ज़िन्दगी जीने के लिए क्या ज़रूरी है
कितना अच्छा लगता है,
और कितना सम्मानजनक,
जब कोई कहता है,
चलो आज शाम
मिलते हैं कहीं बाहर।
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बाहर !
बाहर कोई पब,
शराबखाना, ठेका
या कोई मंहगा होटल,
ये आपकी और उनकी
जेब पर निर्भर करता है,
और निर्भर करता है,
सरकार से मिली सुविधाओं पर।
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एक सौ गज़ पर
न अस्पताल मिलेंगे,
न विद्यालय, न शौचालय,
न विश्रामालय।
किन्तु मेरे शहर में
खुले मिलेंगे ठेके, आहाते, पब, होटल,
और हुक्का बार।
सरकार समझती है,
आम आदमी की पहली ज़रूरत,
शराब है न कि राशन।
इसीलिए,
राशन से पहले खुले थे ठेके।
और शायद ठेके की लाईन में
लगने से
कोरोना नहीं होता था,
कोरोना होता था,
ठेला चलाने से,
सब्ज़ी-भाजी बेचने से,
छोटे-छोटे श्रम-साधन करके
पेट भरने वालों से।
इसीलिए सुरक्षा के तौर पर
पहले ठेके पर जाईये,
बाद में घर की सोचिए।
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ज़िन्दगी जीने के लिए क्या ज़रूरी है
कौन लेगा यह निर्णय।