चलते चलते

चलते चलते

सड़क पर पड़े

एक छोटे से कंकड़ को

यूं ही उछाल दिया मैंने।

पल भर में न जाने

कहां खो गया।

सोच कुछ और रही थी

कह कुछ और बैठी।

बातों के, घातों के, वादों के

आघातों के

छोटे-छोटे कंकड़

हम, यूं ही उछालते रहते हैं

कब, किसे, कैसे चोट दे जाता है

नहीं जानते।

किन्तु जब अपने पर पड़ती है

तब..................

मेरे भीतर

एक विशालकाय पर्वत है

ऐसे  छोटे-छोटे कंकड़ों का।