बोध

बोध 

खण्डित दर्पण में चेहरा देखना

अपशकुन होता है

इसलिए तुम्हें चाहिए

कि तुम

अपने इस खण्डित दर्पण को

खण्ड-खण्ड कर लो

और हर टुकड़े में

अपना अलग चेहरा देखो।

फिर पहचानकर

अपना सही चेहरा अलग कर लो

इससे पहले

कि वह फिर से

किन्हीं गलत चेहरों में खो जाये।

 

असलियत तो यह

कि हर टुकड़े का

अपना एक चेहरा है

जो हर दूसरे से अलग है

हर चेहरा एक टुकड़ा है

जो दर्पण में बना करता है

और तुम, उस दर्पण में

अपना सही चेहरा

कहीं खो देते हो

इसलिए तुम्हें चाहिए

कि दर्पण मत संवरने दो।

 

पर अपना सही चेहरा अलगाते समय

यह भी देखना

कि कभी-कभी, एक छोटा-टुकड़ा

अपने में

अनेक चेहरे आेढ़ लिया करता है

इसलिए

अपना सही अलगाते समय

इतना ज़रूर देखना

कि कहीं तुम

गलत चेहरा न उठा डालो।

 

आश्चर्य तो यह

कि हर चेहरे का टुकड़ा

तुम्हारा अपना है

और विडम्बना यह

कि इन सबके बीच

तुम्हारा सही चेहरा

कहीं खो चुका है।

 

ढू्ंढ सको तो अभी ढूंढ लो

क्योंकि दर्पण बार-बार नहीं टूटा करते

और हर खण्डित दर्पण

हर बार

अपने टुकड़ों में

हर बार चेहरे लेकर नहीं आया करता

टूटने की प्रक्रिया में

अक्सर खरोंच भी पड़ जाया करती है

तब वह केवल

एक शीशे का टुकड़ा होकर रह जाता है

जिसकी चुभन

तुम्हारे अलग-अलग चेहरों की पहचान से

कहीं ज़्यादा घातक हो सकती है।

 

जानती हूं,

कि टूटा हुआ दर्पण कभी जुड़ा नहीं करता

किन्तु जब भी कोई दर्पण टूटता है

तो मैं भीतर ही भीतर

एक नये सिरे से जुड़ने लगती हूं

और उस टूटे दर्पण के

छोटे-छोटे, कण-कण टुकड़ों में बंटी

अपने-आपको

कई टुकड़ों में पाने लगती हूं।

समझने लगती हूं

टूटना

और टूटकर, भीतर ही भीतर

एक नये सिरे से जुड़ना।

टूटने का बोध मुझे

सदा ही जोड़ता आया है।