करवाचौथ का व्रत
करवाचौथ का व्रत फिर आ गया। मेरे शहर की क्याए शायद मेरे देश की सारी महिलाएं इस दिन व्रती हो जाती हैं। वैसे तो भारतीय पत्नियों का हर दिन ही पतियों के लिए होता है किन्तु यह दिन बिल्कुल भूखा रहकर पतियों के लिए होता है। रात्रि को छाननी में से पहले चांद को देखकरए फिर पति को देखकर ही भोजन मिलता है। वैसे मुझे चांद और पति में आज तक कोई भी समानता समझ नहीं आई। इस व्रत के लिए महिलाओं को कुछ गहन.वहनेए साड़ी.वाड़ीए मेंहदी वगैरह और शारीरिक डैकोरेशन के कुछ अन्य सामान के साथ ढेर सारे ताने.वाने भी मिलते हैं।
वास्तव में हर पत्नी को एक अदद पति चाहिए होता है जोकि उसके पास होता है अथवा जिसके होने के लिए वे अग्रिम किश्त की तरह करवाचौथ का व्रत रखना शुरु कर देती हैं। करवाचैथ के व्रत की पहली मांग यह रहती है कि यह पति उनके साथ सात जन्मों का बन्धन बनाये रखेगा। अर्थात सात जन्मों का कान्ट्रैक्ट जो महिलाएं शादी के सात फेरों और सात वचनों के द्वारा करती हैंए उसके रिन्यूयल का यह एक आधिकारिक दस्तावेज होता है और इसी कान्ट्रैक्ट के रिन्यूअल के लिए महिलाओं को हर वर्ष करवाचौथ का व्रत रखना पड़ता है। और यह रिन्यूअल ष्ष्जो हैए जैसा हैए जहां है और जिस स्थिति में हैष्ष् के रूप में होती है। उसे बदला नहीं जा सकता। इसी पति को हर जन्म में अथवा सात जन्मों में बनाये रखने के लिए सात फेरे लिए जाते हैंए सात वचन बांधे जाते हैं और फिर उन पर पक्का स्टैम्प लगाने के लिए करवाचैथ का व्रत किया जाता है। फिर करवाचैथ का व्रत रखना इसलिए भी जरूरी है कि इस जन्म में तो माता.पिता ने पता नहीं कैसे जुगाड़ करके एक पति ढूंढ दिया था अब हर जन्म में कहां ढूंढते फिरेंगे। इस कलियुग में बड़ी मुश्किल से एक तो पति मिलता है।
प्राचीन काल में तो पति थोड़ी.सी वस्तुओं के जुगाड़ से ही मिल जाता था। एक हीरो साईकिलए एचण् एमण् टीण् की घड़ीए टाई पिन के साथ टाईए थ्री.पीस सूटए चमचमाते चमड़े के जूतेए वीण्आईण्पीण्का ब्रीफकेस मोटी.सी अंगूठी के साथ जब कोई युवक घर से बाहर निकलता था तो वैसे ही पहचान लिया जाता था कि कि यह नवविवाहित है जैसे युवतियों की भरी मांग और चूड़े से पता लग जाता है। और बस एक टीन की पेटी जिसमें 36 पीस का स्टील का डिनर सैट और घर.गृहस्थी का थोड़ा.सा सामानए बस मिल गया पति। लेकिन साईकिल कब स्कूटर में बदलीए फिर बाईक और कार में और टीन की पेटी कब सोने से मढ़ी जाने लगी पता ही नहीं लगा।
