरूपण करना।
किन्तु ऐसा तो सभी कर लेते हैं,
तुम कुछ अलग करके देखो।
दर्पण देखना सीखो।
क्या होगा वक्त के उस पार
वक्त के इस पार ज़िन्दगी है,
खुशियां हैं वक्त के इस पार।
दुख-सुख हैं, आंसू, हंसी है,
आवागमन है वक्त के इस पार।
कल किसने देखा है,
कौन जाने क्या होगा,
क्यों सोच में डूबे,
आज को जी लेते हैं,
क्यों डरें,
क्या होगा वक्त के उस पार।
ज़िन्दगी कोई गणित नहीं
ज़िन्दगी
जब कभी कोई
प्रश्नचिन्ह लगाती है,
उत्तर शायद पूर्वनिर्धारित होते हैं।
यह बात
हम समझ ही नहीं पाते।
किसी न किसी गणित में उलझे
अपने-आपको महारथी समझते हैं।
बांसुरी अब भावशून्य हो गई
कृष्ण तेरी बांसुरी अब
भावशून्य हो गई।
राधा तेरे नृत्य की गति भी
कहीं खो गई।
छोड़ अब ये रास लीला,
प्रेम मनुहार की बातें।
चक्र उठा,
कंस, दु:शासन,दुर्योधनों की
भीड़ भारी हो गई।
क्यों न कहे
आंखें देखती हैं,
कान सुनते हैं,
दिल जलता है,
माथा तपता है,
सब चुपचाप चलता है।
.
किन्तु यह जिह्वा
सह नहीं पाती,
सब कह बैठती है।
गगन
गगन
बादलों के आंचल में
चांद को समेटकर
छुपा-छुपाई खेलता रहा।
और हम
घबराये,
बौखलाये-से
ढूंढ रहे।
गगन 1
गगन के आंचल में
चांद खेलता।
बिखेरता चांदनी,
जीवन हमारा
दमकता।