मन वन-उपवन में

यहीं कहीं

वन-उपवन में

घन-सघन वन में

उड़ता है मन

तिेतली के संग।

न गगन की उड़ान है

न बादलों की छुअन है

न चांद तारों की चाहत है

इधर-उधर

रंगों से बातें होती हैं

पुष्पों-से भाव

खिल- खिल खिलते हैं

पत्ती-पत्ती छूते हैं

तृण-कंटक हैं तो क्या,

वट-पीपल तो क्या,

सब अपने-से लगते हैं।

बस यहीं कहीं

आस-पास

ढूंढता है मन अपनापन

तितली के संग-संग

घूमता है मन

सुन्दर वन-उपवन में।

छटा निखर कर आई

शीत ऋतृ ने पंख समेटे धूप निखरकर आई

तितली ने मकरन्द चुना,फूलों ने ली अंगड़ाई

बासन्ती चूनर ओढ़े उपवन ने देखो रंग बदले,

पल्लव निखरे,पुष्प खिले,छटा निखर कर आई

जीवन में सुख दुख शाश्वत है

सूर्य का गमन भी तो एक नया संदेश देता है

चांदनी छिटकती है, शीतलता का एहसास देता है

जीवन में सुख-दुख की अदला-बदली शाश्वत है

चंदा-सूरज के अविराम क्रम से हमें यह सीख देता है

 

एक मधुर संदेश

प्रतिदिन प्रात में सूर्य का आगमन एक मधुर संदेश देता है

तोड़े न कभी क्रम अपना, मार्ग सुगम नहीं दिखाई देता है

कभी बदली, आंधी, कभी ग्रहण भी नहीं रोक पाते राहों को

मंज़िल कभी दूर नहीं होती, बस लगे रहो, यही संदेश देता है

इन्द्रधनुषी रंग बिखेरे

नीली चादर तान कर अम्बर देर तक सोया पाया गया

चंदा-तारे निर्भीक घूमते रहे,प्रकाश-तम कहीं आया-गया

प्रात हुई, भागे चंदा-तारे,रवि ने आहट की,तब उठ बैठा,

इन्द्रधनुषी रंग बिखेरे, देखो तो, फिर मुस्काता पाया गया

एक बेला ऐसी भी है

 

एक बेला ऐसी भी है

जब दिन-रात का

अन्तर मिट जाता है

उभरते प्रकाश

एवं आशंकित तिमिर के बीच

मन उलझकर रह जाता है।

फिर वह दूर गगन हो

अथवा  

अतल तक की गहरी जलराशि।

मन न जाने

कहां-कहां बहक जाता है।

सब एक संकेत देते हैं

प्रकाश से तिमिर का

तिमिर से प्रकाश का

बस

इनके ही समाधान में

जीवन बहक जाता है।

घन-घन-घन घनघोर घटाएं

घन-घन-घन घनघोर घटाएं,
लहर-लहर लहरातीं।

कुछ बूंदें बहकीं,

बरस-बरस कर,
मन सरस-सरस कर,
हुलस-हुलस कर,
हर्षित कर
लौट-लौटकर आतीं।

बूंदों का  सागर बिखरा ।

कड़क-कड़क, दमक-दमक,
चपल-चंचला दामिनी दमकाती।
मन आशंकित।
देखो, झांक-झांककर,
कभी रंग बदलतीं,

कभी संग बदलतीं।
इधर-उधर घूम-घूमकर
मारूत संग
धरा-गगन पर छा जातीं।

रवि  ने  मौका ताना,

सतरंगी आकाश बुना ।
निरख-निरख कर
कण-कण को
नेह-नीर से दुलराती।

ठिठकी-ठिठकी-सी शीत-लहर

फ़र्र-फ़र्र करती दौड़ गई।

सर्र-सर्र-सर्र कुछ पत्ते झरते

डाली पर नव-संदेश खिले

रंगों से धरती महक उठी।

पेड़ों के झुरमुट में बैठी चिड़िया

की किलकारी से नभ गूंज उठा

मानों बोली, उठ देख ज़रा

कौन आया ! बसन्त आया!!!


