रेखाएं बोलती हैं

घर की सारी

खिड़कियां-दरवाज़े

बन्द रखने पर भी

न जाने कहां से

धूल आ पसरती है

भीतर तक।

जाने-अनजाने

हाथ लग जाते हैं।

शीशों पर अंगुलियां घुमाती हूं,

रेखाएं खींचती हूं।

गर्द बोलने लगती है,

आकृतियों में, शब्दों में।

गर्द उड़ने लगती है

आकृतियां और शब्द

बदलने लगते हैं।

एक साफ़ कपड़े से

अच्छे से साफ़ करती हूं,

किन्तु जहां-तहां

कुछ लकीरें छूट जाती हैं

और फिर आकृतियां बनने लगती हैं,

शब्द घेरने लगते हैं मुझे।

अरे!

डरना क्या!

इसी बात पर मुस्कुरा देने में क्या लगता है।