दो घूंट

छोड़ के देख

एक बार

बस एक बार

दो घूंट

छोड़ के देख

दो घूंट का लालच।

 

शाम ढले घर लौट

पर छोड़ के

दो घूंट का लालच।

फिर देख,

पहली बार देख

महकते हैं

तेरी बगिया में फूल।

 

पर एक बार

 

 

बस एक बार

छोड़ के देख

दो घूंट का लालच।

 

देख

फिर देख

जिन्दगी उदास है।

द्वार पर टिकी

एक मूरत।

निहारती है

सूनी सड़क।

रोज़

दो आंखें पीती हैं।

जिन्हें, देख नहीं पाता तू।

क्योंकि

पी के आता है

तू

दो घूंट।

डरते हैं,

रोते भी हैं

फूल।

और सहमकर

बेमौसम ही

मुरझा भी जाते हैं ये फूल।

कैसे जान पायेगा तू ये सब

पी के जो लौटता है

दो घूंट।

 

एक बार, बस एक बार

छोड़ के देख दो घूंट।

 

चेहरे पर उतर आयेगी

सुबह की सुहानी धूप।

बस उसी रोज़, बस उसी रोज़

जान पायेगा

कि महकते ही नहीं

चहकते भी हैं फूल।

 

जिन्दगी सुहानी है

हाथ की तेरे बात है

बस छोड़ दे, बस छोड़ दे

दो घूंट।

 

बस एक बार, छोड़ के देख

दो घूंट का लालच ।