स्वर्ण मृग नहीं होते

काश! स्वर्ण मृग नहीं होते।

न होती सीता की कथाएॅं

न होती रावण की चर्चा।

काश! स्वर्ण मृग नहीं होते।

 

तुम शायद कहोगे

आज तो नहीं हैं स्वर्ण मृग।

हैं न,

मृग मरीचिकाएॅं तो हैं,

मृग तृष्णाएॅं तो हैं।

न कोई राम है, न रावण।

स्वयॅं ही वन-कानन हैं,

स्वयं ही राम-रावण

और लक्ष्मण रेखा से जूझती

सीता भी स्वयं ही हैं।

वनवास

केवल तब नहीं होता

जब वन में रहते हैं।

मन में भी वन होते हैं सघन,

अग्नि परीक्षा

केवल अग्नि में

समा जाने से नहीं होती,

अपने भीतर भी होती रहती है।

अपनी ही परीक्षाएॅं लेते हैं

अपनी ही खींची हुई लक्ष्मण रेखा

लांघते हैं

और अपने भीतर ही

अपहृत हो जाते हैं।

इस व्यथा को

मैं स्वयं नहीं समझ सकी

तो आपको क्या समझाउॅं।