अपनी आवाज़ अपने को सुनाती हूं मैं

मन के द्वार

खटखटाती हूं मैं।

अपनी आवाज़

अपने को सुनाती हूं मैं।

द्वार पर बैठी

अपने-आपसे

बतियाती हूं मैं।

इस एकान्त में

अपने अकेलपन को

सहलाती हूं मैं।

द्वार उन्मुक्त हों या बन्द,

कहानी कहां बदलती है जीवन की,

सहेजती हूं कुछ स्मृतियां रंगों में,

कुछ को रंग देती हूं,

आकार देती हूं,

सौन्दर्य और आभास देती हूं।

जीवन का, नवजीवन का

भास देती हूं।