 

अठखेलियां करते बादल

आकाश में अठखेलियां करते देखो बादल

ज्‍यों मां से हाथ छुड़ाकर भागे देखो बादल

डांट पड़ी तो रो दिये, मां का आंचल भीगा

शरारती-से, जाने कहां गये ज़रा देखो बादल

नभ से झरते रंगों में

पत्तों पर बूंदें टिकती हैं कोने में रूकती हैं,  फिर गिरती हैं

मानों रूक-रूक कर कुछ सोच रही, फिर आगे बढ़ती हैं

नभ से झरते रंगों की रंगीनियों में सज-धज कर बैठी हैं ज्‍यों

पल-भर में आती हैं, जाती हैं, मैं ढूंढ रही, कहां खो जाती हैं

चिडि़या मुस्कुराई

चिडि़या के उजड़े

घोंसले को देखकर

मेरा मन द्रवित हुआ

पूछा मैंने चिडि़या से

रोज़ तिनके चुनती हो

रोज़ नया घर बनाती हो

आंधी के एक झोंके से

घरौंदा तुम्‍हारा उजड़ जाता है

तिनका-तिनका बिखर जाता है

कभी वर्षा, कभी धूप

कभी पतझड़

कभी इंसान की करतूत।

कहां से इतना साहस पाती हो,  

न जाने कहां

दूर-दूर से भोजन लाती हो

नन्‍हें -नन्‍हें बच्‍चों को बचाती हो

उड़ना सिखलाती हो

और अनायास एक दिन

वे सच में ही उड़ जाते हैं

तुम्‍हारा दिल नहीं दुखता।

  • *    *    *

चिडि़या !!

मुंह में तिनका दबाये

एक पल के लिए

मेरी ओर देखा

मुस्‍कुराई

और उड़ गई

अपना घरौंदा

पुन: संवारने के लिए।

अपने भीतर झांक

नदी-तट पर बैठ

करें हम प्रलाप

हो रहा दूषित जल

क्‍या कर रही सरकार।

भूल गये हम

जब हमने

पिकनिक यहां मनाई थी

कुछ पन्नियां, कुछ बोतलें

यहीं जल में बहाईं थीं

कचरा-वचरा, बचा-खुचा

छोड़ वहीं पर

मस्‍ती में

हम घर लौटे थे।

साफ़-सफ़ाई पर

किश्‍तीवाले को

हमने खूब सुनाई थी।

फिर अगले दिन

नदियों की दुर्दशा पर

एक अच्‍छी कविता-कहानी

बनाई थी।  

चुन लूं मकरन्द

इन रंगों को

मुट्ठी में बांध लूं

महक को मन में उतार लूं

सौन्दर्य इनका

किसी के गालों पर दमक रहा

कहीं नयनों में छलक रहा

शब्दों में, भावों में

कुछ देखो दमक रहा

अभिलाषाओं का

सागर बहक रहा

चुन लूं मकरन्द

किसी तितली के संग

संवार लूं ज़िन्दगी का हर पल

सुनो, एकान्त का मधुर-मनोहर स्वर

सुनो,

एकान्त का

मधुर-मनोहर स्वर।

बस अनुभव करो

अन्तर्मन से उठती

शून्य की ध्वनियां,

आनन्द देता है

यह एकाकीपन,

शान्त, मनोहर।

कितने प्रयास से

बिछी यह श्वेत-धवल

स्वर लहरी

मानों दूर कहीं

किसी 

जलतरंग की ध्वनियां

प्रतिध्वनित हो रही हों

उन स्वर-लहरियों से

आनन्दित

झुक जाते हैं विशाल वृक्ष

तृण भारमुक्त खड़े दिखते हैं

ऋतु बांध देती है हमें

जताती है

ज़रा मेरे साथ भी चला करो

सदैव मनमानी न करो

आओ, बैठो दो पल

बस मेरे साथ

बस मेरे साथ।

ये सूर्य रश्मियां

वृक्षों की आड़ से

झांकती हैं कुछ रश्मियां

समझ-बूझकर चलें

तो जीवन का अर्थ

समझाती हैं ये रश्मियां

मन को राहत देती हैं

ये खामोशियां

जीवन के एकान्त को

मुखर करती हैं ये खामोशियां

जीवन के उतार-चढ़ाव को

समझाती हैं ये सीढ़ियां

दुख-सुख के पल आते-जाते हैं

ये समझा जाती हैं ये सीढ़ियां

पाषाणों में

पढ़ने को मिलती हैं

जीवन की अनकही कठोर दुश्वारियां

समझ सकें तो समझ लें

हम ये कहानियां

अपनेपन से बात करती

मन को आश्वस्त करती हैं

ये तन्हाईयां

अपने लिए सोचने का

समय देती हैं ये तन्हाईयां

और जीवन में

आनन्द दे जाती हैं

छू कर जातीं

मौसम की ये पुरवाईयां

पूछूं चांद से

अक्सर मन करता है

पूछूं चांद से

औरों से मिली रोशनी में

चमकने में

यूं कैसे दम भरता है।

मत गरूर कर

कि कोई पूजता है,

कोई गणनाएं करता है।

शायद इसीलिए

दाग लिये घूमता है,

इतना घटता-बढ़ता है,

कभी अमावस

तो कभी ग्रहण लगता है।