यात्रा संस्मरण शिमला
हमें स्वयं ही पता नहीं होता, हमारे भीतर कितने शहर कुलबुलाते हैं। बस हम यूं ही कुछ यादों में सिमटे सालों-साल बिता देते हैं तब जाकर पता लगता है कि हम तो खंडहर ढो रहे थे।
एक अलग-सी बात कहती हूं। हमारे आस-पास लाखों-करोड़ों पशु-पक्षी रहते हैं। किन्तु क्या आपने किसी का मृत शरीर देखा है कभी। शायद नहीं। हां , अनहोनी मौत होने पर, अर्थात किसी घटना-दुर्घटना में मौत होने पर अवश्य मृत शरीर दिखाई दे जाते हैं, वैसे नहीं।
जब किसी बन्दर के बच्चे की ऐसी ही असामयिक मौत हो जाती है, तब बन्दरिया अपने उस मृत बच्चे को अपनी छाती से लगाये रहती है जब तक उसक मांस सूख कर और हड्डियां गल कर गिर नहीं जातीं। यह सत्य है।
कभी –कभी हम अपनी स्मृतियों, भावनाओं के साथ भी ऐसा ही करते हैं बरसों-बरस छूटे रिश्ते, सम्बन्ध, शहर, स्मृतियां हम यूं ही ढोते रहते हैं, कलपते हैं, सिसकते हैं, अन्दर ही अन्दर घाव बनाते हैं। कुछ रिश्ते आवाज़ देकर टूटते हैं और कुछ बेआवाज़। बेआवाज़ टूटे रिश्ते अर्न्तात्मा को तोड़ते हैं किन्तु बहुत बाद में पता लगता है हम तो खण्डहर ढो रहे थे।
शिमला
पिछले तीस वर्ष से मेरे भीतर कुलबुलाता था। स्कूल, कालेज, विश्वविद्यालय, बैंक, आकाशवाणी, विधान-सभा, माल रोड, लोअर बाजार, लक्क्ड़ बाज़ार, रिज, गुफा, आशियाना, चुडै़ल बौड़ी, जाखू, तारादेवी, अनाडेल में उतरते हैलिकाप्टर, वहां का दशहरे का मेला, छोले-टिक्की की दुकानें, बालजीस का डोसा, हिमानी के छोले-भटूरे, दस पैसे के बीस गोलगप्पे, पांच पैसे का चूरण और फ्री की रेती, सब जगह घूमता था। पांच-पांच फुट बर्फ में भी टिप-टाप होकर घूमते, न बरसात की चिन्ता, न सर्दी की, रोज़ दो-तीन घंटे पैदल चलना। और लोअर कैथू, गार्डन व्यू जहां मैंने अपनी जीवन के 34 वर्ष बिताए। माता-पिता, भाई-बहन, भरा-पूरा आठ लोगों का परिवार। लड़ते-झगड़ते, हंसते-बोलते, जीवन की समस्याओं को झेलते, जैसे भी थे, सब साथ थे। हर शाम बरामदे में पेटी पर बैठने के लिए झगड़ा होता। वहां से डूबते सूरज को हर रोज नये रंगों में देखते, और देखते सैंकड़ों के समूह में विविध पक्षियों को रेखाओं में अपने घर की ओर उड़ान भरते हुए। कभी न भूलने वाले पल।
जब से शिमला जाने की बात हुई मेरे लिए मेरे परिवार के सदस्य तनाव में थे। वे जानते थे कि शिमला में मेरे कुछ उजड़े-बिखरे सम्बन्ध हैं, जो पिछले बीस-तीस वर्षों से मेरे भीतर नासूर बनकर बह रहे हैं। कहीं कोई गहरा घाव न लगा बैठूं, वे सब डरे हुए थे।
होटल कहां लिया, अप्पर कैथू, घर से बस 15-20 मिनट के रास्ते पर। किन्तु मन तो लोअर कैथू घूम रहा था, पीली कोठी, बिट्टू हलवाई की दुकान, जोंजी की दुकान, स्कूल, चिटकारा निवास, वो डिस्पैंसरी की खड़ी उतराई और न जाने क्या-क्या ।
कहानी तो लम्बी है किन्तु संक्षेप में, दो दिन जगह-जगह घूमे, पर्यटकों की भांति, किन्तु मन न जाने किसे किसे खोज रहा था।
प्रात: सात बजे निकलकर लगभग 11 बजे हम होटल पहुंच गये। यह मेरे जीवन की पहली यात्रा थी कि मैं सारे रास्ते सोई नहीं। खोये हुए हर पल को पकड़ लेना चाहती थी। मेरा पहला लक्ष्य था मेरा पोर्टमार स्कूल छोटा शिमला, जहां मैं केजी से 11वीं तक पढ़ी थी, वर्ष 1959 से 1971 तक। अब मैं यह सोचकर जाउंगी कि आज भी वही भवन, प्रांगण, कक्षाएं मिलेंगी तो भूल तो मेरी ही थी। किन्तु वही सादगी, शान्त वातावरण, सहजता अवश्य मिली। और एक बात जो सबसे बड़ी कि आज भी उस विद्यालय की वही यूनीफार्म : मैरून चैक कमीज़ और सफेद सलवार । वहां से पैदल मालरोड।
