आज जब सच कहने की बात हुई
आज जब
सच कहने की बात हुई
तो अचानक एक शोर उठ खड़ा हुआ।
लोगों के चेहरे क्रोध से तमतमाने लगे।
तरह तरह की बातें होने लगीं।
मेरे व्यक्तित्व पर उंगलियां उठने लगीं।
लोग
मेरे चारों ओर लामबन्द होने लगे।
इधर उधर देखा
तो न जाने कौन-कौन
मेरे पास आ गये।
उनके हाथों में झण्डे थे और तख्तियां थीं
उन पर
सच बोलने के वादे थे, और इरादे थे।
कुछ नारे थे
और मेरे लिए कुछ इशारे थे।
अरे ! तुम तो
ज़रा सी बात पर यूं ही
भावुक हो जाती हो
कि ज़रा सा किसी ने उकसाया नहीं
कि सच बोलने पर उतारू हो जाती हो।
मेरे हाथ में उन्होंने
एक पूरी सूची थमा दी।
हर युग में झूठ की ही तो
सदा जीत होती रही है।
और यह तो
वैसे भी कलियुग है।
नारों में जिओ, वादों में जिओ
धोखे में जिओ, झूठ को पियो।
फिर अचानक भीड़ बढ़ गई।
मानों कोई मेला लगा हो।
लोग वैसे ही आनन्दित हो रहे थे
मानों रावण दहन चल रहा हो।
सुना होगा आपने
कि रावण-दहन की लकड़ियां
घर में रखने से खुशहाली होती है
और बुरी बलाएं भाग जाती हैं।
और तभी मेरी देह के टुकड़े-टुकड़े होकर
हवा में उड़ने लगे
लोग भागने लगे।
जिसके हाथ जो लगा, ले गये।
घर में रखेंगे इन अवशेषों को।
दरवाज़े के बाहर टांगेगे
नजरबट्टू बनाकर।
बताएंगे अगली पीढ़ी को
हमारे ज़माने में
ऐसे भी लोग हुआ करते थे।
और शायद एक समय बाद
लाखों करोड़ों कीमत भी मिल जाये
एक पुरातन संग्रहीत वस्तु के रूप में।