फिर पति जब भी घर से बाहर निकलता है महिलाओं को एक ही चिन्ता सताई रहती है पता नहीं घर का रास्ता ही न भूल गया हो। करवाचैथ का व्रत रखने से एक यह सन्तोष बना रहता है कि इस आदमी के साथ जब मैंने सात जन्मों के लिए भगवान से कान्ट्रैक्ट कांउटर.साईन करवा लिया है तो लौट कर तो इसे आना ही पड़ेगाए जायेगा कहां ! फिर महिलाओं के लिए तो पति की मांग बनी ही रहती है। अब हर जन्म में माता.पिता कहां जायेंगे नया पति ढूंढनेए सो इसी को रिन्यू करवा लो। अब इतने वर्ष साथ रहकर वैसे भी ष्ष्जो हैए जैसा हैए जहां हैष्ष् की आदत तो हो ही चुकी है। सो अगले सात जन्मों में इतनी परेशानियों का सामना नहीं करना पड़ेगा।
किन्तु समस्या यह कि ये महिलाएं इतना भी नहीं समझतीं कि यह कान्ट्रैक्ट एकतरफा होता है। अगर महिलाओं को कानून की थोड़ी.सी भी जानकारी होती तो वे यह जान जातीं कि कोई भी कान्ट्रैक्ट कभी भी एकतरफा होने पर किसी भी न्यायालय में मान्य नहीं होता। फिर भी महिलाएं न जानें किस भ्रम में वर्ष.दर.वर्ष इस कान्ट्रैक्ट को एकतरफा रिन्यू कर.करके प्रसन्न होती रहती हैं।
महिलाओं को भी समझना चाहिए कि यह आधुनिक युग है। बाजार में नई.नई मांग और पूर्ति उपलब्ध है। एक मांगने जाओ तो एक के साथ एक क्या चार.चार ए पांच.पांच फ्री गिफ्टस देने को तैयार बैठै मिलते हैं। शेष आपकी बारगेनिंग पॅावर पर निर्भर करता है। नये से नये प्रोडक्ट हैं। नई टैक्नोलोजी है। बीसियों कम्पनियां हैं। नैट पर सर्च कीजिए। कितने ही गिफ्ट अफर्स हैं। और नवरात्रों से लेकर दीपावली तक आ रहे निरन्तर पर्वों के बीच तो दुकानदार एक दम नई से नई स्कीम्ज घोषित करते रहते हैं। एक्सचेंज आफर्ज हैं। पुराना दे जाईए नया ले जाइए। ब्याज.रहित आसान मासिक किश्तों में ले जाइए। दस दिन तक अथवा एक महीने तक प्रयोग कीजिएए पसन्द न आने पर बदल कर दूसरा माॅडल ले जा सकते हैं अथवा कीमत वापिस। पांच साल की गारंटी। ग्यारह साल की वारंटी। पार्ट्स बदलने की गारंटी अलग। किराये पर भी उपलब्ध हैं। एक लाओए दो लाओए बीस लाओए बदल.बदल कर लाओ। और अगर पसन्द आ जाये तो पूरा भुगतान करके नियमित भी किया जा सकता है। इतनी सारी सुविधाएं हैं और इतने सारे आप्शंजए फिर भी पता नहीं ये महिलाएं उसी पुराने प्रोडक्ट को लेकर सात जन्मों तक क्या करेंगी। एक बार प्रयास तो कीजिएए अगर नये पर मन न ही माने तो पुराना प्रोडक्ट कहीं भागा तो नहीं जा रहा। उसी से गुजारा कर लेंगे। पर एक बार कोशिश करना तो हमारा धर्म है।
निंदक नियरे राखिये
निंदक नियरे राखिये आँगन कुटी छवाय
बिन पानी साबुन बिना निर्मल होत सुभाय ..
