हमारी अपनी आवाज़ें गायब हो गई हैं
आवाज़ें निरन्तर गूंजती हैं
मेरे आस-पास।
कभी धीमी, कभी तेज़।
कुछ सुनाई देती हैं
कुछ नहीं।
हमारे कान फ़टते हैं
दुनिया भर की
आवाज़ें सुनते-सुनते।
इस शोर में
इतना खो गये हैं हम
कि अपनी ही आवाज़ से
कतराने में लगे हैं
अपनी ही आवाज़ को
भुलाने में लगे हैं।
हमारे भीतर का सच
झूठ बनने लगा है
दूर से आती आवाज़ों से
मन भरमाने में लगे हैं।
छोटी-छोटी आवाज़ों से
मिलने वाला आनन्द
कहीं खो गया है
हम बस यूं ही
चिल्लाने में लगे हैं।
गुमराह करती
आवाजों के पीछे
हम भागने में लगे हैं।
ऊँची आवाज़ें
हमारी नियामक हो गई हैं
हमारी अपनी आवाज़ें
कहीं गायब हो गई हैं।