कुछ आहटें आवाज़ नहीं करती
कुछ आहटें
आवाज़ नहीं करती,
शोर नहीं मचातीं,
मन को झिंझोड़ती हैं,
समझाती हैं,
समय पर सचेत करती हैं,
बेआवाज़
कानों में गूंजती हैं।
दबे कदमों से
हमारे भीतर
प्रवेश कर जाती हैं।
दीवारों के आर-पार
भेदती हैं।
यदि कभी महसूस भी करते हैं हम
तो हमें शत्रु-सी प्रतीत होती हैं।
क्योंकि
हम शोर के आदी,
चीख-चिल्लाहटों के साथी,
जिह्वा पर विषधर पाले,
उन आहटों को पहचान ही नहीं पाते
जो ज़िन्दगी की आहट होती हैं
जो अपनों की आवाज़ होती हैं
जीवन-संगीत और साज़ होती हैं
भटकते हैं हम,
समझते और कहते हैं
हमारा कोई नहीं।