उक्त दोहे की सप्रसंग व्याख्या
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यह बात सम्भवत: पन्द्रहवीं-सोहलवीं शती की है जब हमें निन्दक की तलाश हुआ करती थी। उस काल में निन्दक की नियुक्ति के क्या नियम थे नहीं ज्ञात। कहा जाता है कि राजा लोग अपने दरबार में निन्दक नियुक्त करते होंगे। आम जनता कहां निन्दक रख पाती होगी।
विचारणीय यह कि उस काल में वर्तमान की भांति रोज़गार कार्यालय नहीं हुआ करते थे। समाचार पत्र, दूरभाष, मोबाईल भी नहीं थे कि विज्ञापन दिया, अथवा एक नम्बर घुमाया और साक्षात्कार के लिये बुला लिया। फिर कैसे निन्दक नियरे रखते होंगे, कैसे ढूंढते होंगे एक अच्छा निन्दक, यही अनुसंधान का विषय है। कोई डिग्री, कोर्स का भी युग नहीं था फिर निन्दक के लिए क्या और कैसे मानदण्ड निर्धारित किये जाते होंगे। लिखित परीक्षा होती होगी अथवा केवल साक्षात्कार ही लिया जाता होगा। चिन्तित हूं, सोच-सोचकर इस सबके बारे में जबसे उक्त दोहा पढ़ा है।
किन्तु यह बात तथ्यपूर्वक कही जा सकती है कि यह दोहा मध्यकाल का नहीं है। कपोल-कल्पित कथाओं के अनुसार इस दोहे को मध्यकाल के भक्ति काल के किन्हीं कबीर दास द्वारा रचित दोहा बताया गया है। वैज्ञानिक एवं गहन अनुसंधान द्वारा यह तथ्य प्रमाणित है कि भक्ति काल में साबुन का आविष्कार नहीं हुआ था। और यदि था तो कौन सा साबुन बिना पानी के प्रयोग किया जाता होगा।
अब इसे वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखते हैं।
आधुनिक काल में इस पद की कोई आवश्यकता ही नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति के भीतर एक सजग निन्दक है, जिसे पानी, साबुन की भी आवश्यकता नहीं है। एक ढूंढो, हज़ार मिलते हैं।
इसी अवसर पर हम अपने भीतर झांकते हैं।
निष्कर्ष :
इस कारण यह दोहा प्राचीन एवं अवार्चीन दोनों ही कालों में अर्थहीन, महत्वहीन है।
आदरणीय गणेश जी,सादर प्रणाम !
आपसे मन की बात कहना चाहती हूं। वैसे तो बहुत से भगवान हैं, शायद 33 करोड़, या उससे भी अधिक, किन्तु आजकल गणेश-चतुर्थी की धूम है, आप घर-घर पधारे हैं, इसलिए अपने मन की दुविधा आपके ही साथ बांटना चाहती हूं।
हमारे देश में पिछले कुछ वर्षों से भगवानों की महिमा बहुत बढ़ गई है। आप भी उनमें से एक हैं।
मेरे न्यूनतम् ज्ञान के अनुसार 1893 के पहले गणपति उत्सव केवल घरों तक ही सीमित था । श्री बाल गंगाधर तिलक ने 1893 में अंग्रेजों के विरूद्ध भारतीयों को स्वाधीनता संग्राम से जोड़ने के लिए महाराष्ट्र में इस उत्सव को माध्यम बनाया था। इस कथा से मुझे यह ज्ञान प्राप्त हुआ कि आपने और आपके उत्सव ने भी हमें स्वाधीन करवाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
आपके एक उत्सव ने देश को स्वाधीनता की राह प्रदान की थी। नमन करती हूं आपको।
एक अन्य कथा के अनुसार आपने सिंधु नामक दानव का वध करने के लिए मयूर को अपने वाहन के रूप में चुना था और छ: भुजाओं वाला अवतार धारण किया था। इसी कारण गणपति बप्पा मोरया अगले बरस तू जल्दी आ का जयकारा लगाया जाता है।
