जीवन की पुस्तकें

कुछ बुढ़ा-सी गई हैं पुस्तकें।

भीतर-बाहर

बिखरी-बिखरी-सी लगती हैं,

बेतरतीब।

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किन्तु जैसे

बूढ़ी हड्डियों में

बड़ा दम होता है,

एक वट-वृक्ष की तरह

छत्रछाया रहती है

पूरे परिवार के सुख-दुख पर।

उनकी एक आवाज़ से

हिलती हैं घर की दीवारें,

थरथरा जाते हैं

बुरी नज़र वाले।

देखने में तो लगते हैं

क्षीण काया,

जर्जर होते भवन-से।

किन्तु उनके रहते

द्वार कभी सूना नहीं लगता।

हर दीवार के पीछे होती है

जीवन की पूरी कहानी,

अध्ययन-मनन

और गहन अनुभवों की छाया।

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जीवन की इन पुस्तकों को

चिनते, सम्हालते, सजाते

और समझते,

जीवन बीत जाता है।

दिखने में बुढ़उ सी लगती हैं,

किन्तु दम-खम इनमें भी होता है।