जब नर या कुंजर कहा गया

महाभारत का युद्ध पलट गया जब नर या कुंजर कहा गया।

गज-गामिनी, मदमस्त चाल कहने वाला कवि आज कहां गया।

नहीं भाते इसे मानव-निर्मित वन-अभयारण्य, जल-स्त्रोत यहां।

मुक्त जीव, जब मूड बना, तब मनमौजी हर की पौड़ी नहा गया।

छोटे-छोटे घर हैं छोटे-छोटे सपने

छोटे-छोटे घर हैं, छोटे-छोटे सपने

घर के भीतर रहते हैं यहां सब अपने

न ताला-चाबी, न द्वार, न चोर यहां

फूलों से सज्जित, ये घर सुन्दर कितने

मौसम के रूप समझ न  आयें

कोहरा है या बादलों का घेरा, हम बनते पागल।

कब रिमझिम, कब खिलती धूप, हम बनते पागल।

मौसम हरदम नये-नये रंग दिखाता, हमें भरमाता,

मौसम के रूप समझ न  आयें, हम बनते पागल।

सच्चाई से भाग रहे

मुख देखें बात करें।

सुख देखें बात करें।

सच्चाई से भाग रहे,

धन देखें बात करें।

किसे अपना समझें किसे पराया

किसे अपना समझें किसे पराया 

मन के द्वार पर पहरे लगाकर बैठे हैं आज।

कोई भाव पढ़ न ले, गांठ बांध कर बैठे हैं आज।

किसे अपना समझें, किसे पराया, समझ नहीं,

अपनों को ही पराया समझ कर बैठे हैं आज।

स्वर्गिक सौन्दर्य रूप

रूईं के फ़ाहे गिरते थे  हम हाथों से सहलाते थे।

वो हाड़ कंपाती सर्दी में बर्फ़ की कुल्फ़ी खाते थे।

रंग-बिरंगी दुनिया श्वेत चादर में छिप जाती थी,

स्वर्गिक सौन्दर्य-रूप, मन आनन्दित कर जाते थे।

कामधेनु कुर्सी बनी

 

समुद्र मंथन से मिली सुरभि, मनोकामनाएं पूरी थी करती,

राजाओं, ऋषियों की स्पर्धा बनी, मान दिलाया थी करती,

गायों को अब कौन पूछता, अब कुर्सी की बात करो यारो,

कामधेनु कुर्सी बनी, इसके चैपायों की पूजा दुनिया करती।

इंसान को न धिक्कारो यारो

 

आत्माओं का गुणगान करके इंसान को न धिक्कारो यारो

इंसानियत की नीयत और गुणों में पूरा विश्वास करो यारो

यह जीवन है, अच्छा-बुरा, ,खरा-खोटा तो चला रहेगा

अपनों को अपना लो, फिर जीवन सुगम है, समझो यारो।

कहां गये वे दिन  बारिश के

 

कहां गये वे दिन जब बारिश की बातें होती थीं, रिमझिम फुहारों की बातें होती थीं,

मां की डांट खाकर भी, छिप-छिपकर बारिश में भीगने-खेलने  की बातें होती थीं

अब तो बारिश के नाम से ही  बाढ़, आपदा, भूस्खलन की बातों से मन डरता है,

कहां गये वे दिन जब बारिश में चाट-पकौड़ी खाकर, आनन्द मनाने की बातें होती थीं।

जब तक जीवन है मस्ती से जिये जाते हैं

कितना अद्भुत है यह गंगा में पाप धोने, डुबकी लगाने जाते हैं।

कितना अद्भुत है यह मृत्योपरान्त वहीं राख बनकर बह जाते हैं।

कितने सत्कर्म किये, कितने दुष्कर्म, कहां कर पाता गणना कोई।

पाप-पुण्य की चिन्ता छोड़, जब तक जीवन है, मस्ती से जिये जाते हैं।

मैंने तो बस यूं बात की

न मिलन की आस की , न विरह की बात की

जब भी मिले बस यूं ही ज़रा-सी बात ही बात की

ये अच्‍छा रहा, न चिन्‍ता बनी, न मन रमा कहीं

कुछ और न समझ लेना मैंने तो बस यूं बात की

हंस-हंसकर बीते जीवन क्‍या घट जायेगा

 