उस काल में आपके एक स्वरूप ने ही कितने बड़े कार्य कर दिये, वर्तमान में भारत को स्वाधीन करने में अपना महत्त योगदान दिया, अब तो हर वर्ष आप लाखों-लाखों की संख्या में अवतरित होते हैं, आपको नहीं लगता कि अभी भी इस देश में आपके कुछ ऐसे रूपों की आवश्यकता है जो कुछ सकारात्मक परिवर्तन लेकर आयें। देश भ्रष्टाचार, आतंकवाद, जाति-पाति, घूसखोरी, छल-कपट, और न जाने कितनी ऐसी समस्याओं से जूझ रहा है जो देश को प्रगति के पथ पर बढ़ने से रोक रही हैं। जब आप हर वर्ष आते हैं, इन समस्याओं की ओर आपका ध्यान नहीं जाता ? दस दिन तक वेद-व्यास के महाभारत की तरह कथा तो पूरी सुन लेते हैं फिर विसर्जित होकर चले जाते हैं।
यह मान्यता भी है कि वेद व्यास जी ने महाभारत की कथा भगवान गणेश जी को गणेश चतुर्थी से लेकर अनन्त चतुर्थी तक लगातार 10 दिन तक सुनाई थी। जब वेद व्यास जी ने कथा पूरी कर अपनी आंखें खोली तो उन्होंने देखा कि लगातार 10 दिन से कथा यानी ज्ञान की बातें सुनते-सुनते गणेश जी का तापमान बहुत ही अधिक बढा गया है, अत: उन्होंने आपको कुंड में डुबकी लगवाई, जिससे आपके शरीर का तापमान कम हुआ।
इसलिए मान्यता ये है कि गणेश स्थापना के बाद से अगले 10 दिनों तक भगवान गणपति लोगों की इच्छाऐं सुन-सुनकर इतना गर्म हो जाते हैं, कि चतुर्दशी को बहते जल, तालाब या समुद्र में विसर्जित करके उन्हें फिर से शीतल यानी ठण्डा किया जाता है।
आपके नाम से जब कोई गोबर गणेश अथवा मिट्टी का माधो कहकर व्यंग्य करता है तो मुझे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता। फिर अब तो आपके नाम से धर्म के नाम से कितना जल-प्रदूषण फैलाया जा रहा है, देख ही रहें होंगे आप !!
ओहो ! भूल हो गई गणेश जी। क्षमा !!
जब हमारा ही ध्यान नहीं है तो आपका ध्यान कैसे जायेगा। आह्वान तो हमें करना होगा न अपने भीतर से, अपने भाव से, अपनी क्षमता से, तभी तो आपको ज्ञात होगा कि करना क्या है। और यह तो आप समझा नहीं सकते, हमें स्वयं ही समझना होगा।
किसी परिवर्तन के लिए दस दिन कम नहीं होते।
काश ! अगले वर्ष आपके आगमन एवं विसर्जन के बीच हम यह सब समझ सकें और एक सकारात्मक परिवर्तन की ओर अग्रसर हो सकें।
प्रणाम्
बाल-मजदूरी का एक श्रेष्ठि रूप
समाज, सरकार, समाजसेवी संस्थाएं बहुत चिन्तन-मनन करती हैं इस बाल-मजदूरी को रोकने के लिए। शिक्षा, रोटी की बड़ी-बड़ी बातें होती हैं इनके लिए। ढाबों, होटलों, बस-अड्डों, रेलवे-स्टेशन, घरों एवं ऐसे ही अनेक स्थानों पर कार्य करते छोटे-छोटे बच्चों को देखा जा सकता है। वे किसके बच्चे हैं, क्यों कार्य कर रहे हैं, वे किन अभावों में जीवन व्यतीत कर रहे हैं हम में से कोई नहीं जानता। लेकिन वे भीख नहीं मांगते, मेहनत करते हैं। शायद कोई भी माता-पिता अपने बच्चों को इस तरह के कामों में नहीं डालना चाहते होंगे जब तक कि सामाजिक-आर्थिक विवशता न हो। सम्भव है कुछ बच्चे किसी गिरोह के शिकार बन कर ऐसे कार्य करते हों।
किन्तु जब ऐसे बाल-मजदूरों को उनके काम से हटा दिया जाता है तब वे कैसे जीवन-यापन करते हैं, नहीं पता। क्या उनका पुर्नवास होता है, क्या वे शिक्षा प्राप्त करने लगते हैं, क्या उन्हें भरपेट भोजन मिलने लगता है, नहीं पता। हां, इतना तो हम जानते ही हैं कि जिन पुनर्वास संस्थानों में उन्हें रखा जाता है वहां भी उनसे काम ही लिया जाता है। अनाथालयों में भी इनका शोषण ही होता है।
