समाचार पत्र की आत्मकथा

 

अब समाचार-पत्र

समाचारों की बात नहीं करते,

क्या बात करते हैं

यही समझने में दिन बीत जाता है।

बस एक नज़र में

पूरा समाचार-पत्र पढ़ लिया जाता है।

जब समाचार-पत्र लेने की बात आती है,

तब उसकी गुणवत्ता से अधिक

उसकी रद्दी

कितने अच्छे भाव में बिकेगी,

यह ख्याल आता है।

कौन सा समाचार-पत्र

क्या उपहार लेकर आयेगा,

इस पर विचार किया जाता है।

कभी समय था

समाचार-पत्र घर में आने पर

कोहराम मच जाता था।

किसको कौन-सा पृष्ठ चाहिए ,

इस बात पर युद्ध छिड़ जाता था।

पिता की टेढ़ी आंख

कोई समाचार-पत्र को

उनसे पूछे बिना

हाथ नहीं लगा सकता था।

सम्पादकीय पृष्ठ पर

पिताजी का अधिकार,

सामान्य ज्ञान बड़े भाई के पास ,

और मां के नाम महिलाओं का पृष्ठ,

बच्चों का कोना, कार्टून और चुटकुले।

सालों-साल समाचार-पत्रों की कतरनें

अलमारियों से झांकती थी।

हिन्दी का समाचार-पत्र

बड़ी कठिनाई से

मां के आग्रह पर लिया जाता था।

और वह सस्ते भाव बिकता था।

धारावाहिक कहानियां,

बुनाई-कढ़ाई के डिज़ाईन,

रंग-बिरंगे चित्र,

प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए,

सामान्य ज्ञान की फ़ाईलें,

पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ाई जाती थीं।

यही समाचार-पत्र अलमारियों में

बिछाये जाते थे,

पुस्तकों-कापियों पर चढ़ाये जाते थे,

और दोपहर के भोजन के लिए भी

यही टिफ़न, फ़ायल हुआ करते थे।

शनिवार-रविवार का समाचार-पत्र

वैवाहिक विज्ञापनों के लिए

लिया जाता था।

 

समाचार-पत्रों पर लिखना

यूं लगा

मानों जीवन के किसी अनुभूत

सुन्दर सत्य, संस्मरण,

यात्रा-वृतान्त का लिखना

जिसका कोई आदि नहीं, अन्त नहीं।