घर से स्कूल लगभग पांच किलोमीटर था, सीधी चढ़ाई और उतराई। और पांच-दस किलो के बैग। किन्तु कभी न तो दूरी का अनुभव होता था और न ही भार का।खेलते-कूदते, छलांगें लगाते, पहाड़ियों पर चढ़ते पूरे एक घंटे में घर पहुंचते थे। लिफ्ट के सामने चुड़ैल बौड़ी हुआ करती थी जहां पानी की एक बावड़ी थी और स्कूल से लौटते समय हम ज़रूर पानी पिया करते थे। पांच पैसे की खरी हुई रेती और चूरण पानी में मिलाकर पीते थे किन्तु कभी हमारे गले खराब नहीं होते थे। और साथ ही तीखी-उंची चट्टानों की खड़ी पहाड़ी थी जहां हम प्रतिदिन चुड़ैल ढूंढते थे किन्तु अब वहां अब वहां बहुमंजिला इमारत खड़ी थी राजीव गांधी सपोर्ट्स काम्पलैक्स । कम्बरमीयर पोस्ट आफिस भी नहीं मिला। लिफ्ट के पास पहुंचते- पहुंचते अपना पी एन बी का क्षेत्रीय कार्यालय ढूंढने लगी, अरे कहां गया मेरा आर एम आफिस कहां गया, और दोनों मुझ पर चिल्ला पड़े, पागल हुई है, धीरे बोल, आस-पास लोग देख रहे हैं । आंखों में आंसू आ गये जो फोटोक्रोम चश्मे में छुप जाते हैं, अब इन्हें क्या पता क्या ढूंढ रही थी मैं। चलो छोड़ो, आगे बढ़ गई मैं माल रोड की ओर।
काली बाड़ी का रास्ता, 129 सीढ़ियां, और रास्ते में जहां भी नल लगा हो वहां बस्ते रखकर शेर के मुंह वाले नल से पानी पीना। रास्ते से फूल तोड़ना, कैंथ खाना, नाख और खट्टे सेब। और दस पैसे के बीस गोलगप्पे। इतना सब और पता नहीं क्या-क्या करके पहुंचते थे घर।
मन में एक भटकाव था, कैसा कह नहीं सकती।
जहां दिन में 15-20 किलोमीटर चलना आम बात थी , जाखू मन्दिर जाने के लिए टैक्सी की ।
वाह ! माल रोड पर लोकल गाड़ी जहां कभी एंबुलैंस और फायर ब्रिगेड के अतिरिक्त कोई गाड़ी नहीं चल सकती थी वहां हाथ देकर लोकल छोटी बस रूकवाई जा सकती थी।
दो दिन पोर्टमोर स्कूल, मालरोड, लक्कड़ बाज़ार, रिज, जाखू, अनाडेल, एडवांस स्टडीज़ घूमते रहे किन्तु मेरे भीतर तो कुछ और ही घुमड़ रहा था। मन ही मन क्या खोज रही थी शायद अपने से ही छुपा रह थी।
अचानक कोई सामने से या पीछे से आकर मुझे रोक लेगा, और कहेगा ‘नीतू’। और देर तक एक चुप्पी होगी हमारे बीच, मेरी बांह पकड़ेगा और मैं उसके गले लगकर फफककर रो दूंगी। क्यों, कब, कैसे, सब छूट जायेगा। ‘’चल, घर चलो, उठाओ होटल से सामान,’’ और सब एकाएक बदल जायेगा। अथवा कोई पीछे से आकर पीठ पर हाथ मारकर कहेगा अरे तू इतने सालों बाद। कहां थी आज तक और हम घंटों सालों की बातें करेंगे। हा-हा, ही-ही, इसकी-उसकी। कोई सामने से आयेगा और मैं उसे रोककर कहूंगी ‘पछाण्या नीं, मैं नीतू” या ‘‘मैं कविता’’। या कोई मिलेगा ‘ओ सरिता बड़े दिनां दुस्सी‘’ मैं फिक् से हंस दूंगी ‘सरिता नीं कविता मैं’, अज्जे ताईं नीं पछाणया सई, तू बी अडि़ए।‘ या फिर शायद सरिता ही कहीं दूर से पुकार ले।
भीड़ में आंखे गडाये घूम रही थी, शायद कोई, शायद कोई ।
किन्तु ऐसा कुछ नहीं हुआ, कुछ भी नहीं हुआ ऐसा। तो क्या यही उपलब्धि थी मेरे उस जीवन की जिसकी यादों को मैं वर्षों से अपने भीतर संजोये थी, कभी लौटूंगी तेरे पास, अपनी यादों के साथ, कुछ पुनर्जीवित करने के लिए, कौन, कोई, क्या मिलेगा, कभी समझा ही नहीं, जाना ही नहीं।
इतने दिन बीत गये किन्तु समझ नहीं पाई कि खण्डहर अभी जीवन्त हैं अथवा मैंने उन्हें तिलांजलि दे दी।