मेरी असमर्थ अभिव्यक्ति
जब भी
कुछ कहने का
प्रयास करती हूं कविता में,
तभी पाती हूं
कि उसे ही
एक अनजानी सी भाषा में,
अनजाने अव्यक्त शब्दों में,
जिनसे मैं जुड़ नहीं पाती
पूरी कोशिश के बावजूद भी,
किसी और ने
पहले ही कह रखी है वह बात।
.
या फिर
अनुभव मैं यह करती हूं,
कि जो मैं कहना चाहती हूं,
वह किसी और ने
मेरी ही भावनाएं चुराकर,
मानों मुझसे ही पूछकर,
मेरे ही विचार
मेरी ही इच्छानुसार,
लेकिन मुझसे पहले ही
अभिव्यक्त कर दिये हैं,
सही शब्दों में
सही लोगों के सामने
और सही रूप में।
शब्दों की तलाश में
भटकती थी मैं
जिनकी अभिव्यक्ति के लिए।
सारे शब्द
निर्थरक हो जाते थे
जिसे कहने के लिए मेरे सामने
वही बातें
कविता में व्यक्त कर दी हैं
किसी ने मानों
मेरी ही इच्छानुसार।
या फिर
तुम्हारा, उसका, इसका
सबका लिखा
गलत लगता है।
झूठ और छल।
मानों सब मिलकर
मेरे विरूद्ध
एक षड्यन्त्र के भागीदार हों।
मैं,
विरोध में कलम उठाती हूं
लिखना चाहती हूं
तुम्हारे, उसके, इसके लिखे के विरोध में।
बार बार लिखती हूं
पर फिर भी
अनलिखी रह जाती हूं
अनुभव बस एक अधूरेपन का।
आक्रोश, गुस्सा, झुंझलाहट,
विरोध, विद्रोह,
कुछ नहीं ठहरता।
इससे पहले कि लिखना पूरा करूं
चाय बनानी है, रोटी पकानी है
कपड़े धोने हैं
बीच में बच्चा रोने लगेगा
इसी बीच
स्याही चुक जाती है।
रोज़ नया आक्रोश जन्म लेता है
और चाय के साथ उफ़नकर
ठण्डा हो जाता है।
कभी लिख भी लेती हूं
तो बड़ा नाम नहीं है मेरे पास।
सम्पर्क साधन भी नहीं।
किसी गुट में भी नहीं।
फिर, किसी प्राध्यापक की
चरण रज भी नहीं ली मैंने।
किसी के बच्चे को टाफ़ियां भी नहीं खिलाईं
और न ही किसी की पत्नी को
भाभीजी बनाकर उसे तोहफ़े दिये।
मेरे पिता के पास भी
इतनी सामर्थ्य न थी
कि वे उनका कोई काम कर देते।
फिर वे मेरी रचनाओं में रूचि कैसे लेते।
और
इस सबके बाद भी लगता है
मैं ही गलत हूं कहीं
खामोश हो जीती हूं तब
अनकही, यह सोचकर
कि चलो
मेरे विचारों की अभिव्यक्ति हुई तो सही
मेरे द्वारा नहीं
तो किसी और के माध्यम से ही सही
पूर्णतया अस्पष्ट तो रही नहीं
प्रकट तो हुई
स्वयं नहीं कर पाई
तो किसी और की कृपा से
लोगों तक बात पहुंची तो सही
शायद यही कारण है
कि लोगों की लिखी कविताओं का
इतना बड़ा संग्रह मेरे पास है
जो कहीं मेरा अपना है।
पर सचमुच
आश्चर्य तो होता ही है
कि मेरे विचार
मेरी ही इच्छानुसार
मैं नहीं कोई और
कैसे अभिव्यक्त कर लेते हैं
इतने समर्थ होकर
.
जो मैं चाहती हूं
वही तुम भी चाहते हो
ऐसा कैसे।
तो क्या
इस दुनिया में
मेरे अतिरिक्त भी इंसान बसते हैं
या फिर
इस दुनिया में रहकर भी
मेरे भीतर इंसानियत बची है !