यह मन अद्भुत है, छोटी-छोटी बातों पर रोता है

ज़रा-ज़रा-सी बात पर यूं ही शोकाकुल होता है

हंस-हंसकर बीते जीवन तो तेरा क्‍या घट जायेगा

गाल फुलाकर जीने से जीवन न बेहतर होता है

बिन मौसम ही कलियां फूल बनीं हैं

मन के मौसम ने करवट सी-ली है

बासन्ती रंगों ने आहट सी-ली है

बिन मौसम ही कलियां फूल बनीं हैं

उनकी नज़रों ने एक चाहत सी-ली है

प्रलोभनों के पीछे भागता मन

सर्वाधिकार की चाह में बहुत कुछ खो बैठते हैं

और-और की चाह में हर सीमा तोड़ बैठते हैं

प्रलोभनों के पीछे भागता मन, वश कहां रहा

अच्‍छे-बुरे की पहचान भूल, अपकर्म कर बैठते हैं

मन भटकता है यहां-वहां

अपने मन पर भी एकाधिकार कहां

हर पल भटकता है देखो यहां-वहां

दिशाहीन हो, इसकी-उसकी सुनता

लेखन में बिखराव है तभी तो यहां

ठिठुरी ठिठुरी धूप है कुहासे से है लड़ रही

ठिठुरी ठिठुरी धूप है, कुहासे से है लड़ रही

भाव भी हैं सो रहे, कलम हाथ से खिसक रही

दिन-रात का भाव एकमेक हो रहा यहां देखो

कौन करे अब काम, इस बात पर चर्चा हो रही

अतिथि तुम तिथि देकर आना

शीत बहुत है, अतिथि तुम तिथि देकर आना

रेवड़ी, मूगफ़ली, गचक अच्‍छे से लेकर आना

लोहड़ी आने वाली है, खिचड़ी भी पकनी है

पकाकर हम ही खिलाएंगे, जल्‍दी-जल्‍दी जाना

कौन हैं अपने कौन पराये

कुछ मुखौटै चढ़े हैं, कुछ नकली बने हैं

किसे अपना मानें, कौन पराये बने हैं

मीठी-मीठी बातों पर मत जाना यारो

मानों खेत में खड़े बिजूका से सजे हैं

झूठ के आवरण चढ़े हैं

चेहरों पर चेहरे चढ़े हैं

असली तो नीचे गढ़े हैं

कैसे जानें हम किसी को

झूठ के आवरण चढ़े हैं

कभी कांटों को सहेजकर देखना

फूलों का सौन्दर्य तो बस क्षणिक होता है

रस रंग गंध सबका क्षरण होता है

कभी कांटों को सहेजकर देखना

जीवन भर का अक्षुण्ण साथ होता है

चाय सुबह मिले या शाम को

सुबह की चाय और मीठी नींद की बात ही कुछ और है।

एक से बात कहां बनती है, दो-चार का तो चले दौर है।

ठीक नशे का काम करती है चाय, सुबह मिले या शाम को,

कितनी भी मिल जाये तो भी मन पूछता है, और है? और है?

 

मन आनन्दित होता है

लेन-देन में क्या बुराई

जितना चाहो देना भाई

मन आनन्दित होता है

खाकर पराई दूध-मलाई

तुम तो चांद से ही जलने लगीं

तुम्हें चांद क्या कह दिया मैंने, तुम तो चांद से ही जलने लगीं

सीढ़ियां तानकर गगन से चांद को उतारने की बात करने लगीं

अरे, चांद का तो हर रात आवागमन रहता है टिकता नहीं कभी

हमारे जीवन में बस पूर्णिमा है,इस बात को क्यों न समझने लगीं

अपमान-सम्मान की परिभाषा क्या करे कोई

बस दो अक्षर का फेर है और भाव बदल जाता है

दिल को छू जाये बात तो अंदाज़ बदल जाता है

अपमान-सम्मान की परिभाषा क्या करे कोई

साथ-साथ चलते हैं दोनों, कौन समझ पाता है

नाप-तोल के माप बदल गये

नाप-तोल के माप बदल गये, सवा सेर अब रहे नहीं

किसको नापें किसको तोलें, यह समझ तो रही नहीं

मील पत्थर सब टूट गये, तभी तो राहों से भटक रहे

किसको परखें किसको छोड़ें, अपना ही जब पता नहीं

वादों की फुलवारी

यादों का झुरमुट, वादों की फुलवारी

जीवन की बगिया , मुस्कानों की क्यारी

सुधि लेते रहना मेरी पल-पल, हर पल

मैं तुझ पर, तू मुझ पर हर पल बलिहारी

प्यार का रस घोला होता

दिल में झांक कर देखा होता तो आज यह हाल न होता

काट कर रख दिये सारे अरमान जग यह बेहाल न होता

यह मिठास तो चुक जायेगी मौसम बदलने के साथ ही

प्यार का रस घोला होता तो आज यह हाल न होता

कहना सबका काम है कहने दो

लोक लाज के भय से करो न कोई काम

जितनी चादर अपनी, उतने पसारो पांव

कहना सबका काम है कहने दो कुछ भी

जो जो मन को भाये वही करो तुम काम

बस बातों का यह युग है

हाथ में लतवार लेकर अमन की बात करते हैं

प्रगति के नाम पर विज्ञापनों में बात करते हैं

आश्वासनों, वादों, इरादों, हादसों का यह युग है

हवा-हवाई में नियमित मन की बात करते हैं

अधिकारों की बात करें

अधिकारों की बात करें, कर्त्तव्यों का बोध नहीं

झूठ का पलड़ा भारी है, सत्य का है बोध नहीं

औरों के कंधे पर रख बन्दूक चलानी आती है

संस्कारों की बात करें, व्यवहारों का बोध नहीं