यह बाल-मजदूरी का वह रूप है जिस पर खूब चर्चाएं, गोष्ठियां होती हैं, चिन्तन होता है और लिखा-पढ़ा जाता है।
किन्तु बाल-मजदूरी का एक श्रेष्ठि रूप भी है जिस पर कभी कोई बात, चर्चा, विरोध नहीं होता।
जो बच्चे फिल्मों, धारावाहिकों, विज्ञापनों, टी.वी. कार्यक्रमों, विभिन्न प्रतियोगिताओं में दिनों, महीनों, सालों काम करते हैं क्या वह केवल कला है, अथवा बाल-मज़दूरी का दूसरा रूप ?यहां की चमक-दमक, प्रलोभन, नाम, प्रचार, आकर्षण में बांधते हैं, विशेषकर निर्धन परिवारों को। इन बाल- प्रतियोगिताओं में निर्धन परिवारों से आये बच्चों की बेचारगी का खूब प्रदर्शन और प्रचार होता है, टी.आर.पी. बढ़ती है। उनकी आर्थिक मदद का भी प्रचार होता है, बढ़िया खरीदारी करवाई जाती है, उनके घर की बदलती आर्थिक स्थिति का भी प्रदर्शन होता है।
लाखों में एक बच्चा तो आगे निकल जाता है किन्तु जो पिछड़ जाते हैं उनका क्या होता है, कौन जाने। बहुत पहले इन कार्यक्रमों में पराजित बच्चों की आत्महत्या के समाचार भी पढ़ने में आये थे। इन कार्यक्रमों में विजित बच्चों को इतना महिमा-मण्डित किया जाता है कि कोई भी आकर्षित हो जाये और पराजित बच्चे इतना निरादर अनुभव करते हैं कि वे और उनका परिवार इस तरह रोते-बिलखते हैं मानों कोई बड़ा हादसा हो गया हो। इस चकाचैंध से निकले बच्चे क्या लौटकर अपने सामान्य मध्यवर्गीय जीवन से जुड़ पाते हैं अथवा बिखर कर रह जाते हैं। दिन -प्रति-दिन यह कार्यक्रम, प्रतियोगिताएं न रहकर, कला का मंच न रहकर, केवल धन ही नहीं विलासिता का रूप ले चुके हैं।
विश्वास-अविश्वास के बीच झूलता मन
कुछ समय पूर्व मेरी अपनी महिला सहकर्मी से चर्चा हुई फेसबुक मित्रों पर, जो मेरी फेसबुक मित्र भी है।
उसने बताया कि उसके फेसबुक मित्रों में केवल परिवार के अथवा पूर्व परिचित लोग ही हैं, कोई भी अपरिचित नहीं है जिसे उसने फेसबुक पर ही मित्र बनाया हो एवं अपरिचित हो।
मैंने बताया कि एक अपने पुत्र, उसके मित्र एवं कुछ महिला मित्रों के अतिरिक्त मेरी मित्र सूची में अधिकांश अपरिचित हैं जिन्हें मैंने फेसबुक पर ही मित्र बनाया है। अलग से उनसे न तो कोई पारिवारिक, मैत्री सम्बन्ध है और न ही कोई पूर्व परिचय। एेसे ही कुछ समूहों की भी सदस्य हूं और वहां भी कोई पूर्व परिचित नहीं है।
फिर मैंने और जानने का प्रयास किया तो जाना कि अधिकांश महिलाओं की मित्र सूची में परिवार के अथवा पूर्व परिचित लोग ही हैं। अर्थात वे अपने सामाजिक, पारिवारिक जीवन में, मोबाईल, वाट्स एप पर भी उनसे निरन्तर सम्पर्क में हैं और वे ही फेसबुक पर भी हैं।
फिर फेसबुक पर उनके लिए नया क्या ?
क्या हमें सत्य ही इतना डर कर रहना चाहिए जितना डराया जाता है।
क्यों हम सदैव ही किसी अपरिचित को अविश्वास की दृष्टि से ही देखे ?
जीवन में यदि हम अपरिचितों की उपेक्षा, संदेह, दूरियां ही बनाये रखेंगे तो समाज कैसे चलेगा।
सचेत रहना अलग बात है, अकारण संदेह में रहना अलग बात।