विध्वंस की बात कर सकें

कहीं अच्छा लगता है मुझे

जब मैं देखती हूं

कि

नवरात्र आरम्भ होते ही

याद आती हैं मां

आह्वान करते हैं

दुर्गा, काली, चण्डी

सहस्त्रबाहु, सहस्त्रवाहिनी का ,

मूर्तियां सजाते हैं

शक्तियों की बात करते हैं।

शीश नवाते हैं

मांगते हैं कृपा, आशीष, रक्षा-कवच।

दुख-निवारण की बात करते हैं,

दुष्टों के संहार की आस करते हैं।

बस आशाएं, आकांक्षाएं, दया, कृपा

की मांग करते हैं।

याद आते हैं तो चढ़ावे

मन्नतें, मान्यताएं,

कन्या पूजन, व्रतोपवास,गरबा।

मन्दिरों की कतारें,

उत्सव ही उत्सव मनाते हैं,

अच्छा लगता है सब।

मन मुदित होता है

इस आनन्दमय संसार को देखकर।

किन्तु क्यों हम

आह्वान नहीं करते

कि मां

हमें भी दे वह शक्ति

जो दुष्टों का संहार कर सके

आवश्यकता पड़ने पर धार बन सके

प्रपंच छोड़कर

जीवन का आधार बन सके

उन नव रूपों का

कुछ अंश आत्मसात कर सकें

रोना-गिड़गिड़ाना छोड़कर

आत्मसम्मान की बात कर सकें

सिसकना छोड़कर

स्वाभिमान की बात कर सकें।

दुर्गा, काली, चण्डी,

सहस्त्रबाहु, सहस्त्रवाहिनी

जब जैसी आन पड़े

वैसा रूप धर सकें

यूं तो निर्माण की बात करते हैं

पर ज़रूरत पड़ने पर

विध्वंस की बात कर सकें।